भारत में शिक्षा की बदहाल व्यवस्था, अमीर और गरीब के लिए शैक्षणिक सुविधाओं में जमीन-आसमान का अंतर, शिक्षा के क्षेत्र में सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा और निजी विद्यालयों को बढ़ावा, ऐसे तमाम बिंदुओं पर न जाने कब से विद्वानों, विशेषज्ञों द्वारा चिन्ता व्यक्त की जाती रही है। सरकारी विद्यालय कितनी दयनीय अवस्था में हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। यहां के अधिकतर शिक्षक सरकारी वेतन और अन्य सुविधाओं का पूरा लाभ लेते हैं, लेकिन यहां पढ़ने वाले गरीब तबके के बच्चे बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित होते हैं। यह विडम्बना ही है कि अब तक हम सरकारी विद्यालयों में शौचालयों, स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था भी पूरी तरह से नहीं कर पाए हैं। जब चुनाव का वक्त होता है या सरकार को अपनी छवि सुधारनी होती है तो वह सरकारी विद्यालयों के उद्धार की घोषणाएं करती है, मानो विद्यार्थियों पर एहसान कर रही हो, जबकि यह उसकी मूल जिम्मेदारी है। सरकारी विद्यालयों की दशा सुधारने के लिए एक सुझाव अमूमन दिया जाता रहा है कि अगर सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों यहां तक कि नेताओं-मंत्रियों के बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ने लगें तो यहां की सूरत अपने आप संवर जाएगी। लेकिन इस सुझाव को निहायत ही अव्यवहारिक मानकर खारिज करने में भी देर नहीं लगती। दरअसल हमारे समाज में शिक्षा का सम्बन्ध सम्पन्नता से इस तरह जोड़ लिया गया है कि सम्पन्न तबके के बच्चों को सुविधाहीन सरकारी विद्यालयों में भेजने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अपवादस्वरूप जो लोग अपने बच्चों को सरकारी विद्यालय में भर्ती करवाते हैं, उन्हें इस तरह देखा जाता है मानो उन्होंने कोई अनोखा कार्य किया हो। याद पड़ता है कि कुछ साल पहले तमिलनाडु में एक जिलाधीश महोदय अपने बच्चे का दाखिला सरकारी विद्यालय में करवाने पहुंचे और वहां अन्य लोगों के साथ कतार में खड़े हो गए तो सब आश्चर्य में पड़ गए। यह आश्चर्य हमारी इसी सोच से उपजा है कि सरकारी विद्यालयों में केवल मजबूर, लाचार, विपन्न लोगों के बच्चे ही पढ़ने जा सकते हैं। सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा के पीछे यह कारक सबसे अधिक जिम्मेदार है। इस पृष्ठभूमि में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आया है कि नौकरशाहों, नेताओं और सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले प्रत्येक व्यक्ति के बच्चों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ना अनिवार्य किया जाए। साथ ही ऐसा न करने वालों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही का प्रावधान किया जाए। जिनके बच्चे कॉन्वेंट विद्यालयों में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काट ली जाए। साथ ही ऐसे लोगों की कुछ समय के लिए वेतनवृद्धि व पदोन्नति रोकने की व्यवस्था की जाए। अगले शिक्षा सत्र से इसे लागू भी किया जाए। अदालत ने साफ किया कि जब तक इन लोगों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ेंगे, वहां के हालात नहीं सुधरेंगे।
अदालत ने राज्य सरकार को छह माह के भीतर यह व्यवस्था करने का आदेश देते हुए कृत कार्यवाही की रिपोर्ट पेश करने को कहा है। दरअसल जूनियर हाईस्कूलों में गणित व विज्ञान में सहायक शिक्षकों की चयन प्रक्रिया पर कई याचिकाएं अदालत में दायर की गई थीं। इनकी सुनवाई के दौरान ही यह तथ्य सामने आया कि प्रदेश के एक लाख 40 हजार जूनियर व सीनियर बेसिक स्कूलों में अध्यापकों के दो लाख 70 हजार पद रिक्त हैं। सैकड़ों विद्यालयों में पानी, शौचालय, बैठने की व्यवस्था जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है तो कइयों में छत भी नहीं है। सरकारी विद्यालयों की ऐसी बदहाल तस्वीर सामने आने पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने उपरोक्त फैसला दिया। उत्तर प्रदेश सरकार इस फैसले को किस रूप में लेती है और किस तरह लागू करवाती है, क्या इस फैसले को उच्चतम न्यायालय ले जाया जाता है, निजी विद्यालय अपनी दुकानदारी बचाने के लिए कौन से नए पैंतरे आजमाते हैं, यह देखने वाली बात होगी। मुमकिन है सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने के अनिच्छुक रुतबे वाले अधिकारी इस निर्णय को बदलवाने में सफल हो जाएं। लेकिन फिलहाल तसल्ली इस बात की है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने नहीं तो कम से कम न्यायपालिका ने सरकारी विद्यालयों की सुध ली और उनकी स्थिति सुधारने के लिए एक दूरदर्शितापूर्ण निर्णय दिया। अगर इस फैसले पर ईमानदारी से क्रियान्वयन होता है तो सचमुच शिक्षा क्षेत्र में यह क्रांतिकारी बदलाव होगा।
शिक्षा मंदिरों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल ही कहा था कि देश के सभी स्कूलों में शौचालय की सुविधा हो ताकि वह फक्र से कह सकें कि भारत में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय की सुविधा से रहित एक भी स्कूल नहीं है। मोदी सरकार की कथनी और करनी का स्याह सच यह है कि 4.19 लाख शौचालय बनाने के लक्ष्य के विपरीत अभी तक दो लाख शौचालय भी नहीं बने हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री ने चार अगस्त को दावा किया था कि 3.64 लाख शौचालयों का निर्माण हो चुका है। सवाल शौचालय बनाने का नहीं इन शौचालयों की स्थिति का है। देखा जाये तो इन शौचालयों में कहीं पानी की सुविधा नहीं है तो हजारों शौचालयों की प्रतिदिन सफाई भी नहीं हो रही। शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 में निजी स्कूलों को गरीब परिवार के बच्चों के लिए पच्चीस फीसदी स्थान आरक्षित रखने की हिदायत है, पर इस दिशा में कितनी ईमानदारी बरती गई, यह दिल्ली के स्कूलों में हुए प्रवेश फर्जीवाड़े से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। फर्जी दाखिले में जिन स्कूलों के नाम आए हैं वे सब इसमें अपना कोई हाथ होने से इनकार कर रहे हैं लेकिन क्या यह सम्भव है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के कोटे में हुए दाखिले को सामान्य कोटे में स्कूल की मिलीभगत के बगैर कर दिया जाए? दरअसल, एक बुनियादी सवाल शिक्षा प्रणाली से जुड़ा है और समाज से भी, वह यह कि दोहरी या असमान शिक्षा प्रणाली जब तक चलन में रहेगी शिक्षा का सत्यानाश होता ही रहेगा।
अदालत ने राज्य सरकार को छह माह के भीतर यह व्यवस्था करने का आदेश देते हुए कृत कार्यवाही की रिपोर्ट पेश करने को कहा है। दरअसल जूनियर हाईस्कूलों में गणित व विज्ञान में सहायक शिक्षकों की चयन प्रक्रिया पर कई याचिकाएं अदालत में दायर की गई थीं। इनकी सुनवाई के दौरान ही यह तथ्य सामने आया कि प्रदेश के एक लाख 40 हजार जूनियर व सीनियर बेसिक स्कूलों में अध्यापकों के दो लाख 70 हजार पद रिक्त हैं। सैकड़ों विद्यालयों में पानी, शौचालय, बैठने की व्यवस्था जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है तो कइयों में छत भी नहीं है। सरकारी विद्यालयों की ऐसी बदहाल तस्वीर सामने आने पर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने उपरोक्त फैसला दिया। उत्तर प्रदेश सरकार इस फैसले को किस रूप में लेती है और किस तरह लागू करवाती है, क्या इस फैसले को उच्चतम न्यायालय ले जाया जाता है, निजी विद्यालय अपनी दुकानदारी बचाने के लिए कौन से नए पैंतरे आजमाते हैं, यह देखने वाली बात होगी। मुमकिन है सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने के अनिच्छुक रुतबे वाले अधिकारी इस निर्णय को बदलवाने में सफल हो जाएं। लेकिन फिलहाल तसल्ली इस बात की है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने नहीं तो कम से कम न्यायपालिका ने सरकारी विद्यालयों की सुध ली और उनकी स्थिति सुधारने के लिए एक दूरदर्शितापूर्ण निर्णय दिया। अगर इस फैसले पर ईमानदारी से क्रियान्वयन होता है तो सचमुच शिक्षा क्षेत्र में यह क्रांतिकारी बदलाव होगा।
शिक्षा मंदिरों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल ही कहा था कि देश के सभी स्कूलों में शौचालय की सुविधा हो ताकि वह फक्र से कह सकें कि भारत में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय की सुविधा से रहित एक भी स्कूल नहीं है। मोदी सरकार की कथनी और करनी का स्याह सच यह है कि 4.19 लाख शौचालय बनाने के लक्ष्य के विपरीत अभी तक दो लाख शौचालय भी नहीं बने हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री ने चार अगस्त को दावा किया था कि 3.64 लाख शौचालयों का निर्माण हो चुका है। सवाल शौचालय बनाने का नहीं इन शौचालयों की स्थिति का है। देखा जाये तो इन शौचालयों में कहीं पानी की सुविधा नहीं है तो हजारों शौचालयों की प्रतिदिन सफाई भी नहीं हो रही। शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 में निजी स्कूलों को गरीब परिवार के बच्चों के लिए पच्चीस फीसदी स्थान आरक्षित रखने की हिदायत है, पर इस दिशा में कितनी ईमानदारी बरती गई, यह दिल्ली के स्कूलों में हुए प्रवेश फर्जीवाड़े से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। फर्जी दाखिले में जिन स्कूलों के नाम आए हैं वे सब इसमें अपना कोई हाथ होने से इनकार कर रहे हैं लेकिन क्या यह सम्भव है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के कोटे में हुए दाखिले को सामान्य कोटे में स्कूल की मिलीभगत के बगैर कर दिया जाए? दरअसल, एक बुनियादी सवाल शिक्षा प्रणाली से जुड़ा है और समाज से भी, वह यह कि दोहरी या असमान शिक्षा प्रणाली जब तक चलन में रहेगी शिक्षा का सत्यानाश होता ही रहेगा।
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