Sunday 30 November 2014

नौ दिन चले अढ़ाई कोस

देश की सल्तनत सम्हालने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने स्वभाव से विपरीत हर राष्ट्र से दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं। विपक्ष को उम्मीद थी कि मोदी के सत्तासीन होने के बाद राजधर्म में अड़चनें आएंगी लेकिन उनके छह माह के शासन ने सभी विपक्षी दलों को हैरत में डाल दिया है। पड़ोसियों का आपस में मिलना, एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सहभागी होना, आपसी लेन-देन और दीर्घकालीन सम्बन्ध निभाना समझदारी का कार्य है। मोदी के दोस्ताना प्रयासों और उनकी कार्यशैली का ही नतीजा है कि आज पाकिस्तान को छोड़कर दुनिया का हर राष्ट्र भारत की बलैयां ले रहा है।
हाल ही पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू में आयोजित 18वें सार्क सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी ने वही किया जो उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्रध्यक्षों से कहा था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पड़ोसी देशों के साथ विभिन्न मतभेदों व विवादों के बावजूद बेहतर सम्बन्ध बनाने के पक्ष में हैं। अपने छह माह के शासनकाल में मोदी ने दुनिया के सामने एक नजीर पेश की है। उन्होंने अपनी कार्यशैली से न केवल लोगों का दिल जीता है बल्कि इस बात का एहसास भी कराया कि वह जो कहते हैं वही करते हैं। सार्क सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान की तल्खी को यदि हम भुला दें तो सब कुछ मोदीमय ही रहा। इस सम्मेलन को भारत और पाकिस्तान के सन्दर्भ में देखना उचित नहीं होगा। वजह, जो भी तल्खी है वह पाकिस्तान निर्मित है। पाकिस्तान की ओर से तोड़ा गया युद्ध विराम और फिर संयुक्त राष्ट्र के मंच से कश्मीर का मुद्दा उठाना मोदी को ही नहीं हर भारतवासी को नागवार गुजरा है।
नवाज शरीफ बेशक भारत से दोस्ताना सम्बन्ध बनाने के पक्षधर हों पर   वहां की सेना और आईएसआई चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच मनमुटाव हमेशा बना रहे, उसी के मुताबिक वे चुनी हुई सरकार को निर्देशित भी करते हैं। यह संयोग ही था कि मुम्बई हमले की आठवीं बरसी के दिन ही 18वें सार्क सम्मेलन का आगाज हुआ। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कहना कि भारत उस हमले की पीड़ा भूला नहीं है, सौ फीसदी सच है। हर हिन्दुस्तानी आज पाकिस्तान को यदि धोखेबाज मानता है तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। सार्क सम्मेलन में आतंकवाद का मुद्दा उठना स्वाभाविक ही था। आतंकवाद अकेले भारत की ही समस्या नहीं है बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल सभी इससे पीड़ित हैं। कालांतर में जिस आतंकवाद को पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था वही आज उसके लिए कब्रगाह साबित हो रहा है। आतंकवादी किसी का सगा नहीं होता इस बात का इल्म पाकिस्तान को होना चाहिए। आतंकवाद का खात्मा अकेला भारत नहीं कर सकता।  यदि आतंकवाद का सफाया करना ही है तो सभी देशों को एकजुट होकर, खुफिया सूचनाएं साझा कर मानवता की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए। सामूहिक प्रयासों से ही आतंकवाद के पैर उखाड़े जा सकते हैं।
मोदी ने सम्मेलन में अपने चिर-परिचित अंदाज में सार्क देशों को जहां कई सपने दिखाए, कई फलसफे बयां किए वहीं कई घोषणाएं भी कीं। सार्क सम्मेलन के बहाने दूसरी बार नेपाल यात्रा पर गये मोदी ने अपने पड़ोसी  मुल्क को कई सौगातें भेंट कीं। मोदी के इन प्रयासों से भारत-नेपाल सम्बन्धों के और पुख्ता होने की उम्मीद बंधी है। मोदी को यही रवैया श्रीलंका, बांग्लादेश के साथ भी रखना चाहिए। इन देशों का भी हमारे क्षेत्रीय और जातीय राजनीति पर खासा प्रभाव है। अफगानिस्तान निरंतर संघर्षरत है, उसे भी आर्थिक, सामरिक सहयोग के साथ ही राजनीतिक स्थिरता कायम करने का सम्बल चाहिए। दुनिया की महाशक्ति चीन लम्बे समय से सार्क देशों में शामिल होने को लालायित है।  सार्क के वर्तमान सदस्य यह सुनिश्चित करें कि इसमें अमीर-गरीब सभी सदस्य देशों को बराबरी का न केवल दर्जा मिले बल्कि एक-दूसरे की कमियों को एक-दूसरे की ताकतों से भरने की कोशिश भी हो।
दुनिया के अतिविकसित, अल्पविकसित और विकासशील देशों में भी आपस में मिलकर काम करने की परम्परा दिनोंदिन प्रगाढ़ हो रही है। इंसान  हो या मुल्क, अकेले कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता। सफलता के लिए  किसी न किसी की मदद लेनी ही होती है। सार्क के गठन का अभिप्राय भी कुछ यही है। जब तक पड़ोसी धर्म प्रगाढ़ नहीं होगा सारे प्रयास अकारथ साबित होंगे। सार्क के गठन का उद्देश्य दक्षिण एशियाई लोगों का कल्याण, उनकी जीवनशैली में सुधार, क्षेत्र का आर्थिक विकास, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में तेजी, सामूहिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा, आपसी विश्वास, एक-दूसरे की समस्याओं के प्रति समझ, साझाहित के मामलों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों में मजबूत सहयोग, समान लक्ष्य तथा उद्देश्य के साथ अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग करना शामिल है। इन तमाम उद्देश्यों पर यदि ईमानदारी से अमल होता तो आज दुनिया के इस हिस्से की तस्वीर कुछ और होती।
यह कटु सत्य है कि आज भी सार्क देश अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखने को संघर्षरत हैं। अब तक हुए सभी सम्मेलन औपचारिकता मात्र साबित हुए हैं। सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष एक मंच पर कुछ औपचारिक घोषणाएं तो करते हैं लेकिन उन पर अमल कभी नहीं होता। यही कारण है कि इन देशों के बीच न आर्थिक सहयोग मेंं उल्लेखनीय वृद्धि हुई और न ही एक-दूसरे की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है। सार्क ही नहीं दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भी ऐसे संगठन गतिशील हैं। उनका आर्थिक, व्यापारिक, राजनीतिक यहां तक कि सामरिक व्यवहार भी सार्क से कहीं अधिक विकासमूलक  है। यूरोपियन यूनियन, नाफ्टा और आसियान के सदस्य देशों का आपसी व्यापार सार्क देशों के व्यापार से कहीं ज्यादा है। सार्क सदस्य देशों की जनसंख्या लगभग डेढ़ अरब है। इस जन समुदाय की माली हालत भाषणबाजी से नहीं बल्कि मजबूत इरादों से ही सुधर सकती है।

No comments:

Post a Comment