अगर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को भ्रष्टाचार के दलदल से निजात मिल पाती है तो उसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय को जायेगा। दुनियाभर में भद्रजनों का खेल माने गये क्रिकेट को इस बोर्ड ने न सिर्फ कारोबार, बल्कि सट्टेबाजी समेत कई तरह की आपराधिक गतिविधियों का जरिया बना दिया है। यही कारण है कि जो एक बार बोर्ड पर काबिज हो जाता है, फिर वहां से जाना नहीं चाहता। खेल की बदनामी और अपनी फजीहत के बावजूद एन. श्रीनिवासन अगर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष बने रहना चाहते हैं तो उसके मूल में भी निहित स्वार्थ ही हैं, वरना विशुद्ध कारोबारी इस शख्स का क्रिकेट से क्या रिश्ता? किसी भी कीमत पर बोर्ड पर अपना कब्जा बनाये रखने की श्रीनिवासन की तिकड़मों पर अब देश की सर्वोच्च अदालत ने अंतत: विराम लगा दिया लगता है। बोर्ड की लाड़ली क्रिकेट स्पर्धा आईपीएल में स्पॉट मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी के मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने बृहस्पतिवार को बहुत साफ कर दिया कि न सिर्फ श्रीनिवासन, बल्कि उनकी पूरी टीम को ही बोर्ड से विदा होना चाहिए। यह भी कि ये लोग बोर्ड के नये चुनाव में हिस्सा न लें, नया खून देश में क्रिकेट प्रबंधन संभाले और आईपीएल में स्पॉट मैच फिक्सिंग व सट्टेबाजी की बाबत जस्टिस मुद्गल समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई भी करे। श्रीनिवासन की आईपीएल टीम चेन्नई सुपरकिंग्स को अयोग्य साबित करने का स्पष्ट संकेत भी सर्वोच्च अदालत ने दे दिया है। ऐसा नहीं है कि बोर्ड के वकील ने श्रीनिवासन की पैरवी में कोई कसर छोड़ी हो, लेकिन कभी न कभी तो अति का अंत होता ही है, जो अकसर बुरा ही होता है। स्पॉट फिक्सिंग और सट्टेबाजी के चलते पूरी दुनिया में भारतीय क्रिकेट को बदनाम करवाने के बावजूद श्रीनिवासन जिस तरह इस कलंक कथा और इसके खलनायकों पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं, उससे साफ है कि खुद उनका दामन भी बेदाग नहीं है। श्रीनिवासन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के भी अध्यक्ष रहे और आईपीएल में भाग लेने और जीतने वाली टीम चेन्नई सुपरकिंग्स के मालिक भी। क्या यह हितों के टकराव का स्पष्ट और पुष्ट उदाहरण नहीं है?
कानूनी दांवपेचों के तहत कागज पर जो भी स्थिति हो, पर व्यावहारिक रूप से चेन्नई सुपरकिंग्स के कर्ताधर्ता नजर आने वाले मयप्पन, जो श्रीनिवासन के दामाद हैं, को मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी में फंसने पर महज क्रिकेट प्रेमी बताकर अदालत को भी गुमराह करने की कोशिश की गयी। यही नहीं, भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी चेन्नई सुपरकिंग्स के भी कप्तान ही नहीं हैं, बल्कि श्रीनिवासन के स्वामित्व वाली इंडिया सीमेंट कंपनी के अधिकारी भी हैं। क्या यह घालमेल ही नहीं है, जिसमें न कोई पैमाना है और न ही पारदर्शिता। लगता है कि देश में क्रिकेट को निजी जागीर की तरह चलाया जा रहा है, जिसमें न किसी की जिम्मेदारी है और न ही किसी के प्रति जवाबदेही। पहले शरद पवार सरीखे चतुर राजनेता से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कब्जाने और फिर इस कलंक कथा के चलते श्रीनिवासन का जो चरित्र उजागर हुआ है, उससे लगता है कि वह आसानी से मानने वाले नहीं हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के सख्त रुख के बाद शायद उनके पास कोई और विकल्प भी नहीं बचा है। शायद इसीलिए अब बोर्ड पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण की रणनीति बनायी जा रही है, ताकि चेहरे बदल जाने के बावजूद अपनी करतूतों की कड़ी सजा पाने से बचा जा सके। नये चेहरों के रूप में जो भी नाम उभर कर सामने आ रहे हैं, उनके न तो क्रिकेट से किसी संबंध का साक्ष्य है और न ही प्रबंधन क्षमता का कोई प्रमाण। इनमें से ज्यादातर चेहरे भारतीय क्रिकेट के बदनाम कारोबार में तबदील हो जाने के लिए जिम्मेदार रहे हैं और खुद उनकी छवि संदेहास्पद है। ये चेहरे सत्ता गलियारों से लेकर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तक हर उस जगह पाये जा सकते हैं, जहां से दौलत और शोहरत हासिल की जा सकती हो। सर्वोच्च न्यायालय के लिए शायद यह उपयुक्त न हो कि वह ऐसे तमाम बदनाम या संदेहास्पद चेहरों के ही चुनाव लड़ने पर रोक लगा दे, लेकिन श्रीनिवासन की कलंक कथा के विरुद्ध आवाज उठाने वालों और खेल की छवि के प्रति चिंतित लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि देश में क्रिकेट प्रबंधन की सफाई के इस अवसर को हाथ से न जाने दें।
कानूनी दांवपेचों के तहत कागज पर जो भी स्थिति हो, पर व्यावहारिक रूप से चेन्नई सुपरकिंग्स के कर्ताधर्ता नजर आने वाले मयप्पन, जो श्रीनिवासन के दामाद हैं, को मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी में फंसने पर महज क्रिकेट प्रेमी बताकर अदालत को भी गुमराह करने की कोशिश की गयी। यही नहीं, भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी चेन्नई सुपरकिंग्स के भी कप्तान ही नहीं हैं, बल्कि श्रीनिवासन के स्वामित्व वाली इंडिया सीमेंट कंपनी के अधिकारी भी हैं। क्या यह घालमेल ही नहीं है, जिसमें न कोई पैमाना है और न ही पारदर्शिता। लगता है कि देश में क्रिकेट को निजी जागीर की तरह चलाया जा रहा है, जिसमें न किसी की जिम्मेदारी है और न ही किसी के प्रति जवाबदेही। पहले शरद पवार सरीखे चतुर राजनेता से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड कब्जाने और फिर इस कलंक कथा के चलते श्रीनिवासन का जो चरित्र उजागर हुआ है, उससे लगता है कि वह आसानी से मानने वाले नहीं हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के सख्त रुख के बाद शायद उनके पास कोई और विकल्प भी नहीं बचा है। शायद इसीलिए अब बोर्ड पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण की रणनीति बनायी जा रही है, ताकि चेहरे बदल जाने के बावजूद अपनी करतूतों की कड़ी सजा पाने से बचा जा सके। नये चेहरों के रूप में जो भी नाम उभर कर सामने आ रहे हैं, उनके न तो क्रिकेट से किसी संबंध का साक्ष्य है और न ही प्रबंधन क्षमता का कोई प्रमाण। इनमें से ज्यादातर चेहरे भारतीय क्रिकेट के बदनाम कारोबार में तबदील हो जाने के लिए जिम्मेदार रहे हैं और खुद उनकी छवि संदेहास्पद है। ये चेहरे सत्ता गलियारों से लेकर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तक हर उस जगह पाये जा सकते हैं, जहां से दौलत और शोहरत हासिल की जा सकती हो। सर्वोच्च न्यायालय के लिए शायद यह उपयुक्त न हो कि वह ऐसे तमाम बदनाम या संदेहास्पद चेहरों के ही चुनाव लड़ने पर रोक लगा दे, लेकिन श्रीनिवासन की कलंक कथा के विरुद्ध आवाज उठाने वालों और खेल की छवि के प्रति चिंतित लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि देश में क्रिकेट प्रबंधन की सफाई के इस अवसर को हाथ से न जाने दें।
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