Friday 21 November 2014

शिक्षा पर अधकचरे सरकारी कदम

भारतीय जनता पार्टी की सरकार जब से देश की सल्तनत पर काबिज हुई है तभी से वह हर कुछ बदल देने को बेताब है। परिवर्तन की हड़बड़ी उसके कामकाज, नीतियों और योजनाओं में स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। यह बात सही है कि मोदी सरकार ने कई क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किए हैं लेकिन मुल्क के आंतरिक, विदेश, रक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में वह कोई क्रांतिकारी परिवर्तन अभी तक नहीं कर पाई है। इसकी वजह देश के उद्योगपतियों, व्यापारियों, देशी-विदेशी निवेशकों, बिचौलियों और अधिकारियों की सशक्त लाबियां हैं जो सरकार को मनमानी करने की छूट नहीं देतीं। इन क्षेत्रों में एक छोटा सा परिवर्तन भी सरकार की पेशानियों में बल डाल देता है। यही वजह है कि वह हर पहलू को ठोक बजाकर देखती है और उस परिवर्तन का असर जिन दिग्गजों पर होने वाला होता है, उन्हें भरोसे में लेकर ही आगे बढ़ती है। इस सबमेंं मोदी सरकार को अपने मतदाताओं का भी ख्याल रखना होता है।
 शिक्षा देश का अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है, पर इसकी स्थिति कतई संतोषजनक नहीं कही जा सकती। मोदी सरकार ही नहीं देश की पूर्ववर्ती सरकारों ने भी अब तक साक्षरता की अलख जगाने में अरबों रुपये खर्च किया है लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही है। प्राथमिक स्कूलों में मध्याह्न भोजन का स्याह सच किसी से छिपा नहीं है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी हम बहुत पीछे हैं। दुनिया के 275 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों तो एक सैकड़ा सर्वश्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में भारत का शुमार न होना हमारी लचर शिक्षा प्रणाली का ही सूचक है। मोदी सरकार बेशक देश को विश्वगुरु बनाने की हड़बड़ी दिखा रही हो पर शिक्षा के क्षेत्र में गुरुता प्राप्त करने की बजाए उसका ध्यान क्षुद्रहितों पर अधिक है। हाल ही केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने एक फैसला लिया है जिसके तहत अब केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन शिक्षा बंद कर दी जाएगी और सभी छात्रों के लिए संस्कृत पढ़ना अनिवार्य होगा।
भारत में 2011 में हुए एक एमओयू के तहत देश के करीब 500 केन्द्रीय विद्यालयों में कक्षा छह से आठवीं तक के विद्यार्थियों के लिए जर्मन की शिक्षा प्रारम्भ की गई थी। प्राथमिक शिक्षा के बाद छात्रों के सामने यह विकल्प था कि वे संस्कृत की जगह जर्मन की शिक्षा प्राप्त करें। गोएथे इंस्टीट्यूट मैक्समूलर भवन और केन्द्रीय विद्यालय संगठन के बीच हुए इस समझौते से मुल्क के लगभग 70 हजार छात्रों को बिना खर्च एक विदेशी भाषा सीखने का न केवल नया अवसर मिला था, बल्कि उनके लिए अवसरों के नए आयाम भी खुले। मोदी सरकार के सामने जब इस समझौते के नवीनीकरण की बात आई तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे खारिज कर दिया।  केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की अध्यक्षता में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के संचालक मंडल ने 27 अक्टूबर को अपनी बैठक में फैसला किया था कि संस्कृत के विकल्प के रूप में जर्मन भाषा की पढ़ाई खत्म की जाएगी।
बैठक में सवाल उठा कि उस एमओयू पर हस्ताक्षर कैसे किए गए जो शिक्षा की राष्ट्रीय नीति का उल्लंघन है। इस पर स्मृति ईरानी का यह कहना कि इससे राज्य और बच्चों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, कतई तर्कसंगत नहीं है। यह मामला सिर्फ संस्कृत को बढ़ावा देने का नहीं बल्कि संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का भी है। स्मृति ईरानी का यह कहना कि यह व्यवस्था त्रिभाषा फार्मूले यानी हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत पढ़ाने का उल्लंघन करती है, किसी के गले नहीं उतर रही। यह अच्छी बात है कि मानव संसाधन मंत्री को बच्चों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का ख्याल है लेकिन ऐसी चिन्ता और हड़बड़ी उन लाखों बच्चों के लिए क्यों नहीं दिखती जो स्कूलों का मुंह देखने की बजाय कूड़े-कचरे में अपनी उदरपूर्ति का जरिया ढूंढ़ने लगते हैं। इतना ही नहीं सरकार उन बच्चों से मुंह कैसे फेर सकती है जोकि सुविधाहीन सरकारी विद्यालयों में दाखिला लेने की औपचारिकता पूरी करने के बाद शिक्षकों की बेगार करते हैं। मोदी सरकार को उन बच्चों पर भी नजर डालनी चाहिए जोकि मातृभाषा हिन्दी बोलने या उसमें ही पढ़ने के अधिकार से वंचित रह अंग्रेजी में पढ़ने को विवश हैं। देश में ऐसे विद्यालयों की संख्या भी कम नहीं है जहां मातृभाषा या राष्ट्रभाषा बोलने पर न केवल प्रतिबंध है बल्कि बोलने पर अबोध बच्चों को सजा भी दी जाती है। स्मृति ईरानी को ऐसे मसलों पर संवैधानिक अधिकारों का हनन क्यों नहीं दिखाई देता? क्या यह सच नहीं है कि निजी विद्यालय सरकारी नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाते हैं, लेकिन उन पर हमारी सरकारें कोई अंकुश नहीं लगा पातीं। कहने को देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी बना लेकिन उसका पालन हो भी रहा है या नहीं, इसे देखने वाला कोई नहीं है।
दरअसल, मोदी सरकार को बच्चों के हितों से अधिक अपने हितों की परवाह है, तभी तो वह मध्य सत्र में जर्मन भाषा से तौबा कर संस्कृत भाषा पढ़ाने का फरमान जारी करती है। सरकार को यह सोचना चाहिए कि देश के नौनिहाल अनायास लिए गए इस परिवर्तन में कैसे ढलेंगे? बच्चे कोई कम्प्यूटर तो नहीं कि एक प्रोगाम डिलीट कर दूसरा फीड कर दिया जाए। दुखद बात तो यह है कि जो भी मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ बोल रहा है उसे संस्कृत और संस्कृति का विरोधी माना जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे इस आमूलचूल परिवर्तन के जरिए भाजपा यह जताने की कोशिश कर रही है कि वही भारतीय संस्कृति की रहनुमा है। चालू शिक्षा सत्र पूरा होने में अब चंद महीने शेष हैं, लिहाजा मोदी सरकार को अधबीच में बच्चों पर संस्कृत भाषा थोपने की जल्दबाजी से बचना चाहिए। यदि ऐसा करना ही है तो सरकार नए सत्र तक इंतजार करे क्योंकि जो बच्चे अब तक जर्मन पढ़ रहे थे, उन्हें संस्कृत पढ़ने में परेशानी होगी। मोदी सरकार को स्वहित की बजाय देशहित की सोच रखनी चाहिए।

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