Thursday 11 December 2014

मजहब पर फिर सियासत

आगरा के वेद नगर में आठ दिसम्बर को हुए धर्मान्तरण प्रकरण पर जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। राजनीतिक दलों के अपने-अपने तर्क हैं।  दिल्ली से लेकर लखनऊ तक, जी नहीं हर जुबान पर सिर्फ धर्मान्तरण  के नफा-नुकसान पर तर्क-कुतर्क दिए जा रहे हैं। कट्टरता परवान चढ़ रही है, लेकिन लोग धर्मान्तरण क्यों करते हैं, इसकी वजह पर कोई बात नहीं हो रही। आज आगरा में जो हुआ उस पर बहस करने की बजाय हमें मुल्क में सनातन समय से हो रहे धर्मान्तरण की मूल वजह पर चिन्तन करने की जरूरत है। धर्मान्तरण की मूल वजह मजहब का तिरस्कार नहीं बल्कि उदरपूर्ति है। कालांतर में भी गरीबी और सामाजिक तिररकार के चलते लोग धर्मान्तरण कर चुके हैं तो कई हजार लोगों ने एक से अनेक बार धर्म बदला है।
इसी साल के सितम्बर महीने में मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के बड़वाह में धर्मान्तरण की अनुगंूज सुनाई दी थी। तब कुछ लोगों के घर जाकर एक लाख रुपए का लालच देकर घर में लगी भगवान की फोटो हटाने की बात कही गई थी। आगरा में धर्मान्तरण मामले को लेकर शासन-प्रशासन चौकस  है तो दूसरी तरफ राज्य सरकार भी धर्मान्तरण को बड़ी चुनौती मानते हुए सजग है। धर्मान्तरण पर सभी जिलों में एसपी-एसएसपी की जवाबदेही तय कर अलर्ट जारी हो गया है। सरकार धर्मान्तरण रोकने को प्रतिबद्ध है। सरकार अलीगढ़ में 25 दिसम्बर के सम्भावित धर्मान्तरण की चर्चा से भी सावधान  है। यह अच्छी बात है।
देखा जाए तो भारतीय संविधान में हर व्यक्ति को किसी भी धर्म का अनुसरण करने की स्वतंत्रता तो धोखे में या जबरन धर्म परिवर्तन कराना अपराध है। मुल्क गवाह है कि अब तक जितने भी बार धर्म परिवर्तन हुए हैं उसके मूल में पेट, लालच या सामाजिक तिरस्कार ही रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री आजम खां आगरा में धर्म परिवर्तन को भाजपा की साजिश करार देते हुए, उस पर देश का माहौल खराब करने की तोहमत लगा रहे हैं तो बेबाक लेखिका तसलीमा जबरन धर्मान्तरण के खिलाफ होने के बावजूद मानती हैं कि इस्लाम में जबरन धर्मान्तरण की मनाही के बावजूद लोगों ने धर्म बदला है। उनका यह कहना कि जबरन धर्मान्तरण न होता तो आज इस्लाम अस्तित्व में नहीं होता। तसलीमा का इशारा पूर्व मुस्लिम शासकों की तरफ है। उनका हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए मुस्लिम और ईसाइयों को दोषी ठहराना भी कुछ हद सही है। मुस्लिम शासन में देश के हजारों हिन्दू जबरन धर्म परिवर्तन को मजबूर हुए थे। तसलीमा के पूर्वज भी मूर्तिपूजक से मुसलमान बने थे।
देश में धर्मान्तरण इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितना राजनीतिक प्रपंच रचा जा रहा है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या फिर नास्तिक बनने से समाज और देश की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है। समस्या पेट और गरीबी है जिससे आज तक मुल्क की कोई हुकूमत मुक्ति दिलाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखा सकी है। करोड़ों लोग आज भी दो वक्त की रोटी बिना सोते हैं। मजहब पेट की खातिर हमेशा बिका है। मुल्क में कालांतर से अब तक बलात धर्मान्तरण के मामले भी कम नहीं हुए हैं। देश-समाज और मुल्क की आवाम सहित राजनीतिक दलों को भी पता है कि हर धर्म-सम्प्रदाय में यह रिवाज रहा है। गरीब मुस्लिम हो, हिन्दू हो या फिर ईसाई यदि वह अपना पेट भरने की खातिर या स्वविवेक से अपनी भूल सुधार कर अपने पुश्तैनी धर्म को पुन: स्वीकारता है तो इसमें गुरेज क्या? धर्म को राजनीति का हथियार बनाने की मंशा से बेहतर होगा राजनीतिक दल गरीबों को गोद लेने की इच्छाशक्ति दिखाएं। धर्मान्तरण के बवेला से गरीबी नहीं भागेगी। मजहब की यह राजनीति दुश्मन देशों की कुचेष्टा ही बढ़ाएगी। दुनिया के विभिन्न धर्मों में हमेशा मतभेद रहे लेकिन कोई ऐसा साझा प्रयास नहीं हुआ जिसमें सभी एक मत रहे हों। क्या कुछ ऐसे साझे विषय नहीं खोजे जा सकते जिनसे मुल्क में सद्भाव कायम हो। 18 पुराणों में व्यास के दो वचन परोपकार पुण्य है और दूसरे को पीड़ा देना पाप है, ऐसा मंत्र है जोकि सभी धर्मों को आपस में जोड़ सकता है। मुश्किल यह है कि सभी मजहबों के ठेकेदार आज परोपकार का अलग-अलग अर्थ निकाल रहे हैं। ईसाईयों में परोपकार पर बहुत जोर दिया जाता है यहां दूसरों को जीसस का अनुयायी बनाना बहुत बड़ा उपकार माना जाता है। यही वजह रही कि उसके हाथ सल्तनत होने पर धर्म बदलवाने के लिए छल-बल का सहारा लिया गया। भारत ही नहीं उसने गरीब देशों के गरीब समुदायों पर भी डोरे डाले। उनका भी परोपकार लक्ष्य नहीं रहा वरना अपने देशों के गरीब ईसाईयों के कल्याण पर ध्यान जरूर देते। मुस्लिम देशों में धर्मान्तरण में असफल होने के चलते ही  इनका ध्यान हमेशा भारत, म्यांमार, श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों की तरफ रहा है। अफ्रीकी और अमेरिकी देश चूंकि ईसाई बन ही चुके हैं लिहाजा अब वहां सेवा कार्य नहीं के बराबर हैं। परोपकार तो बिना किसी अपेक्षा के किया जाना चाहिये लेकिन ऐसा नहीं हो रहा।
मौजूदा समय में आगरा के वेदनगर धर्मान्तरण मामले पर जो सियासत हो रही है, उसके हर राजनीतिक दल के अपने निहितार्थ हैं वरना यह मामला सियासत के बिना भी हल किया जा सकता है। अफसोस हाथ आये इस मौके को कोई गंवाना नहीं चाहता। जाति-धर्म की राजनीति करने वाले नहीं चाहते कि मामला मिल-बैठकर सुलटे। भारत में हमेशा गंगा-जमुनी संस्कृति पल्वित-पोषित हुई है। दुनिया में भारत धर्मगुरु है लिहाजा राजनीतिक दलों को धर्मान्तरण पर गंदी राजनीति करने की बजाय अमन-शांति का संकल्प लेना चाहिए।

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