संसद का शीतकालीन सत्र राजनीतिज्ञों के थोथे उसूलों की न केवल भेंट चढ़ रहा है बल्कि शह-मात के इस शर्मनाक खेल में आमजन के सरोकार एक-एक कर मटियामेट हो रहे हैं। राजनीतिज्ञों की अशालीन बतकही और धर्मान्तरण की कारगुजारी ने जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को असहज कर दिया है वहीं विपक्ष राज्यसभा में अपनी मजबूत स्थिति का अनुचित दोहन कर रहा है। यह स्थिति मजबूत भारतीय लोकतंत्र के लिए कतई शुभ संकेत नहीं है। धर्मान्तरण के जिस बखेड़े को लेकर विपक्ष ने आसमान सिर पर उठा रखा है, मोदी सरकार उस पर बहस करने को तैयार है। विपक्ष के मन में चोर है, यही वजह है कि वह सार्थक मसलों पर भी बहस करने की बजाय एन-केन-प्रकारेण संसदीय कार्यों में अवरोध पैदा कर सरकार को नीचा दिखाना चाहता है। विपक्ष बेशक अपनी कारगुजारियों को फतह मान रहा हो पर उसके कदाचरण से देश और आमजन के सरोकार जरूर जमींदोज हो रहे हैं।
लोकसभा में धर्मान्तरण पर बहस हो चुकी है, यह बात दीगर है कि बहस के अंत में सरकार का फैसला सुने बिना विपक्ष ने बहिर्गमन कर उस जनमानस के साथ धोखा किया जिसे उसने अपने दु:खद पलों का सारथी चुना है। सरकार राज्यसभा में भी बहस को तैयार है, पर विघ्नसंतोषी विपक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से धर्मान्तरण रोकने के आश्वासन की रट लगाकर किसी भी तरह से संसद नहीं चलने देना चाहता। विपक्ष की यह अनुचित अपेक्षा है। विपक्ष किसी भी मुद्दे पर सरकार से जवाब मांगने तो सरकार किस मसले पर कौन जवाब देगा इसके लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है। विपक्ष जिस धर्मान्तरण मामले को बेवजह तूल दे रहा है, वह कानून-व्यवस्था की जद में आता है। कानून व्यवस्था कायम रखना सिर्फ केन्द्र ही नहीं राज्य सरकारों का भी दायित्व है। यह बात विपक्ष भी बखूबी जानता है, बावजूद इसके वह प्रधानमंत्री के आश्वासन का पेंच फंसाकर संसदीय कार्यवाही में बाधा डालने का अक्षम्य गुनाह कर रहा है।
इसे भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना ही कहेंगे कि जनता जनार्दन अपने और मुल्क के भले के लिए जो जनप्रतिनिधि चुनती है वही उसके सरोकारों को भूलकर संसद के भीतर और बाहर शर्मनाक खेल खेलते है। भारतीय लोकतंत्र के संसदीय कार्यों में रुकावट डालने का यह पहला अवसर नहीं है। यूपीए सरकार के समय भी अवरोध और रुकावटें आर्इं पर अतीत और वर्तमान में फर्क सिर्फ इतना है कि तब ज्यादातर अवसरों पर सरकार बहस से मुंह चुराती थी और आज सरकार बहस को ताल ठोकती है तो विपक्ष पलायन कर जाता है। जो भी हो संसदीय कार्यों में पल-पल का अवरोध देश की मजबूत आर्थिक व्यवस्था के लिए कतई सुखद संकेत नहीं कहा जा सकता। संसदीय कार्यावधि में पक्ष-विपक्ष से यह उम्मीद की जाती है कि वे जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझेंगे और सदन में जनता के जमीनी मुद्दों पर सार्थक चर्चा करेंगे। जहां तक विपक्ष के नंगनाच का सवाल है उसके पास 365 दिन हैं। सदन रोज-रोज नहीं होते लिहाजा विपक्ष को सदन में चर्चा के अवसरों को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। संसदीय व्यवस्था अपेक्षित व्यवहार से ही प्रेरित है। विपक्ष इसे समझता भी है लेकिन वह अपने राजनीतिक हित का कोई भी अवसर जाया नहीं करना चाहता। विपक्ष को मर्यादाहीन भाषा और धर्मान्तरण पर संसदीय कार्यों में बाधा डालने से पहले अपने गिरेबां पर भी झांकना चाहिए। हमारे राजनीतिज्ञों ने बेतुके बोलों को अपना सहज हथियार बना लिया है। उन्हें किसी की भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। राजनीतिज्ञों के अनर्गल प्रलाप से उन्हें बेशक अपने मुरीदों की करतल ध्वनि सुनने को मिल जाती हो पर इससे जनमानस और आने वाली पीढ़ी के लिए गलत संकेत ही जाता है। साध्वी निरंजन ज्योति और साक्षी महाराज ने जो कुछ कहा वह उचित नहीं था लेकिन जो लोग उनके कहे को आज तिल का ताड़ बना रहे हैं उन्हें ममता, लालू, आजम खां आदि की जहर उगलती वाणी क्यों अच्छी लगती है? भारतीय लोकतंत्र का दु:खद और स्याह पक्ष तो यही है कि आज राजनीतिज्ञों की बदजुबानी को स्वीकारता मिल चुकी है। ऐसा मान लिया गया है कि बदजुबानी बेशक गलत हो लेकिन राजनीतिक लाभकारी जरूर है। भारतीय स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह की सोच का पनपना गम्भीर और चिन्तनीय बात है। अफसोस इस पर कहीं ऐसी कोई चिन्ता दिखाई नहीं दे रही। संसद में विरोधी दलों ने नंगनाच तो जरूर किया पर विपक्ष की मंशा सत्तारूढ़ दल को नीचा दिखाने तक ही सीमित रही। इस मसले पर सत्तारूढ़ दल ने बदजुबानी को अस्वीकार्य तो माना लेकिन विपक्ष पर राजनीतिक इस्तेमाल की तोहमत लगाकर मामले की इतिश्री कर दी। सत्तापक्ष और विपक्ष की इस लाभ-हानि की गणित से जनतांत्रिक परम्पराओं, मूल्यों और आदर्शों का जो नुकसान हुआ उसके दीर्घगामी परिणाम भयावह हो सकते हैं। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी है तो गलत रीति-नीति की आलोचना भी होना चाहिए। लेकिन, हमारे राजनीतिज्ञ यह भूल जाते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधी दुश्मन नहीं होता। हर इंसान की सोच और उसके कामकाज का तरीका अलग होता है। लोकतंत्र में भी हमेशा मतभेद रहे हैं लेकिन मौजूदा समय में जिस तरह का मनभेद देखा जा रहा है वह कतई उचित नहीं है। किसी की सोच और व्यवहार की आलोचना करने का अर्थ उसे गाली देना नहीं होता। अपशब्द से किसी का नुकसान हो या नहीं पर इससे स्वयं का चरित्र जरूर उजागर हो जाता है। यह सच है कि हमारे राजनीतिज्ञ बेशक किसी रंग-ढंग के हों लेकिन उनकी सोच में खोट जरूर होती है। बदजुबानी और धर्मान्तरण पर बखेड़ा खड़ा करने की बजाय विपक्ष को चिन्ता सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि हमारा राजनीतिक परिदृश्य आखिर ऐसा क्यों बन गया है? लोग कदाचरण को अपना हथियार क्यों बना रहे हैं? जो भी हो आहत-मर्माहत प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संघी साथियों और सांसदों-मंत्रियों को सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं का पाठ पढ़ाते हुए यह बताया है कि कब क्या, कैसे और कितना बोला जाना चाहिए। राजनीतिक शुचिता के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने का भाजपा के पास सुनहरा मौका है जिसे किसी भी सूरत में उसे अकारथ नहीं करना चाहिए।
लोकसभा में धर्मान्तरण पर बहस हो चुकी है, यह बात दीगर है कि बहस के अंत में सरकार का फैसला सुने बिना विपक्ष ने बहिर्गमन कर उस जनमानस के साथ धोखा किया जिसे उसने अपने दु:खद पलों का सारथी चुना है। सरकार राज्यसभा में भी बहस को तैयार है, पर विघ्नसंतोषी विपक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से धर्मान्तरण रोकने के आश्वासन की रट लगाकर किसी भी तरह से संसद नहीं चलने देना चाहता। विपक्ष की यह अनुचित अपेक्षा है। विपक्ष किसी भी मुद्दे पर सरकार से जवाब मांगने तो सरकार किस मसले पर कौन जवाब देगा इसके लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है। विपक्ष जिस धर्मान्तरण मामले को बेवजह तूल दे रहा है, वह कानून-व्यवस्था की जद में आता है। कानून व्यवस्था कायम रखना सिर्फ केन्द्र ही नहीं राज्य सरकारों का भी दायित्व है। यह बात विपक्ष भी बखूबी जानता है, बावजूद इसके वह प्रधानमंत्री के आश्वासन का पेंच फंसाकर संसदीय कार्यवाही में बाधा डालने का अक्षम्य गुनाह कर रहा है।
इसे भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना ही कहेंगे कि जनता जनार्दन अपने और मुल्क के भले के लिए जो जनप्रतिनिधि चुनती है वही उसके सरोकारों को भूलकर संसद के भीतर और बाहर शर्मनाक खेल खेलते है। भारतीय लोकतंत्र के संसदीय कार्यों में रुकावट डालने का यह पहला अवसर नहीं है। यूपीए सरकार के समय भी अवरोध और रुकावटें आर्इं पर अतीत और वर्तमान में फर्क सिर्फ इतना है कि तब ज्यादातर अवसरों पर सरकार बहस से मुंह चुराती थी और आज सरकार बहस को ताल ठोकती है तो विपक्ष पलायन कर जाता है। जो भी हो संसदीय कार्यों में पल-पल का अवरोध देश की मजबूत आर्थिक व्यवस्था के लिए कतई सुखद संकेत नहीं कहा जा सकता। संसदीय कार्यावधि में पक्ष-विपक्ष से यह उम्मीद की जाती है कि वे जनता के प्रति अपनी जवाबदेही समझेंगे और सदन में जनता के जमीनी मुद्दों पर सार्थक चर्चा करेंगे। जहां तक विपक्ष के नंगनाच का सवाल है उसके पास 365 दिन हैं। सदन रोज-रोज नहीं होते लिहाजा विपक्ष को सदन में चर्चा के अवसरों को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। संसदीय व्यवस्था अपेक्षित व्यवहार से ही प्रेरित है। विपक्ष इसे समझता भी है लेकिन वह अपने राजनीतिक हित का कोई भी अवसर जाया नहीं करना चाहता। विपक्ष को मर्यादाहीन भाषा और धर्मान्तरण पर संसदीय कार्यों में बाधा डालने से पहले अपने गिरेबां पर भी झांकना चाहिए। हमारे राजनीतिज्ञों ने बेतुके बोलों को अपना सहज हथियार बना लिया है। उन्हें किसी की भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। राजनीतिज्ञों के अनर्गल प्रलाप से उन्हें बेशक अपने मुरीदों की करतल ध्वनि सुनने को मिल जाती हो पर इससे जनमानस और आने वाली पीढ़ी के लिए गलत संकेत ही जाता है। साध्वी निरंजन ज्योति और साक्षी महाराज ने जो कुछ कहा वह उचित नहीं था लेकिन जो लोग उनके कहे को आज तिल का ताड़ बना रहे हैं उन्हें ममता, लालू, आजम खां आदि की जहर उगलती वाणी क्यों अच्छी लगती है? भारतीय लोकतंत्र का दु:खद और स्याह पक्ष तो यही है कि आज राजनीतिज्ञों की बदजुबानी को स्वीकारता मिल चुकी है। ऐसा मान लिया गया है कि बदजुबानी बेशक गलत हो लेकिन राजनीतिक लाभकारी जरूर है। भारतीय स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह की सोच का पनपना गम्भीर और चिन्तनीय बात है। अफसोस इस पर कहीं ऐसी कोई चिन्ता दिखाई नहीं दे रही। संसद में विरोधी दलों ने नंगनाच तो जरूर किया पर विपक्ष की मंशा सत्तारूढ़ दल को नीचा दिखाने तक ही सीमित रही। इस मसले पर सत्तारूढ़ दल ने बदजुबानी को अस्वीकार्य तो माना लेकिन विपक्ष पर राजनीतिक इस्तेमाल की तोहमत लगाकर मामले की इतिश्री कर दी। सत्तापक्ष और विपक्ष की इस लाभ-हानि की गणित से जनतांत्रिक परम्पराओं, मूल्यों और आदर्शों का जो नुकसान हुआ उसके दीर्घगामी परिणाम भयावह हो सकते हैं। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी है तो गलत रीति-नीति की आलोचना भी होना चाहिए। लेकिन, हमारे राजनीतिज्ञ यह भूल जाते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधी दुश्मन नहीं होता। हर इंसान की सोच और उसके कामकाज का तरीका अलग होता है। लोकतंत्र में भी हमेशा मतभेद रहे हैं लेकिन मौजूदा समय में जिस तरह का मनभेद देखा जा रहा है वह कतई उचित नहीं है। किसी की सोच और व्यवहार की आलोचना करने का अर्थ उसे गाली देना नहीं होता। अपशब्द से किसी का नुकसान हो या नहीं पर इससे स्वयं का चरित्र जरूर उजागर हो जाता है। यह सच है कि हमारे राजनीतिज्ञ बेशक किसी रंग-ढंग के हों लेकिन उनकी सोच में खोट जरूर होती है। बदजुबानी और धर्मान्तरण पर बखेड़ा खड़ा करने की बजाय विपक्ष को चिन्ता सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि हमारा राजनीतिक परिदृश्य आखिर ऐसा क्यों बन गया है? लोग कदाचरण को अपना हथियार क्यों बना रहे हैं? जो भी हो आहत-मर्माहत प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संघी साथियों और सांसदों-मंत्रियों को सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं का पाठ पढ़ाते हुए यह बताया है कि कब क्या, कैसे और कितना बोला जाना चाहिए। राजनीतिक शुचिता के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने का भाजपा के पास सुनहरा मौका है जिसे किसी भी सूरत में उसे अकारथ नहीं करना चाहिए।
No comments:
Post a Comment