छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले के जख्म अभी भरे भी नहीं थे कि आतंकवादियों ने कश्मीर में दुस्साहस दिखाकर हमारी सुरक्षा व्यवस्था को ललकारा है। जवानों की शहादत से हर भारतवासी दु:खी है, पर उसके जेहन में एक ही सवाल गूंज रहा है कि जब रक्षक ही सुरक्षित नहीं हैं तो भला सवा सौ करोड़ की कैसी सुरक्षा? हमारी सुरक्षा व्यवस्था का स्याह सच किसी से भी छिपा नहीं है। हम आतंकवाद से हार चुके हैं। हमारी हुकूमतों की कोशिशें डर गई हैं यही वजह है कि हम बार-बार उस पड़ोसी पाकिस्तान पर तोहमत लगाते हैं जो खुद आतंकवाद की आग में झुलस रहा है।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों द्वारा चौदह जवानों की निर्मम हत्या और अब कश्मीर में जवानों के बलिदान ने साबित किया है कि आतंकवाद मुल्क की गम्भीर चुनौती है, जिसका समाधान किसी पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से नहीं हो सकता। संसद के भीतर और बाहर साध्वी निरंजन ज्योति के तीखे बोलों पर तो हमारे जनप्रतिनिधि हो-हल्ला मचाते हैं लेकिन उस आतंकवाद पर कुछ भी बोलने की इच्छाशक्ति नहीं दर्शाते जो हमारे सुरक्षा बलों का लगातार मनोबल तोड़ रहा है। छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के विरुद्ध 2010 में हुए नक्सलवादियों के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद उम्मीद थी कि अतिरिक्त सुरक्षा और रणनीति में बदलाव होगा, लेकिन हम नहीं चेते। आज दिल्ली और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार हैं लिहाजा आतंकवाद की चुनौती से निबटने के लिए उसे कारगर रणनीति बनानी चाहिए। निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के चलते नक्सलवादियों के लिए स्वर्ग बना हुआ है, फिर भी देश की सम्प्रभुता, संविधान व व्यवस्था को चुनौती देने वाली ताकतों पर किसी भी कीमत पर रहम नहीं दिखाना चाहिए। इस तरह की आतंकवादी घटनाओं से जहां सुरक्षा बलों का मनोबल टूटता है वहीं चरमपंथियों के दुस्साहस को बढ़ावा मिलता है। भारत में नक्सलवाद की शुरुआत विकास की विसंगतियों से होती है। आज देश के समृद्ध प्रकृति विरासत वाले राज्य सबसे ज्यादा तंगहाल हैं। सत्ता, पूंजीपतियों और भूमाफियों ने जहां इन इलाकों का निर्मम दोहन किया वहीं दूसरी तरफ शासन की शिथिलता के चलते विकास की किरणें इन इलाकों तक आज भी नहीं पहुंचीं। मुल्क के कई राज्यों में विस्तार पा रही नक्सली गतिविधियों और आतंकवाद को आज राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लेने की जरूरत है। इन्हें कहां से पैसा व हथियार मिल रहे हैं, उन स्रोतों पर नकेल कसने की जरूरत है। आधुनिक तकनीक व कारगर रणनीति से ही इस जटिल समस्या का समाधान सम्भव है। देश से यदि आतंकवाद का खात्मा करना है तो इसके लिए राज्य और केन्द्र के बीच बेहतर तालमेल भी जरूरी है। नक्सली और आतंकी हमले हमारी संचार तंत्र में नाकामी की मुख्य वजह हैं। पिछले दो-ढाई दशक में नक्सली और आतंकी वारदातों का दायरा जिस गति से बढ़ा है, यह चिन्ता की बात है।
देखा जाए तो दहशतगर्द लगातार आम जनता, सुरक्षा बलों और राजनेताओं पर हमले-दर-हमले कर रहे हैं लेकिन सरकार की तरफ से हर बार एक ही प्रतिक्रिया होती है कि यह कायराना हरकत है और इसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। सरकार बेशक दहशतगर्दों को मुंहतोड़ जवाब दे या उनका हिंसक खेल रोके लेकिन उसके ईमानदार प्रयास लोगों की नजर आने चाहिए। हर बार रटी-रटाई प्रतिक्रिया, मुआवजा व शहीदों का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर देने के अलावा सरकार की तरफ से कोई नई बात, नई पहल नजर नहीं आती। छत्तीसगढ़ की जहां तक बात है वहां जवानों की सीमित संख्या और नक्सलियों की बढ़ती संख्या के बीच जीत हमेसा नक्सलियों की ही हुई है। सरकार कभी बलप्रयोग, कभी बातचीत तो कभी नक्सलियों को आत्मसमर्पण कराने के विभिन्न तरीके अपना रही है। हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में 63 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया था, अब इनको राज्य की माओवादी पुनर्वास नीति का लाभ मिलेगा। केन्द्र सरकार के आंकड़ों को सच मानें तो इस साल अब तक 472 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें से 247 छत्तीसगढ़ के हैं। माओवादियों के लगातार हथियार डालने से दहशतगर्दों में बौखलाहट होना स्वाभाविक है। नक्सली नेताओं का आरोप है कि आत्मसमर्पण के नाम पर पुलिस और सुरक्षा बल बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा कर रहे हैं। बस्तर की ताजा नक्सली घटना माओवादियों के आत्मसमर्पण की बौखलाहट तो कश्मीर में आतंकी हमले चुनावी निराशा का प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ और कश्मीर में हाल की दहशतगर्दी केन्द्र की मोदी सरकार के लिए चुनौती है। कुछ दिनों पहले ही डीजी कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री मोदी ने पुलिस को स्मार्ट बनने का मंत्र दिया था। उन्होंने देशवासियों की रक्षा के लिए पुलिस वालों की शहादत का जिक्र किया तो बीएसएफ की वर्षगांठ पर राजनाथ सिंह ने जवानों के बलिदानों को बुकलेट में प्रकाशित करने की बात कही। शहादत का सम्मान बिल्कुल सही कदम है पर केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सोचना चाहिए कि हमलों का यह सिलसिला कैसे थमे और कैसे निर्दोष लोगों को मौत से बचाया जाए। छत्तीसगढ़ में नक्सली तो कश्मीर में लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन सुरक्षा बलों के साथ दुस्साहस दिखा रहे हैं। आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर में चल रहे विधानसभा चुनाव में व्यवधान डालने के इरादे से ही घुसपैठ के प्रयास किए हैं।
जम्मू क्षेत्र में भारत-पाक सीमा के समीप अरनिया सेक्टर में 28 नवम्बर को हुई मुठभेड़ और छह दिसम्बर को राज्य में चार स्थानों पर हुए हमले सीमापार से घुसपैठ का ही परिणाम हैं। अरनिया सेक्टर में 28 नवम्बर को मुठभेड़ में तीन सैन्यकर्मियों समेत 12 लोग मारे गए थे जबकि छह दिसम्बर को 11 सुरक्षाकर्मियों समेत 21 लोगों की जान गई थी। इस साल कश्मीर में घुसपैठ की जहां तक बात है माह अक्टूबर तक 130 से अधिक कोशिशें हुईं और उनमें से करीब 45 तीन महीने में हुई हैं। बीते साल भारत-पाकिस्तान सीमा पर 354 बार घुसपैठ के प्रयास हुए जिनमें जहां 56 आतंकवादी मारे गए वहीं 145 गिरफ्तार हुए थे। किसी मुल्क पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से बेहतर होगा कि मोदी सरकार सांप को दूध पिलाने की जगह अधकचरी सुरक्षा व्यवस्था को फौलादी बनाए।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों द्वारा चौदह जवानों की निर्मम हत्या और अब कश्मीर में जवानों के बलिदान ने साबित किया है कि आतंकवाद मुल्क की गम्भीर चुनौती है, जिसका समाधान किसी पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से नहीं हो सकता। संसद के भीतर और बाहर साध्वी निरंजन ज्योति के तीखे बोलों पर तो हमारे जनप्रतिनिधि हो-हल्ला मचाते हैं लेकिन उस आतंकवाद पर कुछ भी बोलने की इच्छाशक्ति नहीं दर्शाते जो हमारे सुरक्षा बलों का लगातार मनोबल तोड़ रहा है। छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के विरुद्ध 2010 में हुए नक्सलवादियों के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद उम्मीद थी कि अतिरिक्त सुरक्षा और रणनीति में बदलाव होगा, लेकिन हम नहीं चेते। आज दिल्ली और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार हैं लिहाजा आतंकवाद की चुनौती से निबटने के लिए उसे कारगर रणनीति बनानी चाहिए। निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के चलते नक्सलवादियों के लिए स्वर्ग बना हुआ है, फिर भी देश की सम्प्रभुता, संविधान व व्यवस्था को चुनौती देने वाली ताकतों पर किसी भी कीमत पर रहम नहीं दिखाना चाहिए। इस तरह की आतंकवादी घटनाओं से जहां सुरक्षा बलों का मनोबल टूटता है वहीं चरमपंथियों के दुस्साहस को बढ़ावा मिलता है। भारत में नक्सलवाद की शुरुआत विकास की विसंगतियों से होती है। आज देश के समृद्ध प्रकृति विरासत वाले राज्य सबसे ज्यादा तंगहाल हैं। सत्ता, पूंजीपतियों और भूमाफियों ने जहां इन इलाकों का निर्मम दोहन किया वहीं दूसरी तरफ शासन की शिथिलता के चलते विकास की किरणें इन इलाकों तक आज भी नहीं पहुंचीं। मुल्क के कई राज्यों में विस्तार पा रही नक्सली गतिविधियों और आतंकवाद को आज राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लेने की जरूरत है। इन्हें कहां से पैसा व हथियार मिल रहे हैं, उन स्रोतों पर नकेल कसने की जरूरत है। आधुनिक तकनीक व कारगर रणनीति से ही इस जटिल समस्या का समाधान सम्भव है। देश से यदि आतंकवाद का खात्मा करना है तो इसके लिए राज्य और केन्द्र के बीच बेहतर तालमेल भी जरूरी है। नक्सली और आतंकी हमले हमारी संचार तंत्र में नाकामी की मुख्य वजह हैं। पिछले दो-ढाई दशक में नक्सली और आतंकी वारदातों का दायरा जिस गति से बढ़ा है, यह चिन्ता की बात है।
देखा जाए तो दहशतगर्द लगातार आम जनता, सुरक्षा बलों और राजनेताओं पर हमले-दर-हमले कर रहे हैं लेकिन सरकार की तरफ से हर बार एक ही प्रतिक्रिया होती है कि यह कायराना हरकत है और इसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। सरकार बेशक दहशतगर्दों को मुंहतोड़ जवाब दे या उनका हिंसक खेल रोके लेकिन उसके ईमानदार प्रयास लोगों की नजर आने चाहिए। हर बार रटी-रटाई प्रतिक्रिया, मुआवजा व शहीदों का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर देने के अलावा सरकार की तरफ से कोई नई बात, नई पहल नजर नहीं आती। छत्तीसगढ़ की जहां तक बात है वहां जवानों की सीमित संख्या और नक्सलियों की बढ़ती संख्या के बीच जीत हमेसा नक्सलियों की ही हुई है। सरकार कभी बलप्रयोग, कभी बातचीत तो कभी नक्सलियों को आत्मसमर्पण कराने के विभिन्न तरीके अपना रही है। हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में 63 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया था, अब इनको राज्य की माओवादी पुनर्वास नीति का लाभ मिलेगा। केन्द्र सरकार के आंकड़ों को सच मानें तो इस साल अब तक 472 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें से 247 छत्तीसगढ़ के हैं। माओवादियों के लगातार हथियार डालने से दहशतगर्दों में बौखलाहट होना स्वाभाविक है। नक्सली नेताओं का आरोप है कि आत्मसमर्पण के नाम पर पुलिस और सुरक्षा बल बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा कर रहे हैं। बस्तर की ताजा नक्सली घटना माओवादियों के आत्मसमर्पण की बौखलाहट तो कश्मीर में आतंकी हमले चुनावी निराशा का प्रतीक हैं। छत्तीसगढ़ और कश्मीर में हाल की दहशतगर्दी केन्द्र की मोदी सरकार के लिए चुनौती है। कुछ दिनों पहले ही डीजी कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री मोदी ने पुलिस को स्मार्ट बनने का मंत्र दिया था। उन्होंने देशवासियों की रक्षा के लिए पुलिस वालों की शहादत का जिक्र किया तो बीएसएफ की वर्षगांठ पर राजनाथ सिंह ने जवानों के बलिदानों को बुकलेट में प्रकाशित करने की बात कही। शहादत का सम्मान बिल्कुल सही कदम है पर केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सोचना चाहिए कि हमलों का यह सिलसिला कैसे थमे और कैसे निर्दोष लोगों को मौत से बचाया जाए। छत्तीसगढ़ में नक्सली तो कश्मीर में लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन सुरक्षा बलों के साथ दुस्साहस दिखा रहे हैं। आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर में चल रहे विधानसभा चुनाव में व्यवधान डालने के इरादे से ही घुसपैठ के प्रयास किए हैं।
जम्मू क्षेत्र में भारत-पाक सीमा के समीप अरनिया सेक्टर में 28 नवम्बर को हुई मुठभेड़ और छह दिसम्बर को राज्य में चार स्थानों पर हुए हमले सीमापार से घुसपैठ का ही परिणाम हैं। अरनिया सेक्टर में 28 नवम्बर को मुठभेड़ में तीन सैन्यकर्मियों समेत 12 लोग मारे गए थे जबकि छह दिसम्बर को 11 सुरक्षाकर्मियों समेत 21 लोगों की जान गई थी। इस साल कश्मीर में घुसपैठ की जहां तक बात है माह अक्टूबर तक 130 से अधिक कोशिशें हुईं और उनमें से करीब 45 तीन महीने में हुई हैं। बीते साल भारत-पाकिस्तान सीमा पर 354 बार घुसपैठ के प्रयास हुए जिनमें जहां 56 आतंकवादी मारे गए वहीं 145 गिरफ्तार हुए थे। किसी मुल्क पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से बेहतर होगा कि मोदी सरकार सांप को दूध पिलाने की जगह अधकचरी सुरक्षा व्यवस्था को फौलादी बनाए।
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