Sunday 14 December 2014

गरीबी खरीद गुम हो गयी सियासत

आखिर कौन सुनने वाला है वेदनगर की वेदना
आगरा। आगरा के वेदनगर में लगी धर्मांतरण की आग अब पूरी तरह सियासत में बदल चुकी है। इस बस्ती में रहने वाले गरीबों को पहले धर्मान्तरण के ठेकेदारों ने खरीदा, उसके बाद सियासतदानों ने अपनी सियासत चमकाने के लिए उनकी गरीबी का सौदा किया। जैसे ही इन लोगों के सियासी हित पूरे हो गए, वे बस्ती को उसी के हाल पर छोड़कर कहीं गुम हो गए। आज इस बस्ती के लोगों का हाल पूछने वाला कोई नहीं है।
वेदनगर में धर्मान्तरण की आग राजनीतिक गलियारों से होकर अब लोगों के दिलो-दिमाग तक पहुंच चुकी है। इस मामले को लेकर बहस-मुबाहिसों का दौर शुरू हो चुका है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर लांछन लगाने से बाज नहीं आ रहे तो मीडिया भी स्याह सच से बेखबर कनसुनी खबरों पर ही यकीन कर रहा है।। जिन लोगों को लेकर देश भर में बखेड़ा मचा हुआ है, उनकी कही बातों में भी बहुत झोल है। आगरा की कोख में सिर्फ वेदनगर ही क्यों बहुत सारे ऐसे स्थल हैं जहां गरीबी की वेदना को कोई सुनने वाला नहीं है। प्रशासनिक लापरवाही के चलते ऐसे स्थानों पर आपराधिक तंत्र भी अपनी जड़ें जमा लेता है। वेदनगर में अस्थायी ठौर-ठिकाना जमाए इन गरीब परवरदिगारों के हाशिये पर चले गये मूल सरोकारों का दर्द साफ-साफ चुगली   कर रहा है कि ये सिर्फ और सिर्फ ऊपर वाले के रहम पर ही आश्रित हैं। इनका शासन-प्रशासन से कोई लेना-देना नहीं है। प्रशासन के पास ऐसा कोई दस्तावेज भी शायद ही हो कि मूलत: ये लोग कहां के हैं और कब इन्हें आगरा रास आ गया। धर्मांतरण को लेकर कुछ भी क्यों न कहा जा रहा हो पर काम की तलाश में आगरा आये इन लोगों को किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं है। वेदनगर की इस बस्ती में शिक्षा और गरीबी का स्याह सच यह बताने के लिए काफी है कि उन पर किसी सरकार का कोई ध्यान नहीं है। सबको अपनी जन्मभूमि से अगाध स्नेह होता है लेकिन अपने आपको मूलत: पश्चिम बंगाल का बताने वाले यह लोग मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी नहीं मिलना चाहते। समाचार-पत्रों में छपी म्यांमार और बंगलादेशी होने की खबरों ने इन्हें डरा दिया है। इनका जीवन ठहर सा गया है। ये लोग कौन हैं, कहां से कब आए इसकी जानकारी प्रशासन तो क्या आस-पास के लोगों को भी नहीं है। झुग्गी-झोपड़ियों में जीवन बसर कर रहे यह लोग बहुत कुछ कहना चाहते हैं लेकिन इन पर किसी का दबाव है। वेदनगर धर्मांतरण मामले को लेकर कुछ भी क्यों न कहा-सुना जा रहा हो पर यह बात शत-प्रतिशत सही है कि राजनीतिक दलों को भी इनके जाति-धर्म और मूल निवास की पुख्ता जानकारी नहीं है। सवाल जाति-धर्म का नहीं इनके मौजूदा सूरत-ए-हाल का है। फिलवक्त वेदनगर की इस बस्ती में रह रहे इन तथाकथित बंगालियों की रसोई एक है। इस बस्ती को गोद लेने नहीं बल्कि मदद देने के प्रयास तो हो रहे हैं लेकिन टके भर का सवाल यह है कि पुलिस सुरक्षा के बीच जी रहे कोई पौने दो सौ लोग कब तक रहम की भीख से अपनी उदरपूर्ति करेंगे? सवाल वोट की लहलहाती खेती का नहीं बल्कि उस इंसानियत का है जिस पर हर गरीब-अमीर का बराबर का अधिकार है। लोग धर्मांतरण की बातों पर तो चटकारे ले रहे हैं लेकिन इनके बाल-गोपाल कब स्कूल का मुंह देखेंगे इस पर न तो धर्म के ठेकेदारों का ध्यान है और न ही प्रशासन सुध लेने को तैयार है। वेदनगर के धर्मांतरण का स्याह सच वह डायन गरीबी है जिसके चलते अतीत से आज तक अनगिनत बार लोगों ने मजहब बदला है। वेदनगर के यह गरीब  सरकार नहीं बल्कि उन लोगों के रहम पर निर्भर हैं जिनकी जमीनों पर ये उगता और डूबता सूरज रोज देखते हैं। इन लोगों को कभी भी चले जाने का फरमान सुनाया जा सकता है। राजनीतिज्ञों को इस बात का इल्म होना चाहिए कि जिसका कोई ठौर-ठिकाना ही नहीं उसको लेकर इतना बखेड़ा क्यों?  

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