Friday 26 December 2014

असम में जख्म बनता नासूर

हमें आजादी की सांस लिए 67 साल हो गये हैं। इस बीच देश की आवाम को तरह-तरह के प्रयोगों से गुजरने को बाध्य होना पड़ा है। पड़ोसी राष्ट्रों से तीन-तीन युद्ध, अभिव्यक्ति के अपहरण वाला आपातकाल, खालिस्तान निर्माण का शंखनाद, बाबरी मस्जिद विध्वंस, मण्डल आयोग और कट््टर जातिवादी राजनीति के प्राकट्य के साथ ही छत्तीसगढ़ और असम जैसी दुर्दान्त वारदातों ने राष्ट्र-राज्य के नरम नहीं, बल्कि देशवासियों के भी निहायत कमजोर होने के प्रमाण दिए हैं।
आज राष्ट्र और राष्ट्रवाद दोनों ही शब्द खुली लूट का पर्याय बन चुके हैं। राजनीति में तुष्टिकरण जाति और धर्म के आधार पर इतना बढ़ा कि बहुसंख्यक नागरिक समाज को लगा कि उसका सांस्कृतिक प्रभुत्व खतरे में है। मुल्क में घुसपैठ के चलते हम अपनी अस्मिता की सनातन पहचान भी खोते जा रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से देश में हिन्दुत्ववाद का एजेंडा राजनीति में प्रायोजित तरीके से लाया गया है। एक सतही किस्म के राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक बोध ने सत्ता को साम, दाम, दण्ड, भेद के कुटिल प्रतिमानों में बदल दिया है, जिसकी परिणति हम अयोध्या और गुजरात प्रकरण में देख चुके हैं। असम के गैर बोडो आदिवासियों के खिलाफ नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैण्ड के हालिया हमलों ने एक बार फिर हमें बहुत कुछ सोचने को विवश कर दिया है। देखा जाए तो हम सीमा पार से चलाए जा रहे आतंकवाद की बात तो करते हैं लेकिन मुल्क में सक्रिय आंतरिक आतंकवाद को गम्भीरता से कभी नहीं लेते। यही वजह है कि कई दशकों से हिंसा की आग में झुलस रहे असम के इस नासूर को जड़ से खत्म करने की ईमानदार कोशिश कभी नहीं हुई। देखा जाए तो एनडीएफबी (एस) की बर्बरता किसी मायने में तालिबान से कम नहीं है क्योंकि इसमें निर्दोष महिलाओं और बच्चों को निशाना बनाया जा रहा है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि दशकों से हिंसा से जूझ रहे असम की समस्याओं को केन्द्र सरकार ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। यहां तक कि हमारा मीडिया भी इन क्रूरतम वारदातों को ज्यादा तरजीह नहीं देता। देखा जाए तो असम में इतने चरमपंथी धड़े सक्रिय हो गये हैं कि एक गुट से बात की जाए तो दूसरा हथियार उठा लेता है। यही वजह है कि असम जैसे राज्यों में हत्या, आगजनी, अपहरण और विस्फोटों का सिलसिला अनवरत जारी है। अब सवाल यह उठता है कि असम जैसे छोटे से राज्य में हथियारों का बड़ी मात्रा में जखीरा कहां से उपलब्ध हो रहा है? कौन इन चरमपंथी संगठनों को धन मुहैया करा रहा है?
यह सिर्फ असम की शांति का ही प्रश्न नहीं है बल्कि इससे देश की सुरक्षा को भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है। असम में घुसपैठ की आग आज दावानल बन चुकी है। इस आग में लम्बे अर्से से निर्दोष लोग हताहत हो रहे हैं। सितम्बर 2012 के नरसंहार की वेदना से लोग अभी उबरे भी नहीं  कि एक बार फिर बोडो बाहुल्य इलाका खूनी मंजर से दहल उठा है। प्रथम दृष्टया इसे लोग महज एक आतंकी करतूत मान रहे हैं लेकिन इसके मूल में बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथॉरिटी चुनाव में बोडो उम्मीदवार की सम्भावित पराजय का अंदेशा ही है। असम में बार-बार आतंकी वारदातों की वजह हमारी हुकूमतों की अकर्मण्यता और बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ मुख्य वजह है। असम में आतंकी करतूतों पर नकेल कसने के लिए 15 अगस्त, 1985 को केन्द्र सरकार के साथ असम समझौता हुआ था। इस समझौते में जनवरी 1966 से मार्च 1971 के बीच असम में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी लेकिन उन्हें आगामी 10 साल तक मत देने का अधिकार नहीं था।  इतना ही नहीं समझौते में यह भी तय हुआ था कि 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को यहां से खदेड़ा जाएगा। अफसोस 29 साल बीत जाने के बाद भी उस समझौते पर अमल नहीं हुआ। अलबत्ता असम में बांग्लादेश और म्यांमार से घुसपैठ निरंतर जारी है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि ये घुसपैठिये भारतीय नागरिकता भी आसानी से हासिल कर रहे हैं। असम में घुसपैठ की मुख्य वजह 170 किलोमीटर का स्थल और 92 किलोमीटर की खुली जल सीमा है जिसके जरिए लम्बे समय से मुल्क में घुसपैठ जारी है। इस खुली सीमा का न केवल घुसपैठिये फायदा उठा रहे हैं बल्कि बेखौफ खून की होली भी खेल रहे हैं। असम में बाहरी घुसपैठ का सिलसिला एक सदी से भी अधिक पुराना है। सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि 1951 से 1971 के बीच दो दशक में 37 लाख से अधिक बांग्लादेशी मुसलमान न केवल असम में प्रवेश पाने में सफल हुए बल्कि यहीं उन्होंने अपना ठौर-ठिकाना भी बना लिया। 1970 के दशक में घुसपैठियों को असम से खदेड़ने के लिए कुछ सार्थक प्रयास हुए थे लेकिन राज्य के कोई तीन दर्जन मुस्लिम विधायकों ने देवकांत बरुआ को आगे कर मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ आवाज बुलंद कर दी। उस वाक्ये के बाद असम और केन्द्र की किसी हुकूमत ने इतने बड़े वोट बैंक को भारत से खदेड़ने की हिम्मत नहीं जुटाई। आज असम में जारी घुसपैठ मुल्क के लिए नासूर बन चुकी है। देश में अवांछित लोगों की वजह से न केवल संसाधनों का निरंतर टोटा पड़ रहा है बल्कि हमारी पारम्परिक संस्कृति, संगीत और लोकाचार भी प्रभावित हो रहा है। असम में स्थितियां अनियंत्रित हैं, तो दूसरी तरफ हमारी हुकूमतों में इच्छाशक्ति का बेहद अभाव है। यह स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। असम में दो साल पहले हुए खूनी खेल और आज का नरसंहार मामूली अपराध नहीं है। सच तो यह है कि असम में जो आज हो रहा है वह दो संस्कृतियों के टकराव का ऐसा विद्रूप चेहरा है जिसे समय रहते नहीं रोका गया तो ये खूनी कारगुजारियां दूसरे सूबों को भी अपनी जद में ले लेंगी। हमारे राजनीतिज्ञों को कुर्सी की जगह वतन की फिक्र करनी चाहिए। रोज-रोज का यह खून-खराबा जिस तरह मुल्क को कमजोर कर रहा है वह किसी मायने में लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

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