Friday 26 June 2015

गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे

बांग्लादेश से एकदिनी सीरीज गंवाने पर खेमेबाजी
क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है, इस बात को जानते हुए भी भारत ने बांग्लादेश से एकदिनी सीरीज क्या गंवाई टीम में बखेड़ा खड़ा हो गया। भला हो टीम इण्डिया का जिसने तीसरा मैच जीतकर नाक कटने से बचा ली। अब भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को यह तसल्ली रहेगी कि 3-0 की जगह 2-1 से भारत ने शृंखला गंवाई। लेकिन जिस बांग्लादेशी टीम को सहज हरा देने का भाव लेकर भारतीय टीम बांग्लादेश पहुंची थी, वह स्वयं इतनी बुरी तरह क्यों मात खा गई? क्यों उसके नामी-गिरामी चर्चित, विज्ञापित बल्लेबाज और गेंदबाज अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए?
पराजय की समीक्षा का दौर पहली हार से ही प्रारम्भ हो गया था। कुछ प्रमुख बातें उभर कर सामने आई हैं जैसे- हमेशा शांतचित्त रहने वाले कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की झल्लाहट कि अगर टीम के खराब प्रदर्शन के लिए वे जिम्मेदार हैं तो वे कप्तानी छोड़ने को तैयार हैं। विराट कोहली का बयान कि टीम के फैसलों में संदेह और असमंजस की स्थिति साफ नजर आई, नतीजतन टीम अपनी क्षमता के हिसाब से नहीं खेल सकी। जिन तेज गेंदबाजों पर भरोसा किया गया उनमें से कोई कसौटी पर खरा नहीं उतरा। यही स्थिति बल्लेबाजों की रही, टीम के निर्णय पर सवाल उठाने वाले विराट कोहली भी पूरी सीरीज में अच्छा खेल नहीं दिखा पाए। भारतीय टीम की यह हार केवल खिलाड़िय़ों की नहीं, टीम प्रबंधन, कोच, चयनकर्ताओं की भी नाकामी है। समीक्षा उनकी कार्यप्रणाली की भी होनी चाहिए। खेल में हार-जीत लगी रहती है। लेकिन भारतीय टीम की हार पर इतना हंगामा इसलिए बरपा है क्योंकि यह दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई की टीम है। इसके कर्ता-धर्ता विशुद्ध व्यापारी हैं, जो केवल फायदे का खेल चाहते हैं, नुकसान का नहीं। यह अनायास नहीं है कि भारत में क्रिकेट धर्म की तरह उन्माद जगाने वाला खेल बन गया। इस धर्म के लिए एक भगवान भी गढ़ लिया गया। उसे भारत-रत्न का सर्वोच्च सम्मान दे दिया गया, फिर चाहे वह भारत रत्न पानी साफ करने की मशीन बेचे या ट्यूबलाइट वाला पंखा। एक प्रमुख भगवान के अलावा कई सहायक या उप भगवान भी बना लिए गए, जिन्हें मौके के हिसाब से पूजा गया और जरूरत न होने पर मूर्ति हटा दी गई। एक वक्त था जब मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी की धूम थी, फिर सौरव गांगुली को क्रिकेट में नयी लहर बहाने का श्रेय दिया गया, जब धोनी आए तो हर ओर कैप्टन कूल की ही चर्चा रही। मोहम्मद अजहरुद्दीन और सौरव गांगुली ने अपमान का दंश भी झेला और ऐसा लग रहा है अब बारी धोनी की है।
महेन्द्र सिंह धोनी की कप्तानी में भारत ने टी-20 और एक दिवसीय क्रिकेट का विश्व कप जीता, टेस्ट रैंकिंग में भारत को शीर्ष स्थान पर पहुंचाया। लेकिन वे भारतीय टीम की स्थायी सफलता की गारंटी नहीं हो सकते। बहरहाल, इन सफल कप्तानों के अलावा भी कई क्रिकेट खिलाड़िय़ों को खूब नाम और सम्मान मिला और उसके साथ-साथ धन की वर्षा भी खूब हुई। बीसीसीआई ने इन लोकप्रिय खिलाड़िय़ों को अक्सर अपने फायदे के लिए मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। कुछ सालों पहले जब आईपीएल का आगाज हुआ तो खेल की तमाम नैतिकता, खेलभावना, उद्देश्य किनारे कर दिए गए, साध्य और साधन जरूरत के हिसाब से तोड़े-मरोड़े जाने लगे। आईपीएल की चकाचौंध में बीसीसीआई और क्रिकेट की राजनीति करने वालों को भी चमकने का अवसर मिल गया। आज जब उस चमक की कुछ परतें उधड़ रही हैं तो नजर आ रहा है कि इसके नीचे कितनी कालिख जमा है। मानो क्रिकेट नहीं काजल की कोठरी हो, जिसमें हाथ डालने पर हाथ का काला होना जरूरी है। अब सवाल उठाया जा रहा है कि राजनेताओं  या व्यापारियों को जिन्हें क्रिकेट खेल का ज्ञान नहीं, उन्हें क्रिकेट संघों में रहने का क्या औचित्य? ऐसे सवाल पहले भी उठते रहे हैं, लेकिन उनके जवाब नहीं मिले, न ही क्रिकेट संघों की राजनीति खत्म हुई। भारतीय टीम की सफलता या असफलता से अधिक चिन्ता बीसीसीआई को अपने मुनाफे की रहती है, यही कारण है कि वह भी क्रिकेट के बहाने चल रहे खेल को पूरा प्रश्रय देती है। बांग्लादेश में भारतीय टीम ने मात इसलिए खाई क्योंकि खिलाड़िय़ों ने खराब खेला, शायद अधिकतर खिलाड़ी आईपीएल की थकान से उबर नहीं पाए थे। भारतीय टीम इसलिए हारी क्योंकि बांग्लादेशी टीम ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और उसके पास मुस्तफिजुर रहमान जैसे सम्भावनाएं बांधने वाले खिलाड़ी हैं। उम्मीद है भारतीय टीम की हार का विश्लेषण करने वाले इस सीधे गणित को पेंचीदा नहीं बनाएंगे। सुरेश रैना को बधाई जिन्होंने अपने हरफनमौला खेल से भारत को क्लीन स्वीप से बचा लिया वरना धोनी न घर के रहते न घाट के।

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