Wednesday 17 June 2015

भरोसे का जोखिम

बिहार विधान सभा चुनावों की दुंदुभी बजने में अभी वक्त है लेकिन लालू प्रसाद यादव हर रोज कमल दल पर चुटकी ले रहे हैं। लालू की चुटकी को आम आदमी बेशक मसखरा मान रहा हो पर मुख्यमंत्री पद को लेकर कमल दल वाकई पशोपेश में है। बिहार विधानसभा की 243 सीटों के होने वाले चुनावों में जनता किस दल को सिर-आंखों पर बिठायेगी, ये तो अभी दूर की कौड़ी है, पर मुख्यमंत्री की ख्वाहिश हर मन में है। लालू ने तो जहर का घूंट पीकर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री मान लिया, लेकिन भाजपा ने अभी तक इस बात के संकेत नहीं दिये हैं कि बिहार में उसका चुनावी चेहरा कौन होगा? यदि भाजपा के वरिष्ठ नेता और बिहार के सांगठनिक प्रभारी अनंत कुमार के बयान को सच मान लें तो बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी मुख्यमंत्री पद के लिये किसी भी बिहारी नेता का चेहरा आगे नहीं करना चाहती। इसकी वजह दिल्ली विधानसभा चुनावों में कमल दल की फजीहत को माना जा रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में किरण बेदी को बतौर मुख्यमंत्री पेश करना भाजपा में भितरघात का कारण बना था। कई नेताओं की दावेदारी के विवाद से निपटने का पार्टी का यह राजनीतिक प्रयोग बुरी तरह पिट गया था। कहते हैं दूध का जला छांछ भी फंूक-फूंक कर पीता है। भाजपा भी दिल्ली से सबक लेते हुए बिहार में किसी पिटे-पिटाए प्रयोग को आजमाना नहीं चाहती। अब सवाल यह उठता है कि भाजपा आखिर किस फार्मूले से बिहार फतह करेगी? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक साल पहले आम आवाम से जो वादे किये थे, वे तो पूरे हुए नहीं ऐसे में मोदी बनाम नीतीश के खेल में कमल दल के फेल होने की ही सम्भावना अधिक है। भाजपा को लोकसभा चुनावों की सफलता विधानसभा से जोड़कर देखने की गलती भारी पड़ सकती है। बिहार भाजपा में इस वक्त सुशील कुमार मोदी के अलावा जिन नेताओं को पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद का दावेदार समझा जाता है, उनमें डॉ. सीपी ठाकुर, नंदकिशोर यादव, रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूड़ी, मंगल पाण्डेय और चन्द्रमोहन राय सहित कई नाम शामिल हैं। भाजपा की मुश्किल यही है कि इनमें से यदि किसी को आगे किया गया तो बाकी पीछे टांग खींचने से बाज नहीं आएंगे। बिहार चुनाव में अगड़ों और पिछड़ों की स्वीकार्यता भी मायने रखती है। सच्चाई यह है कि सुशील मोदी, सीपी ठाकुर और नंद किशोर यादव हर किसी को स्वीकार्य नहीं हैं। सुशील मोदी समर्थक तो चाहते हैं कि मुख्यमंत्री के तौर पर उनके नाम को हरी झण्डी मिल जाये और ऐसा ही कुछ नंदकिशोर यादव, रवि शंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूड़ी समर्थक भी चाहते हैं। बिहार चुनाव कांटे का है। भाजपा जीतनराम मांझी को अपने पाले में करने की खुशफहमी में है बावजूद इसके यहां कमल दल की थोड़ी सी चूक उसे भारी पड़ सकती है। चुनावी आंकड़ों की रोशनी में देखें तो लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में राजद-जद (यू)-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को 45 फीसदी से भी ज्यादा वोट मिले थे, जबकि भाजपा 29.41 फीसदी वोट मिलने के बाद भी 40 में 22 सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जो जोड़-तोड़ के घाघ हैं, उनकी बात एक हद तक सही है कि सियासत में दो और दो मिलकर हमेशा चार नहीं होते। जो भी हो बिहार चुनाव के नतीजे बहुत हद तक दोनों गठबंधनों की रणनीति, प्रचारतंत्र की दक्षता और उम्मीदवारों के चयन पर निर्भर होंगे। 

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