Sunday 14 June 2015

सच लिखने की सजा!


मीडिया देश का चौथा स्तम्भ है। मीडिया बिक चुका है। पत्रकारों में सच लिखने की सामर्थ्य नहीं है, इन दिन-प्रतिदिन की सामाजिक शिकायतों का स्याह सच ही शाहजहांपुर के साहसी पत्रकार जगेन्द्र सिंह की मौत है। यह मौत उस सुरक्षा व्यवस्था पर करारी चोट है, जिसे हम अपना रक्षक समझने की बार-बार भूल करते हैं। वैसे तो पत्रकार हर रोज मरता है लेकिन वह सामाजिक उपहास से बचाव की खातिर अपना दुखड़ा, अपनी परेशानी किसी को भी सुनाना उचित नहीं समझता। अकेला जगेन्द्र ही नहीं जिसे सच लिखने की सजा मिली हो। ईमानदार कलमकार तो हर रोज प्रताड़ित किये जाते हैं, हर दिन उन्हें मौत का सामना करना पड़ता है।  हमारा समाज मीडिया से सच लिखने की उम्मीद तो करता है लेकिन सच का साथ नहीं देना चाहता। यदि यह सच नहीं तो फिर हम जगेन्द्र के हत्यारों को सजा दिलाने को आगे क्यों नहीं आ रहे?
पत्रकारिता जोखिम भरा दायित्व है। यह ऐसा दायित्व है, जिसकी हर रोज परीक्षा होती है। परीक्षक वह समाज होता है, जिसे पत्रकारों से हमेशा शिकायत रहती है। जगेन्द्र का कसूर क्या था? उसने एक भूमाफिया और उत्तर प्रदेश सरकार के उस मंत्री की आपराधिक गतिविधियों का खुलासा सोशल मीडिया के जरिए किया, जिसका संज्ञान सरकार और उसके सुरक्षा तंत्र को पहले से ही होना चाहिए था। कहते हैं कि मरता हुआ व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोलता, पर कोतवाल श्रीप्रकाश राय जिन पर जगेन्द्र को आग से फूंक देने का आरोप है, वह इससे इनकार करते हैं। राय का कहना है कि आग जगेन्द्र ने खुद लगाई है। अगर ऐसा है तब भी सवाल यह उठता है कि पुलिस वालों की मौजूदगी में एक व्यक्ति किस तरह अपने ऊपर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा सकता है और उसे रोकने के लिए पुलिस ने क्या किया? मृतक जगेन्द्र पर लूट, अपहरण और हत्या के जो आरोप लगे हैं, उनकी पड़ताल कैसे और कब पूरी होगी? क्या मंत्री के खिलाफ जो खबरें जगेन्द्र ने लिखी थीं, उनकी जांच करवाने का साहस सरकार दिखाएगी?
 सच लिखने की सजा जगेन्द्र की मौत ही नहीं उस पर थोपे गये अनगिनत मुकदमें भी हैं। इसे अफसोस कहें या राजनीतिक विडम्बना समाजवाद का राग अलापती उत्तर प्रदेश सरकार अवैध खनन, जमीन पर कब्जा करने और बलात्कार जैसे कई आरोपों से घिरे पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा को दण्ड दिलाने की बजाय उसे बचाने का गुनाह कर रही है। पुलिस कर्मियों के निलम्बन के बाद हो सकता है कि अखिलेश सरकार दबाव में  दोषी मंत्री के खिलाफ कार्रवाई कर अपने दामन को पाक-साफ करने की कोशिश करे, पर टके भर का सवाल यह है कि किसी फैसले तक पहुंचने के लिए उसे एक पत्रकार की हत्या का इंतजार क्यों करना पड़ा?
राजनीतिक दलों के बिगड़ते आंतरिक लोकतंत्र और राजनीतिक शुचिता को लेकर हमारी सर्वोच्च अदालत कई बार चिन्ता जता चुकी है। अपराधियों को राजनीति से दूर रखने की बातें तो खूब हुर्इं पर मुल्क के किसी राजनीतिक दल ने अपना दामन पाक-साफ करने की रत्ती भर कोशिश नहीं की। दबंगों और अपराधियों के खिलाफ जहां आमजन मजबूरी में आवाज नहीं उठा पाता वहीं दूसरी ओर मीडिया में आमतौर पर उनकी कारगुजारियां तब सामने आती हैं, जब किन्हीं वजहों से वे कठघरे में खड़े हो चुके होते हैं। आज पत्रकारिता में गिरावट की वजह हिम्मत और ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करने वालों की कमी के साथ ही मीडिया मालिकों के निज स्वार्थ भी हैं। सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में सच न लिख पाने की पीड़ा ही तो है जिसकी वजह से कलमकारों को सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ रहा है। यह सच है कि हमारे पत्रकार साथी जिन कुछ जरूरी खबरों को किन्हीं वजहों से अपने पत्र-पत्रिकाओं में जगह देने से वंचित हो जाते हैं, वे सोशल मीडिया के जरिए तुरंत आम लोगों तक पहुंच जाती हैं।
जगेन्द्र चाहते तो मंत्री से सौदेबाजी कर सकते थे पर जांबाज कलमकार ने धमकियों के सामने चुप्पी साध लेने  की बजाय जोखिम भरा रास्ता चुना। जगेन्द्र के सच को यदि समाज का साथ और सहयोग मिला होता तो वह नहीं मारा जाता। जगेन्द्र की मौत का स्याह सच यह है कि अब ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकारों के लिए हालात किस कदर खतरनाक हो चुके हैं। आज पत्रकारों को सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों में भी जीवन-मौत से जूझना पड़ रहा है। पिछले कुछ साल के आंकड़ों पर गौर करें तो पड़ोसी पाकिस्तान में पत्रकारिता सबसे ज्यादा जोखिम भरा काम हो गया है। हाल के दिनों में इराक में आईएसआईएस ने भी कई पत्रकारों को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दिया कि वे ईमानदारी से अपना काम कर रहे थे।
जगेन्द्र की मौत को जिस तरह मिथ्या साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं, वह चौथे स्तम्भ के लिए शुभ संकेत नहीं है। पुलिस जो भी कह रही है वह न केवल असत्य बल्कि इस बात की बानगी मात्र है कि राजनीति में निहित स्वार्थों के कारण किस तरह कानून को हथियार बनाया जा रहा है। एक पत्रकार अगर ईमानदारी से अपने पेशे का निर्वाह करता है तो एक तरह से वह समूचे समाज के हित में काम कर रहा होता है। इसलिए पत्रकारिता की ऐसी आवाजों पर हमला या उन्हें खामोश करने का दुस्साहस किसी एक व्यक्ति नहीं बल्कि इंसानियत, लोकतंत्र और मानवाधिकारों के खिलाफ है। हमारे सफेदपोश राजनीतिज्ञ तन-मन से कितने निर्मल और निर्मम हैं, इसके हाल ही अनेकों उदाहरण सामने आये हैं। दिल्ली के कानून मंत्री रहे जीतेन्द्र सिंह तोमर, आम आदमी पार्टी के ही विधायक विशेष रवि जहां फर्जी शैक्षिक दस्तावेजों में धोखाधड़ी के मामले में फंसे वहीं उत्तर प्रदेश के पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा पत्रकार की हत्या तथा बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री कैलाश चौरसिया पर मिर्जापुर के आरटीओ से चौथ मांगने और जान से मार देने की धमकी देने का आरोप है। बात राजनीतिक दलों में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की करें तो आज कोई भी दल ऐसा नहीं है, जिसका दामन पाक-साफ हो। राजनीतिक मंचों पर नैतिकता की दुहाई देने वाले हमारे राजनीतिज्ञ कितने ईमानदार हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। आप के जीतेन्द्र सिंह तोमर, विशेष रवि ही नहीं केन्द्र सरकार के भी कई मंत्री दागी हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां सभी दलों में उड़ाई जा रही हैं। देश के राजनीतिक दलों को सचमुच शुचिता, पारदर्शिता और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन में यकीन है, तो किसी एक पार्टी पर उंगली उठाकर इतराने के बजाय सभी दलों को अपने दामन पाक-साफ करने का संकल्प लेना चाहिए।

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