Tuesday 16 June 2015

क्षेत्रीय पत्रकारिता की चुनौतियां

65 साल पहले इंदौर से शुरू होने वाले अखबार, नई दुनिया के बिकने की खबर इन दिनों चर्चा में है। कुछेक पत्रकारों में (शेष अन्य को मतलब भी नहीं) चिंता और सरोकार है। एक मित्र ने वेबसाइट पर लिखा है, नई दुनिया केवल एक अखबार नहीं रहा है बल्कि यह एक संस्कार की तरह पुष्पित और पल्लवित हुआ।
 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नई दुनिया  ने वह मुकाम पाया, जो देश के नंबर एक और नंबर दो अखबार कभी सपने में भी नहीं सोच सकते। इस अखबार ने देश को सर्वाधिक संपादक और योग्य पत्रकार दिये हैं। यह बिलकुल सटीक आकलन व निष्कर्ष है, पर इसमें जोड़ा जाना चाहिए कि नई दुनिया सिर्फ अच्छे पत्रकारों को देने के लिए ही नहीं जाना जायेगा। सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह है कि नई दुनिया ने अपने दौर, काल या युग के जलते-सुलगते सवालों को जिस बेचैनी और शिद्दत से उठाया, वह इस अखबार की पहचान और साख है. इसने हिंदी पत्रकारिता को एक संस्कृति दी (जो आज की दुनिया के नंबर एक और नंबर दो बन जानेवाले हिंदी अखबार सपने में भी नहीं कर पायेंगे).
 बहुत पहले स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने (1983-84 के आसपास) राहुल बारपुते पर एक लेख लिखा था. उसमें उन्होंने मालवा की संस्कृति, पुणे के प्रभाव और गंगा किनारे की उत्तर प्रदेश-बिहार की भिन्न संस्कृति की चर्चा की थी. उनकी बातों का आशय था, अपने को हिंदी की मुख्यधारा माननेवाली पट्टी और उसके बौद्धिक, मालवा की संस्कृति और उसमें नई दुनिया  का योगदान और राहुल बारपुते के व्यक्तित्व का आकलन नहीं कर पायेंगे.
 यह सही है. एक शिष्टता, संस्कार और मर्यादा से राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, अभय छजलानी जैसे लोगों ने नई दुनिया को शीर्ष पर पहुंचाया. क्या इतने बड़े अखबार को सिर्फ चापलूसों की फौज डुबा सकती है? नहीं, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन में षड्यंत्रकारी या दरबारी चापलूसों की एक सीमा तक ही भूमिका रहती है. क्या सफलता से चल रहे बड़े या छोटे घरानों में ये चापलूस या षड्यंत्रकारी नहीं होते. दरअसल, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन के मूल में अन्य निर्णायक व मारक कारण होते हैं. समय की धार को न पहचानना और उसके अनुरूप कदम न उठाना, पतन का मूल कारण होता है। फिर सबसे बड़ा मारक कारक तो आर्थिक व्यवस्था है. इस तरह की किसी चीज के पतन के मूल में, ऐसी चीजों के प्रभाव जरूर होते हैं. पर इससे अधिक विध्वंसकारी तत्व अलग होते हैं.
 नई दुनिया  का अवसान, इस युग के धाराप्रवाह का प्रतिफल है. यह बड़ा और व्यापक सवाल है. यह सिर्फ नई दुनिया तक सीमित नहीं है. देश की अर्थनीति और राजनीति से जुड़ा यह प्रसंग है. मार्क्स-एंगेल्स की अवधारणा सही थी. आर्थिक कारण और हालात ही भविष्य तय करते हैं. डार्विन का सिद्धांत ही बाजारों की दुनिया में चलता है. मार्केट इकोनॉमी का भी सूत्र है, बड़ी मछली, छोटी मछली को खा जाती है. निगल जाती है. आगे भी खायेगी या निगलेगी. बाजार खुला होगा, अनियंत्रित होगा, तो यही होगा. जिसके पास पूंजी की ताकत होगी, वह अन्य पूंजीविहीन प्रतिस्पर्द्धियों को मार डालेगा.
1983-85 के बीच, राजेंद्र माथुर का राहुल बारपुते पर एक लेख पढ़ा था. लेख का शीर्षक था- हिंदी पत्रकारिता संदर्भ राहुल बारपुते. माथुर जी से मुलाकात तो धर्मयुग में काम करते दिनों में हुई थी. 1980 के आसपास. गणेश मंत्री के साथ. तब से उनकी प्रतिभा से परिचित था.
 नयी दुनिया की श्रेष्ठ परंपरा से भी. उस लेख में माथुर जी ने लिखा था, पांच साल दिल्ली में नवभारत टाइम्स की संपादकीय के बारे में कह सकता हूं कि नयी-पुरानी और दुर्लभ किताबों की दृष्टि से, बीसियों किस्म की पत्र-पत्रिकाओं की दृष्टि से, पत्रकारिता की ताजा पेशेवर सूचनाओं की दृष्टि से और संसार में जो ताना-बाना प्रतिक्षण बुना जा रहा है, उसे छूकर देखे जाने के सुख की दृष्टि से, जो 27 अखबारी वर्ष मैंने नयी दुनिया में गुजारे, वे दिल्ली की तुलना में कतई दरिद्र नहीं थे. एक माने में बेहतर ही थे, क्योंकि तब सार्थक पढ़ाई-लिखाई की फुरसत ज्यादा मिलती थी. यह थी नई दुनिया की परंपरा. नयी दुनिया महज एक अखबार नहीं रहा है. वह हिंदी के बौद्धिक जगत का सांस्कृतिक आलोड़न कर रहा है. हिंदी क्षेत्र में संस्कार और संस्कृति गढ़ने-बताने-समझने और विकसित करने का मंच भी. आज अखबारों में बाइलाइन या के्रडिट पाने की छीना-झपटी होती है. उस अखबार ने कुछ मूल्य और प्रतिमान गढ़े.
 गंभीर और मर्यादित पत्रकारिता के लिए. माथुर साहब ने लिखा था कि 'राहुल बारपुते हर रोज मेरे कॉलम के साथ, मेरा नाम छापने को तैयार थे. मुझे यह अश्लील लगा. मैंने आग्रह किया कि मैं प्रतिदिन अहस्ताक्षरित ही लिखूंगाह्ण. क्योंकि माथुर साहब को प्रेरणा मिली थी उन दिनों के चोटी के स्तंभकारों से, जो अपना नाम नहीं छापते थे. तब ए. डी. गोरवाला जी, विवेक नाम से लिखते थे. शामलाल जी, अदिव के नाम से लिखते थे. दुगार्दास जी, इंसाफ के नाम से लिखते थे. तब शरद जोशी जी भी नई दुनिया में ब्रह्मपुत्र नाम से लिखते थे. यह संस्कार, और परिपाटी-मयार्दा विकसित करने का पालना रहा है, नई दुनिया. आज देख लीजिए, संपादक, अपने ही अखबार में अपनी तसवीर, अपने लोगों की फोटो, अपने परिवार का गुणगान कर किस मयार्दा और अनुशासन का पालन करते हैं? यह दरअसल धाराओं की लड़ाई है. एक सामाजिक धारा है, जिसका प्रतिबिंब नई दुनिया का पुराना अतीत रहा है. मूल्यों से गढ़ा गया. तब नई दुनिया ने वैदेशिक कालम की शुरूआत की. जब इसकी कोई खास जरूरत नहीं थी, पाठकों के बीच इसकी मांग नहीं थी.
पर अपने पाठकों का संसार समृद्ध करना उसने अपना फर्ज समझा. आज बड़ी पूंजी से निकलने वाले अखबारों का फर्ज क्या है? वे पाठकों को उनकी रुचि का सर्वे करा कर फूहड़ और अश्लील चीजें भी देने को तैयार हैं. पाठकों की इच्छा के विपरीत, उनके संस्कार गढ़ने, ज्ञान संसार समृद्ध करने का जोखिम लेने को तैयार नहीं. पर नई दुनिया ने यह किया. आज पहला मकसद है, अखबारों का, प्राफिट मैक्सीमाइजेशन. यह नयी पत्रकारिता बाजार को साथ लेकर चलती है. हर वर्ग को खुश रखना चाहती है. उपभोक्तावादी संसार उसे ताकत देते हैं, इसलिए यह धारा आज ज्यादा प्रबल है.
यह तामसिक है. पहली धारा (जिससे नई दुनिया का अतीत जुड़ा है) वह सात्विक रही है. आज सात्विक और तामसिक धाराओं के बीच संघर्ष है. फिलहाल तामसिक धारा का जोर है. सात्विक, कमजोर और उपहास के पात्र. पर अंतत: जय सात्विक धारा की होगी. इसमें भी किसी को शंका नहीं होनी चाहिए? उस दौर में हिंदी का सबसे अच्छा अखबार, नई दुनिया कहा गया. क्यों? क्योंकि माथुर साहब के शब्दों में, नातों-रिश्?तों, ठेका और फायदों का जमाना शुरू ही नहीं हुआ था. पत्रकारिता का पैमाना क्या था? माथुर साहब के ही शब्दों में ही पढ़िए-
 'नई दुनिया में रह कर आप कह सकते हैं कि जो मैं लिखता हूं, वह मैं हूं. लेखन से जो सराहना की गूंज लौट कर आती है, वही मेरा पद है, और समाज निर्मित तथा समाज प्रदत्त होने के कारण यही सचमुच प्रमाणिक है.
 अखबारों का अर्थशास्त्र समझना जरूरी
 नई दुनिया '67 में, भारत का शायद पहला अखबार था, जिसने आॅफसेट प्रिंटिग पर अपनी छपाई शुरू की. तकनीक में भी यह औरों से आगे था. इन सबके पीछे एक पवित्र संकल्प और उद्देश्य था, क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता लोगों में से एक राहुल बारपुते 'क्षमता के अनुसार काम और आवयश्कता के अनुसार पारिश्रमिक सूत्र पर चलते थे. यह एक जीवन दर्शन या समाज दर्शन, जिसका वैचारिक प्रस्फुटन था, नई दुनिया. इसे भी पढ़िए माथुर जी के शब्दों में -
 'राहुल जी ने आठ साल से अपना वेतन डेढ़ सौ रुपए प्रतिमाह तय कर रखा था, और उनका कहना था कि इससे ज्यादा मैं लूंगा नहीं, क्योंकि यह मेरी जरूरत के लिए पर्याप्त है. स्वैच्छिक गरीबी को वे संपादकीय प्रमाणिकता के लिए जरूरी मानते थे. पांच सौ रुपये से ज्यादा पानेवाले को वे चोरों की श्रेणी में गिनते थे. इस अर्थशास्त्र और सोच के तहत नई दुनिया आगे बढ़ा. जब राजेंद्र माथुर से पूछा गया, आपको क्या तनख्वाह चाहिए, तो उनका उत्तर भी उन्हीं के शब्दों में -'मैंने कहा कि पांच साल पहले जब मैं हास्टल में रहता था और फर्स्ट इयर में था, तब मुझे खर्च के लिए 75 रुपये महीना मिलते थे, और मेरी आवश्यताएं इन पांच सालों में ज्?यों की त्?यों है. इसलिए आप मुझे 75 रुपये दे दीजिएगा, और वे राजी हो गये.ह्ण बारपुते जी का जीवन कैसा था? वर्षों तक वे लीपे हुए दलान में जमीन पर सोते थे और चटाई के पत्तों पर खाते और खिलाते थे.
 यह सब पत्रकारिता के सतयुग की बातें हैं. जब-जब पत्रकारिता में ऐसे चरित्र थे, तब ऐसे अविष्कार जिंदा रहे. मैं खुद गणेश मंत्री, नारायण दत्त जी जैसे लोगों की सोहबत में रहा हूं. गणेश मंत्री धर्मयुग के स्टार पत्रकार थे, तब चिंतक, लेखक व विचारक भी. ईमानदारी, सात्विकता और साधन-साध्य की शुचिता के प्रतिमान. पिता, जनता पार्टी शासन में राजस्थान में राजस्व मंत्री रहे. अत्यंत सम्मानित व प्रतिष्ठित. पर गणेश मंत्री कभी उनकी गाड़ी पर नहीं चढ़े, क्योंकि वह सरकारी होती थी. नारायण दत्त जी नवनीत के संपादक रहे. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वैचारिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक-आध्यात्मिक पत्रकार.
 इंदिरा जी के लंबे समय तक प्रेस सलाहकार रहे, अद्वितीय और अनोखे गांधीवादी विद्वान. एचवाइ शारदा प्रसाद के छोटे भाई. श्री दत्त आज भी मौजूद हैं, बेंगलुरू में रहते हैं. अकेले. कई भाषाओं के जानकार. सच्चे गांधीवादी. इन दोनों के घर, सत्ता के ताकतवर केंद्र रहे, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अपने कार्यकाल में, देश के चोटी के पत्रकार-संपादक रहे, पर इन दोनों का जीवन, नितांत गांधीवादी, सामान्य और सरल रहा. अपने जीवन के दो मेंटर (पथ प्रदर्शक) इन दोनों को पाता हूं.

नजदीक से इन्हें देखा कि कैसे ये सभी 24 कैरेट का सोना रहे. ताउम्र. आज इस पत्रकारिता में पैसे की हवस है. रातोंरात धनकुबेर बनने की भूख है. जायज-नाजायज कोई प्रतिमान नहीं रह गया. न आदर्श, न मूल्य. इस धारा का जोर इन दिनों ज्यादा सशक्त और प्रबल है. हर शहर से लेकर दिल्ली तक देख लीजिए, जो स्वनाम-धन्य पत्रकार खुद को समाज का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मानने लगे हैं, उनकी योग्यता क्या है? आमद क्या है? उनकी कुल संपत्ति क्या है? ठाठ-बाट कैसे हैं? क्या समाज में कोई मूल्य रह गया है या नहीं? क्या कोई उसूल बचा है? जब लड़ाई, सिद्धांत और सिद्धांतविहीनता के बीच हो, साधु और गैर साधु के बीच हो, नीति और अनीति के बीच हो, तो अनीति-षडयंत्र को ही कामयाबी मिलेगी. आज के संसार में. यही हो रहा है.

टाइम्स आॅफ इंडिया में 750 रुपये, ट्रेनी के रूप में प्रतिमाह हमें मिलता था. 1977-78 के दौर में. तब कई लोगों ने इससे अधिक की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता को चुना और पत्रकारिता को ही कैरियर अपनाया. रिजर्व बैंक व अन्य संस्थाओं की नौकरी (अधिक तनख्वाह) छोड़ कर हमने भी यही पेशा चुना. आज खुद मैं लाखों पाता हूं, जो कभी सोचा नहीं था. वह भी क्षेत्रीय अखबार में (इससे कई गुना अधिक के आॅफर मिले, यह अलग बात है कि यही रहा), पर अपने काम से जोड़ कर देखता हूं, तो तब (धर्मयुग, रविवार या प्रभात खबर के आरंभिक दिनों में) जितना परिश्रम कर पाता था.

पूरा डट कर. जुट कर. डूब कर. उतना ही आज भी करता हूं. पर तनख्वाह कई गुना अधिक. राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के प्रतिमान से खुद को सोचता हूं, तो अपराध बोध होता है. कई बार खुद से पूछा, क्यों गलत मानते हुए इतनी तनख्वाह लेता हूं. कारण, सुरक्षा का सवाल है. पहले समाज में 'सेफ्टीनेटह्ण (सुरक्षाजाल) था. संयुक्त परिवार, उदार परिवार, एक दूसरे की देखभाल करनेवाला. आज एकल परिवार (न्यूक्लीयर परिवार) हैं, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च और इस पेशे में नौकरी की असुरक्षा, शाश्वत चुनौतियां हैं. इसलिए भविष्य में स्वाभिमान रहे, हाथ न पसारना पड़े, इसलिए आज यह तनख्वाह और उसमें से लगातार बचत जरूरी है.

फिर भी, जब पूरे भारतीय समाज के बारे में सोचता हूं, तो लगता है, यह चोरी है. पहले संयुक्त परिवार और खेतिहर परिवेश का भरोसा था कि कोई निर्णय लेने के बाद, सड़क पर नहीं रहना होगा. समाज, गांव और परिवार पीछे है. आज ये संस्थाएं टूट गयी हैं. आज भविष्य के प्रति डर है. ऐसा समाज हमने बना लिया है. इसलिए अधिक तनख्वाह का सवाल हमें बहुत कुरेदता नहीं.

पूरे मीडिया उद्योग की तनख्वाह में बेशुमार इजाफे को अगर देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखें, तो उत्पादन लागत और आय के आधार पर आंकें, तो यह कृत्रिम अर्थप्रणाली है. यह किसी भी दिन भहरायेगी. धवस्त होगी. भारत की पेट्रोलियम कंपनियों को देख लीजिए. उनके यहां मैनपावर कॉस्ट से लेकर स्टेब्लिशमेंट कॉस्ट इतने अधिक हैं कि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी प्रति लीटर 30 रुपये अधिक पर पेट्रोल बेचते हैं. ओएनजीसी जैसी महारत्न कंपनियों में चपरासी की भी तनख्वाह 60 हजार से अधिक है.

यह आपको मालूम होगा कि भारत की पेट्रोलियम कंपनियां दो लाख करोड़ के घाटे में चल रही हैं. आमद चवन्नी और खर्च अठन्नी का मामला है. यही स्थिति आज नयी दुनिया और छोटे अखबारों के साथ है. अगर नई दुनिया को बाजार में रहना है, तो उसे अपने पत्रकारों को भी हिंदी के बड़े अखबारों के पत्रकारों के समकक्ष वेतन देना होगा. पर नई दुनिया की आमदनी तो बड़े अखबारों जैसी है नहीं. न उसके पास विदेशी पूंजी (एफडीआइ) है.

न शेयर बाजार का पैसा है. न इक्विटी है. उधर हिंदी के कुछेक बड़े अखबारों को देख लीजिए. उनकी बैलेंस शीट देख लीजिए. किसी के पास पांच सौ से छह सौ करोड़ जमा है. किसी के पास चार सौ से पांच सौ करोड़ जमा है. बड़े अखबार भी मैनपावर कॉस्ट इतना बढ़ा चुके है कि इन्हें भी प्राफिट मैक्सिमाइजेशन के लिए पेड न्यूज का सहारा लेना पड़ता है.

उपभोक्ता बाजार के फैलाव में सशक्त मंच के रूप में ये बड़े अखबार काम करते हैं. बाजार को फैलाना-बढ़ाना इनका पहला ध्येय है, क्योंकि बाजार बढ़ेगा, तो आमद बढ़ेगी. पाठकों के बौद्धिक संसार और समाज को बेहतर बनाने से इनका क्या संबंध रह गया है? यह बदले अर्थयुग (उदारीकरण) का प्रभाव है.

हिंदी इलाकों में यह कुछ गंभीर समस्याएं हैं. हम हीन मानस के झगड़ालू लोग हैं. उसमें भी यदि राजेंद्र माथुर के शब्दों में कहें, 'क्योंकि बलिया और पुणे में एक फर्क है, जो गंगा-यमुना के बीच रहनेवाले उत्तर भारतीयों को कभी समझ में नहीं आयेगा.ह्ण वैसे तो हिंदुस्तान में ही समस्या है, पर हिंदी इलाकों में खासतौर से. इस बीमारी का लक्षण भी माथुर साहब के शब्दों में ही- 'समाज के नाते अथवा संस्था के नाते हम हिंदुस्तानी आकृष्ट होना जानते ही नहीं. हिंदीभाषियों में यह खासियत दूसरों से कुछ ज्यादा ही है. नौ कनौजिए यहां नौ सौ चूल्हे जलाते हैं. सारे संस्कार ही हिंदी में हीनता, विपन्नता और ईर्ष्या में हैं.ह्ण

राजेंद्र माथुर ने हिंदी इलाके के इस मानस पर कब टिप्पणी की थी, तब से आज के 25 वर्षों बाद, यह और अधिक विकृत हुई है. पर उससे क्या? नई दुनिया का अपना रोल रहा. देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उसने अपने प्रयास से हिंदी समाज को संवारा. उसकी बौद्धिक क्षमता बढ़ायी. अपने समय-दौर में देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप श्रेष्ठ रोल प्ले (भूमिका अदा की) किया. अब वह नई दुनिया, नयी परिस्थितियों में अपना पुराना चोला उतार रहा है. राजेंद्र जी राहुल जी नई दुनिया के अतीत बन रहे हैं. भविष्य के साथ उनके रिश्ते क्षीण होते जायेंगे. यही काल है.

पुरानी कहावत है, 'समय होत बलवान !ह्ण वहीं अर्जुन, वही गांडीव, पर भील उनकी औरत को हर ले गये. ऐसा तो होना ही है. दर्शन में कहें, तो यह काल की गति है. इस असार-संसार में ना तो हम अपने परिवेश या अस्तित्व के स्थायी होने का ठेका ले सकते हैं और न उसके भविष्य का, क्योंकि दोनों ही चीजें समय के साथ खिसक जाती हैं. तानपुरे ढीले पड़ जाते हैं, या महफिलें बदल जाती हैं. सफेद पर्दे मैले हो जाते हैं. परेशानियां अपनी पहचान के लिए अलग पृष्ठभूमि खोजती हैं.

नई दुनिया के साथ उत्पन्न स्थिति को समझने के लिए नई दुनिया के अर्थशास्त्र को समझना जरूरी है. एक औसत बीस पेज का अखबार रोज निकालने के लिए सिर्फ स्याही और प्लेट पर खर्च लगभग चार रुपये है. अन्य ओवरहेड खर्च जोड़ दें, तो एक प्रति की कीमत लगभग सात रुपये होगी. यह खर्च तब, जब अखबार मामूली या औसत न्यूजप्रिंट पर निकलता है.

यह एक अखबार निकालने का खर्चा है. अब आमद का पक्ष समझ लीजिए. फर्ज कीजिए आपका अखबार, एक सप्ताह में तीन दिन दो रुपये, और चार दिन तीन रुपये में बिकता है. तब आमद गणित समझिए. अखबार बिकता है, दो या तीन रुपये में. सप्ताह की कुल कीमत जोड़ दें, तो औसत कीमत 2.5 रुपये होगी रोज. इस 2.5 रुपये में हॉकर और एजेंटों का कमीशन है, लगभग 1.40 रुपये. आपके पास बचा (2.5-1.40) 1.10 रुपये प्रति कॉपी.

एक अखबार का उत्पादन लागत यानी एक अखबार निकालने में खर्च हुए सात रुपये. इस तरह, हर एक कापी में खर्च हुए (7-1.10) 5.90 रुपये. इस तरह, एक दिन में एक कापी पर घाटा हुआ लगभग 6 रुपये. अगर किसी अखबार की दस लाख प्रतियां रोज बिकती हैं, तो एक दिन में लॉस (घाट) हुआ लगभग 60 लाख रुपये. महीने में यह घाटा हुआ (60 गुणा 30) 18 करोड़ रुपये. साल में यह घाटा हुआ (18 गुणा 12) 216 करोड़. अब इस 216 करोड़ का लॉस फाइनेंसिंग सिर्फ और सिर्फ विज्ञापन से होना है.

एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब उत्पादन लागत सात रुपये है, तो दो रुपये में क्यों बेचते हैं. घाटा उठा कर. बड़े अखबार, जो पूंजी संपन्न हैं, वे कीमत घटा देते हैं, ताकि कमजोर को मार सकें या जो जमेजमाये अखबार हैं, उनके बीच बाजार बनाने के लिए आपको कीमत कम करनी पड़ती है, ताकि पाठक अखबार खरीद-देख सकें. अंतत: प्रसार होगा (सरकुलेशन बढ़ेगा), तभी विज्ञापन भी मिलेंगे. इसलिए अखबार प्रसार बढ़ाने के लिए कीमत कम करने को विवश हैं.

अगर अंबानी समूह से 200 करोड़ का लोन नई दुनिया ने लिया भी होगा, तो उसका हश्र यही हुआ होगा. इसके ऊपर दफ्तर में बढ़ती बेशुमार तनख्वाह, जिसका कोई वास्ता प्रोडक्टीविटी (उत्पादकता) से नहीं है. उत्पादकता और तनख्वाह के बीच कोई अनुपात नहीं है. एक मामूली अखबार में कुल आमद (रिवेन्यू) कितने  फीसदी है? हिंदी के जो तीन बड़े अखबार है, उनमें 12 फीसदी, 11 फीसदी और 14 फीसदी हैं. क्योंकि इनके अनेक संस्करण हैं, तो कुछ खर्चे कामन निकल जाते हैं.

छोटे अखबार जिनके पास अनेक राज्यों के संस्करण नहीं हैं. न शेयर बाजार का पैसा है, न एफडीआइ है, न इक्विटी है, उनका वेज बिल (स्टाफ कास्ट, यानी तनख्वाह वगैरह पर खर्च) वर्ष 2009-10 में कुल आमद का 15 फीसदी था. इसी तरह वर्ष 2010-11 में, हिंदी के तीन बड़े अखबारों का स्टाफ कास्ट टोटल रेवेन्यू का 14 फीसदी, 14 फीसदी और 12 फीसदी था.

पर जो छोटे अखबार इनसे कंपीट करना चाहते हैं, उनका स्टाफ कास्ट 20 फीसदी. इसी तरह वर्ष 2011-12 में हिंदी के तीन बड़े अखबारों का स्टाफ कास्ट (परसेंटेज आफ टोटल रेवेन्यू) था, 12 फीसदी, 16 फीसदी और 12 फीसदी. पर अन्य छोटे अखबरों का लगभग 19-20 फीसदी. यानी नई दुनिया जैसे मंझोले या छोटे अखबार का स्टाफ कास्ट भी बड़े अखबारों के मुकाबले अधिक और आमद भी कम, तो अर्थशास्त्र के किस नियम के तहत ऐसे संस्थान चल सकेंगे?

बढ़ती लागत-महंगा कर्ज तोड़ रहे कमर

नयी अर्थव्यवस्था ने छोटे अखबारों के लिए संकट पैदा किया है. यह शुद्ध अर्थशास्त्र का मामला है. ऊपर से पिछले एक साल में आये अन्य आर्थिक परिवर्तनों को जान लीजिए, जिन्होंने छोटे अखबारों की कमर तोड़ दी है. पिछले तीन सालों में रंगीन स्याही पर कितना खर्च बढ़ा है, लगभग नौ लाख प्रतिदिन बिकनेवाले अखबारों का? अगर कीमत वृद्धि की यही रफ्तार रही, तो आगामी दो वर्षों में यह कितना बढ़ेगा? यह आकलन भी चार्ट में हैं.

2009-10 2010-11 2011-12 2012-13 2013-14
कीमत
रंगीन स्याही/किग्रा 139.55 146.84 166.86 183.00 195.00
वृद्धि (प्रतिशत में) 5 फीसदी 14 फीसदी 10 फीसदी 7 फीसदी

काली स्याही/ किग्रा 54.55 60.54 70.52 77.50 83.00
वृद्धि (प्रतिशत में) 11 फीसदी 16 फीसदी 10 फीसदी 7 फीसदी

सीटीपी प्लेट / प्लेट 153.78 152.98 150.25 159.00 165.00
वृद्धि (प्रतिशत में)- 1 फीसदी -1 फीसदी 6 फीसदी 4 फीसदी

कच्चे माल और स्याही के खर्च को प्रभावित करनेवाले कारक -

1. डॉलर का बढ़ता भाव बनाम भारतीय रुपये का घटता भाव.
2. पेट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते भाव.
3. कमोडिटी प्राइस परिवर्तन और बाजार का अनुमान.

(नोट : 2012-13 एंड 2013-14 के भाव, अनुमान पर निकाले गये हैं. )

सूद का बढ़ा दर या कर्ज की कीमत

इस दौर में जो अखबार बाजार से या बैंक से लोन लेकर चल रहे हैं, उन पर क्या असर पड़ा है? यह जानना जरूरी है. ब्याज की कीमत आज क्या है? पिछले  एक-डेढ़ साल में लगातार खबरें आयीं कि रिजर्व बैंक ने रिवर्स रेपो रेट बढ़ाया. यह वह दर है, जिसके तहत आरबीआइ दूसरे बैंक से उधार लेता है और इससे एक फीसदी अधिक दर पर अन्य बैंकों को पैसा देता है. जनवरी 2004 से जनवरी 2012 के बीच का चार्ट देख लीजिए.

वर्तमान रेपो रेट 8.5 फीसदी है. जनवरी 2010 में यह 4.25 फीसदी था. वाणिज्यिक बैंक, इस रेट से छह से सात फीसदी अधिक सूद पर अच्छी साखवाले संगठनों को ॠण देते थे. आज सूद की दर है, 18-20 फीसदी. फर्ज कीजिए जिस अखबार की कंपनी ने 75 करोड़ का लोन 2010 में लिया था. तब उसे 8.4 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष सूद देना पड़ता. अब वह बढ़ कर 12.5 करोड़ से अधिक होगा. यानी चार करोड़ सूद अदायगी में, भारत सरकार की नीतियों के कारण, एक वर्ष में वृद्धि.

अगर 75 करोड़ से अधिक ॠण है, तो और अधिक सूद. इसका क्या असर होता है? अन्य प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों के मुकाबले बाजार में सूद की देनदारी बढ़ जाना. उदाहरण के तौर पर वित्तीय वर्ष 2009-10 में हिंदी के तीन बड़े अखबारों का सूद और वित्तीय चार्ज ऐसे ॠणों पर था, एक फीसदी, तीन फीसदी और दो फीसदी. छोटे अखबारों का भी तब दो फीसदी था. इस बीच ॠण लेकर नई दुनिया की तरह, जिन छोटे या मंझोले अखबारों ने अपने संस्करण बढ़ाये और खर्च बढ़ाया, यह बढ़ कर चार फीसदी हो गया. वर्ष 2010-11 में.

जबकि हिंदी के तीन बड़े अखबारों (जिनके पास एफडीआइ है, इक्विटी और शेयर बाजार का पैसा है) उनके लिए यह घट कर एक फीसदी हो गया. 2011-12 में तीन बड़े घरानों का यह इंट्रेस्ट और फाइनेंस चार्ज (परसेंटेज आॅफ  टोटल रेवेन्यू) रहा- पहले का एक फीसदी, दूसरे का दो फीसदी और तीसरे का जीरो फीसदी.

यानी उसने अपना ॠण चुकता कर दिया. जिस छोटे अखबार ने अपने संस्करण फैलाये, उनके लिए अब खर्च हो गया, 6 फीसदी. अब आप बतायें, कौन सा आर्थिक गणित छोटे अखबारों के पक्ष में है? यानी सामान्य भाषा में कहें, तो सूद मद में बड़े अखबारों की देनदारी शून्य और छोटे अखबारों पर 10-20 करोड़ का सालाना कहर. ये और ऐसे अन्य खर्चे तो छोटे और मंझोले अखबारों को मार ही रहे हैं. पर सर्वाधिक असर डालने वाली चीज है, न्यूज प्रिंट की कीमत. औसत दर से न्यूज प्रिंट की कीमत में क्या बढ़ोतरी हुई है, और आनेवाले वर्षों का क्या अनुमान है, यह जान लीजिए -

वर्ष 2009-10 2010-11 2011-12 2012-13 2013-14
न्यूज प्रिंट / किग्रा 26 रु 29 रु 32 रु 34.50 रु 35.50 रु
वृद्धि (प्रतिशत) 11 फीसदी 12 फीसदी 7.5 फीसदी 3.5 फीसदी

दरअसल, कागज की बढ़ती कीमतों ने अखबारों की कमर तोड़ दी है. दुनिया में लगातार बड़ी अखबारी कागज मिलें बंद हो रही हैं. कच्चा माल न मिलने की वजह से. मिलों के बंद होने से बाजार में कम माल आ रहा है. भारत में उतनी मिलें नहीं हैं. किसी भी अखबार का सर्वाधिक खर्च न्यूजप्रिंट पर ही है. लगभग 80 से 90 फीसदी. पिछले एक साल में पांच कारणों से न्यूजप्रिंट की कीमत में भारी बढ़ोतरी हुई है-

1. अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का कमजोर होना.
2. पूरी दुनिया में कई कागज मिलों का बंद होना.
3. भारतीय कागज मिलों की खराब आर्थिक स्थिति.
4. असंगठित बाजार में रद्दी कागज की कीमत.
5. बाजार में पालीथीन बैगों का घटता इस्तेमाल

इस तरह से गुजरे एक साल में न्यूजप्रिंट, अखबारी कागज की कीमतों में भारी वृद्धि. रंगीन स्याही, प्लेट और अन्य आवश्यक उपकरणों के भाव में वृद्धि. तनख्वाहों में बेशुमार वृद्धि. सूद और ब्याज की दरों में भारी वृद्धि. इन सबको मिला कर कुल असर एक अखबार के अर्थशास्त्र पर क्या पड़ेगा? क्या इसका अनुमान लगाये बगैर आप नई दुनिया के साथ हुए इस प्रकरण को समझ पायेंगे?
विज्ञापन बाजार भी बड़ों के साथ है!
 अखबारों की आमद का एकमात्र स्रोत, विज्ञापन का गणित या संसार भी समझ लीजिए. आज 2011-12 में कुल विज्ञापन बाजार है, 25594 करोड़ का. इसमें से 10791 करोड़ प्रिंट मीडिया के पास है. कुल विज्ञापन का लगभग 46 फीसदी हिस्सा, अंगरेजी अखबारों पर खर्च होता है. अब देश में कुल अंगरेजी अखबार कितने हैं, यह जोड़ लीजिए, तो पता चलेगा कि हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं की संख्या से कम हैं. पर उनके लिए विज्ञापन का बाजार ज्यादा बड़ा है.
 यानी 46 फीसदी. लगभग 4.5-4.6 हजार करोड़. प्रिंट मीडिया का लगभग 30 फीसदी हिंदी अखबारों पर खर्च होता है. हिंदी के कितने पत्र-पत्रिकाएं हैं, यह जोड़ लीजिए, तो साफ हो जायेगा कि प्रति अखबार कितना कम विज्ञापन उपलब्ध है. हिंदी के जो तीन-चार बड़े अखबार हैं, वो इसका लगभग 70-80 फीसदी (यानी 3-3.5 हजार करोड़) अकेले ले जाते हैं. अपना रेट घटा कर.

अधिक संस्करण होने की बारगेनिंग कर. आक्रामक मार्केटिंग कर. बड़े होने का लाभ लेकर. कई राज्यों में होने और अनेक संस्करण निकालने के बल. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लिए स्थिति है कि लगभग 10800 करोड़ के प्रिंट विज्ञापन बाजार में से अकेले मराठी को सात फीसदी मिलता है. तेलुगु को चार फीसदी. तमिल को तीन फीसदी. बंगाली, गुजराती, मलयालम और कन्नड़ को 2-2 फीसदी. ओड़िया को एक फीसदी.

इसके और अंदर जायें, तो पता चलेगा, मध्य प्रदेश या राजस्थान जैसे हिंदी राज्य, जो बीमारू हिंदी राज्यों के दुष्चक्र से बाहर आ गये हैं, उनके यहां विज्ञापन बाजार की स्थिति क्या है? झारखंड-बिहार जैसे बीमारू माने जानेवाले, कम विकसित राज्यों में क्या स्थिति है? मध्य प्रदेश में लगभग 770 करोड़ का विज्ञापन बाजार है, जिसमें अकेले भोपाल और इंदौर में 460 करोड़ का व्यवसाय है.

इसी तरह राजस्थान में भी लगभग 650 करोड़ का विज्ञापन बाजार है. अकेले जयपुर 350 करोड़ का विज्ञापन बाजार है. इसके उलट बिहार में लगभग 350 करोड़ का बाजार है, जिसका 60 फीसदी यानी लगभग 200 करोड़ पटना का बाजार होगा. झारखंड का बाजार लगभग 170-200 करोड़ का होगा. इसमें से 50 फीसदी का विज्ञापन बाजार रांची से होगा.

अब आप गौर करें कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखंड का फर्क क्या है? मध्य प्रदेश और राजस्थान में शहरीकरण अधिक है. बाजार अधिक विकसित है. तुलनात्मक रूप से संपन्नता अधिक है. इसलिए वहां विज्ञापन अधिक हैं. विज्ञापन बाजार का बजट बड़ा है. बिहार और झारखंड़ पिछड़े हैं, इसलिए यहां विज्ञापन बाजार कम है. यहां पर सरकार ही सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है. क्योंकि बाजार विकसित ही नहीं हुआ है या कम विकसित हुआ है. अब बड़े अखबार क्या कर रहे हैं? वे मध्य प्रदेश से भी कई संस्करण निकाल रहे हैं.

राजस्थान से भी निकालते हैं. पंजाब हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड सब जगह से निकालते हैं. उनका सारे बाजारों पर कब्जा है. नई दुनिया जैसे अखबार या अन्य मंझोले अखबार, जो सिर्फ अपने प्रदेश में ही रह गये और जिन्हें अपने राज्य के बाजार या सरकार से विशेष मदद नहीं मिली, वे तो बंद होंगे ही. यह तो वैसी ही स्थिति है कि शेर के सामने मेमने को खड़ा कर दीजिए या एक व्यक्ति को 25-30 वर्ष तक खूब खिलाइए-पिलाइए और एक को 25-30 वर्षों तक कुपोषण का शिकार रखिए, ताकि वह सिर्फ नरकंकाल भर रह जाये और दोनों के बीच अखाड़े में कुश्ती-मुकाबला कराइए. तब अगर नरकंकाल हार जाता है, तो आप सवाल पूछिए कि आप हार क्यों गये?
 दरअसल, ऐसी जगहों पर सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती है. क्यों सरकारें छोटे अखबारों को, अपने राज्य से निकलने वाले अखबारों को, कम प्रसार वाले अखबारों को प्राथमिकता के आधार पर विज्ञापन देकर नहीं बचातीं? जब ऐसे अखबार बिक या बंद हो जायेंगे, तब वे सवाल उठायेंगे कि ऐसा कैसे हो गया? इंदिराजी अपने जमाने में, बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को न खायें या बड़ी मछली, छोटी मछली को न निगले, इसके लिए एमआरटीपी एक्ट लायी थीं.
 किसी राजनेता या दल द्वारा, आज आप इस तरह की बात सुनते हैं? क्या आपको याद है कि 1990-2000 के दशक के बीच हिंदी के कितने अखबार बंद हो गये? या अपने दम पर घिस-घिस कर चल रहे हैं. गौर करिए, दिनमान, दिनमान टाइम्स, धर्मयुग, माधुरी, हिंदुस्तान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स (जयपुर, लखनऊ, पटना), आवाज, आर्यावर्त्त, प्रदीप, संडे मेल (जेवीजी ग्रुप का अखबार), स्वतंत्र भारत. वगैरह-वगैरह. दलों द्वारा संचालित मुखपत्रों को भी याद कर लीजिए. नेशनल हेरल्ड (कांग्रेस), नवजीवन (कांग्रेस), गणशक्ति (माकपा), मदरलैंड (भाजपा). पता नहीं, नवज्योति और वीर अर्जुन जैसे अखबार कहां और किस हाल में हैं? यह सूची और बड़ी हो सकती है. नई दुनिया जैसे अखबार भी इसी द्वंद्व और हालात से गुजरे होंगे.
 ब्रिटेन के राज्य में, क्यों सूर्यास्त नहीं होता था? उसने नयी तकनीक खोज कर आर्थिक साम्राज्य कायम किया. वह आधुनिक राष्ट्र बना. उसके पास पूंजी थी, नयी तकनीक थी. सबसे तेज चलनेवाले समुद्री जहाज थे. इसलिए उन्हें कई इतिहासकारों ने माडर्न राबर्स (आधुनिक लुटेरा) कहा है, जो नये हथियारों से, पूंजी से लैश थे. बाबर या मुगल, भारत के खिलाफ हमलों में क्यों कामयाब हुए? क्योंकि उनकी सेना में, तोप चलाने की ताकत थी. भारतीय सेना बिदकते हाथियों-घोड़ों और जंग लगी तलवारों तक सीमित थी. यही स्थिति मीडिया की दुनिया में भी है. जिसके पास साधन है 

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