Tuesday 30 June 2015

उत्तर प्रदेश: खेलें खिलाड़ी, मजे में अनाड़ी


प्रशिक्षकों के साथ होता है हद दर्जे का भेदभाव
लखनऊ। जनसंख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भी खेलों का बुरा हाल है। युवा अखिलेश यादव सरकार से उम्मीद थी कि वे खेलों का समुन्नत विकास करेंगे लेकिन उन्हें भी सैफई से इतर सोचने की फुर्सत नहीं मिली है। कहने को वे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैदान के लिये भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से यारी निभा रहे हैं लेकिन उन्हें सोचना चाहिए कि क्रिकेट के अलावा भी खेलों में बहुत कुछ है। उत्तर प्रदेश का खेलों में खास मुकाम रहा है। महिला हॉकी की कभी तूती बोलती थी लेकिन आज यहां की प्रतिभाएं पलायन को मजबूर हैं।
अगर हर विभाग में भ्रष्टाचार परवान चढ़ रहा हो तो खेल उससे कैसे अछूते रह सकते हैं। खेलों का तो वैसे भी कोई माई-बाप नहीं होता। उत्तर प्रदेश में मैदान के भीतर और बाहर दोनों तरह के खेल खेले जा रहे हैं। राजनीतिक सभाओं में खेलों का ढिंढोरा पीटने वाली यूपी सरकार उच्चकोटि के खिलाड़ी तैयार करने के मामले में फिसड्डी साबित हो रही है। खेल महकमा मैन पॉवर की कमी से दोचार है जिनमें प्रशिक्षकों का मामला सबसे चिन्ताजनक है। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे जिले भी हैं जहां स्टाफ नाम की कोई बात ही नहीं है। औरैया, संत कबीर नगर, संभल, हापुड़, श्रावस्ती, चंदौली जैसे जिलों में न खेल अधिकारी हैं और न ही बाबू तथा कोई चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। ऐसे में खेलों का समुन्नत विकास कैसे हो सकता है, सोचने वाली बात है।
प्रशिक्षकों की कमी
कोई भी खेल हो, बेहतरीन खिलाड़ी पैदा करने के लिए अच्छे प्रशिक्षक पहली वरीयता होनी चाहिए। हर सफल खिलाड़ी के पीछे उसके प्रशिक्षक की सोच होती है जिसकी देख-रेख में खिलाड़ी अपनी प्रतिभा निखारता है। उत्तर प्रदेश में प्रशिक्षकों की जहां कमी है, वहीं जो हैं भी उनके साथ सही सलूक नहीं हो रहा। विभागीय सूत्रों की कही सच मानें तो प्रदेश में खेलों की गंगोत्री बहाने के लिए लगभग सात सैकड़ा प्रशिक्षकों की दरकार है लेकिन मौजूदा समय में लगभग इसके आधे ही कार्यरत हैं। इनमें भी अधिकांश मानदेय पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। आमधारणा यही है कि एक स्थायी प्रशिक्षक खिलाड़ी की जो प्रतिभा निखारने के मामले में नतीजे दे सकता है वह मानदेय पर कार्यरत प्रशिक्षक नहीं दे सकता क्योंकि दोनों के तौर-तरीकों, मनोदशा और प्राथमिकता में काफी फर्क होता है। यह बात अलग है कि नियमित प्रशिक्षक सरकारी दामाद बनकर खेलों का बंटाढार कर रहे हैं और बेचारे मानदेय प्रशिक्षक हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी गुरबत में जी रहे हैं।
हालात -ए- तरणताल
उत्तर प्रदेश में खेल विभाग के कोई 35 तरणताल हैं लेकिन ये खिलाड़ियों के काम नहीं आ रहे हैं। 10 तरणतालों में जहां प्रशिक्षक नहीं हैं, वहीं कई में भैंसे तैराकी सीख रही हैं। प्रशिक्षक के अलावा तरणतालों में लाइफ सेवर की भी सुविधा नहीं है। लाइफ सेवर से तात्पर्य गोताखोर से है जो हर स्वीमिंग पूल पर तैनात किया जाता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह किसी को डूबने से बचा सके। विभिन्न हॉस्टलों और कॉलेजों का भी यही हाल है। प्रदेश के 18 जिलों में 36 हॉस्टल हैं जबकि लखनऊ, गोरखपुर व सैफई में स्पोर्ट्स कॉलेज भी हैं। इनमें भी मानदेय प्रशिक्षकों से ही खिलाड़ी तैयार किये जा रहे हैं।
खेल अधिकारियों की कमी
सम्भागीय खेल अधिकारी (आरएसओ) मंडल स्तर पर महकमे का सर्वोच्च अधिकारी होता है। प्रदेश में 18 सम्भागीय खेल अधिकारियों की जगह सिर्फ नौ से काम चल रहा है। नौ पद लम्बे समय से खाली हैं। आरएसओ का प्रभार स्पोर्ट्स अफसरों के पास है। डिप्टी स्पोर्ट्स अफसर के एक सौ पदों में से 35 खाली हैं जबकि स्पोर्ट्स अफसर के 12 पद रिक्त हैं।
मैदानों के निर्माण कार्यों पर ग्रहण
विभागीय सूत्र कहते हैं कि बहुधा योजना बनाते समय उस पर सम्यक विचार नहीं होता और बाद में दिक्कतें आती हैं। फतेहपुर में निर्माणाधीन स्टेडियम का काम जमीन को लेकर आई परेशानी के कारण रुका हुआ है। फैजाबाद में वित्तीय बाधाओं के चलते स्टेडियम का निर्माण बाधित है।
बदला नहीं जा सका एस्टोटर्फ
राजधानी के मेजर ध्यानचंद हॉकी स्टेडियम में एस्टोटर्फ की गुणवत्ता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। शिकायतें होती रही हैं। बताते हैं कि इस एस्टोटर्फ को बिछाने में भी खेल हुआ था और गुणवत्ता के साथ समझौता किया गया था। बहरहाल कारण जो भी हों अभी तक एस्टोटर्फ बदला नहीं गया है और कहने की जरूरत नहीं कि इससे हॉकी खिलाड़ियों को बेहद असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।
नहीं बनी खेल नीति
 सरकारों का फोकस जिन क्षेत्रों पर होता है उनके लिए विशेष तौर पर नीति बनाई जाती है। प्रदेश की हुकूमतों ने समय-समय पर उद्योग, अवस्थापना, पर्यटन, निर्यात, सड़क, सड़क सुरक्षा व अन्य क्षेत्रों के लिए नीतियां तो बनाई हैं लेकिन ऐसा लगता है कि चूंकि खेल सरकारों की प्राथमिकता में रहा ही नहीं इसलिए प्रदेश की कोई खेल नीति नहीं है। प्रदेश में कोई खेल नीति न होना सरकारी मंशा का ही विद्रूप चेहरा है।  अखिलेश सरकार खिलाड़िÞयों के प्रोत्साहन की दिशा में भी जो कहती वह करती नहीं है।

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