Thursday 4 June 2015

खाद्य पदार्थों में मिलावटखोरी

मुल्क में मिलावटखोरी अभिशाप बनती जा रही है। खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता पर बातें तो बहुत होती हैं लेकिन हमारी हुकूमतें उद्योगपतियों को खुश रखने की मंशा के चलते कभी भी ऐसे मसलों पर कठोर कार्रवाई से बचती हैं। सरकार केन्द्र की हो या राज्यों की, दोनों ही स्तर पर खाद्य पदार्थों के मामले में अनदेखी की जाती है। इस समय देश में चर्चित नूडल ब्रांड मैगी की गुणवत्ता को लेकर बवाल मचा हुआ है। अभी तक लिए गये नमूनों में मैगी के नूडल में सीमा से 17 गुना ज्यादा सीसा और मोनो सोडियम ग्लूटामेट पाया गया है जोकि स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। मैगी ही नहीं मुल्क में कम से कम 80 हजार पैकेट-बंद खाद्य पदार्थों की बिक्री होती है। इन खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता कैसी है, इसका हमारे पास कोई मानक नहीं है। सवा अरब आबादी वाले इस देश में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता को जांचने के लिए महज तीन हजार लोग ही हैं, ऐसे में सही काम की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आजादी के 68 साल बाद भी देश के कई राज्यों में मिलावट की जांच के लिए प्रयोगशालाएं न होना क्या चिन्ता की बात नहीं है। मैगी को लेकर केन्द्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान  का यह कहना कि सरकार मैगी के मामले पर सीधी कार्रवाई तब तक नहीं कर सकती, जब तक जनता की तरफ से उसके पास कोई शिकायत नहीं की जाती। मतलब साफ है कि हमारी सरकार ऐसे मामलों पर न केवल उदासीन है बल्कि मिलावटखोरी रोकने को बने कानून भी बेहद लचर हैं।
उच्चतम न्यायालय की फटकार
देश में बिकने वाले खाद्य और पेय पदार्थों की गुणवत्ता को लेकर उच्चतम न्यायालय भी कई बार केन्द्र व राज्य सरकारों को लताड़ चुका है। मिलावटखोरों को उम्रकैद की सजा तक का प्रावधान है लेकिन उद्योगपतियों की जेब पर निगाह गड़ाये बैठी हमारी हुकूमतें जन स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर चींटी की चाल चलने को मजबूर हैं। बेहतर तो यह होना चाहिए कि देश में खाद्य पदार्थों को बनाने और बेचने वाली हर कम्पनी और प्रत्येक उत्पादक को तय मानक पूरे करने की बाध्यता हो, पर ऐसा नहीं हो रहा। हमारी हुकूमतें अमेरिका और यूरोप से भी कोई नसीहत लेने को तैयार नहीं हैं। वहां खाद्य पदार्थों में मिलावट पर सम्बद्ध कम्पनी और उत्पादक पर त्वरित रोक लगाने तथा कड़ी सजा का प्रावधान है, लिहाजा कानून के डर से वहां बड़ी से बड़ी कम्पनियां भी अपने उत्पादों की गुणवत्ता को लेकर सतर्क रहती हैं। वहां के लोग खान-पान को लेकर भी जागरूक हैं जबकि हमारे यहां खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता परखने की बजाय उसकी कीमत पहले पूछी जाती है। नियम-कायदों में खामियों का फायदा उठाती बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों पर समय रहते नकेल नहीं कसी गई तो सच मानिये देश की आवाम अपनी सेहत तो खराब करेगी ही मोदी सरकार का स्वच्छ और स्वस्थ भारत का सपना भी चूर-चूर हो जायेगा।
जीवन-मरण से जुड़ा है मिलावट का प्रश्न
खाद्य संरक्षा विभाग के अधिकारियों और उत्पादकों, वितरकों एवं विक्रेताओं के बीच सांठगांठ ने मिलावट के संकट को व्यापक बनाया है, लेकिन उपभोक्ताओं की शिकायतों के त्वरित निपटारे का कोई तंत्र अब तक नहीं बन सका है। पिछले महीने की 12 तारीख को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने राज्यसभा में बड़ी चिंताजनक सूचना दी थी। भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने अपने पांच क्षेत्रीय कार्यालयों के माध्यम से 2011 में देश के 33 राज्यों से दूध के 1,791 नमूनों की जांच की थी। इनमें 68.4 फीसदी नमूने गुणवत्ता के निर्धारित मानदंडों पर खरे नहीं उतरे थे और उनका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था। खाद्य पदार्थों में बड़े पैमाने पर मिलावट होने और खराब उत्पाद बेचे जाने की खबरें रोजमर्रा की बात हो चुकी हैं। प्राधिकरण का उक्त सर्वेक्षण इसकी भयावह व्यापकता को रेखांकित करता है। पिछले माह के आखिरी हफ्ते में महाराष्ट्र में राज्यव्यापी छापों में दूध और दुग्ध उत्पादों में मिलावट के सैकड़ों मामले सामने आये थे। मई में ही केरल के खाद्य संरक्षा आयुक्त के कार्यालय ने पाया था कि 300 कम्पनियों के खाने और स्वास्थ्य-संबंधी उत्पादों में खतरनाक मिलावट और खराबी है। इन कम्पनियों में कुछ बड़ी वैश्विक कम्पनियां भी शामिल हैं।
दूध में साबुन मिलाने के मामले
जहां दूध में ग्लूकोज और साबुन मिलाने के मामले सामने आ रहे हैं, वहीं दवाओं में चाक पाउडर और हानिकारक रसायन डाले जा रहे हैं। इनके अलावा खाद्य पदार्थों में खतरनाक रंगों और जानलेवा जीवाणुओं की मौजूदगी आम बात हो गयी है। दिल्ली में सड़कों पर बिकने वाले खाने के नमूनों में भारी मात्रा में वैसे जीवाणु पाये गये हैं, जो मानव-मल में होते हैं। उधर, उत्तर प्रदेश के खाद्य संरक्षा एवं औषधि प्रशासन ने एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के लोकप्रिय उत्पाद में मोनोसोडियम ग्लूटामेट और शीशे की अत्यधिक मात्रा पायी है। इस तरह मिलावट और खराब उत्पादों की बिक्री पेट खराब होने की साधारण परेशानियों से लेकर कैंसर जैसी घातक बीमारियों का कारण बन रहे हैं। हमारे देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट नयी समस्या नहीं है, परंतु साल-दर-साल इसका दायरा व्यापक होता जा रहा है। अधिक मुनाफा कमाने के लालच में नामचीन कम्पनियों से लेकर खोमचे वालों तक ज्यादातर विक्रेताओं ने उपभोक्ताओं के हितों को ताक पर रख दिया है।
ताक पर नियम-कायदे
गुणवत्ता नियंत्रण और मानक तय करने वाली संस्थाएं इस समस्या पर काबू पाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। संसाधनों के अभाव और लापरवाही का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2013-14 में राष्ट्रीय प्राधिकरण ने सिर्फ 72,200 नमूनों की जांच की थी। इनमें 13,571 नमूने दोषपूर्ण पाये गये थे और 10,235 मामलों में कानूनी कार्रवाई शुरू की गयी थी, किन्तु सिर्फ 3,845 मामलों में ही दोषियों को दंडित किया जा सका था। वर्ष 2014-15 के पूरे आंकड़े अभी प्राधिकरण की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैं। मिलावट और खराब उत्पादों के इतने अधिक मामलों के बावजूद देश में सिर्फ 68 जांच शालाएं ऐसी हैं जिन्हें राष्ट्रीय प्रयोगशाला प्रमाणन बोर्ड से स्वीकृति मिली है। अन्य 83 जांचशालाओं का स्तर संदर्भ, राज्य या सार्वजनिक खाद्य प्रयोगशालाओं का है, पर ये सभी मानदंडों पर प्रमाणित नहीं हैं। केन्द्र सरकार ने पिछले साल 850 करोड़ रुपये राष्ट्रीय प्राधिकरण की जांचशालाओं व अन्य सुविधाओं को तथा 900 करोड़ रुपये राज्यों के नियामक तंत्र को बेहतर करने के लिए निर्धारित किया है। इसके अलावा अमेरिका के रोग नियंत्रण और खाद्य संरक्षा केन्द्रों की तर्ज पर एक राष्ट्रीय केन्द्र की स्थापना की भी योजना है।
2011 में बना खाद्य संरक्षा एवं मानक कानून
वर्ष 2011 में लाये गये खाद्य संरक्षा एवं मानक कानून द्वारा पूर्ववर्ती खाद्य कानूनों, मानक संस्थाओं और जांच एजेंसियों को एक ही कानून के अंतर्गत लाया गया है, परंतु समुचित संसाधन, केन्द्र-राज्य सहयोग तथा कठोर दण्ड के अभाव में इसका खास असर नहीं दिख रहा है। यह अच्छी बात है कि नियामक संस्थाएं उत्पादों की जांच कर रही हैं, परंतु डिब्बाबंद और पैकेट में उपलब्ध पदार्थों के उपभोग एवं वितरण में भारी वृद्धि के कारण नमूनों की जांच और दोषियों को दंडित करने में तेजी लाने की जरूरत है।
मिलावटखोरी मिलीभगत का नतीजा
खाद्य संरक्षा विभाग के अधिकारियों और उत्पादकों, वितरकों एवं विक्रेताओं के बीच सांठगांठ ने मिलावट के संकट को व्यापक बनाया है, लेकिन उपभोक्ताओं की शिकायतों के त्वरित निपटारे का कोई तंत्र अब तक नहीं बन सका है। जरूरी आंकड़ों की मॉनीटरिंग और उनके आधार पर रणनीति बनाने की कार्यशैली भी नहीं विकसित हो पायी है। इस संदर्भ में अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देशों की व्यवस्थाओं से हम बहुत-कुछ सीख सकते हैं। संतोष की बात है कि हाल में केन्द्र ने इससे निपटने को प्राथमिकता देने का इरादा व्यक्त किया है। सरकारों और संबंधित एजेंसियों को समझना होगा कि खाद्य पदार्थों में मिलावट भ्रष्टाचार या अपराध के साधारण मामले नहीं हैं, इससे जन स्वास्थ्य और जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है।

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