बिहार विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है, लेकिन लम्बे समय से बिहार फतह करने का सपना देख रही भारतीय जनता पार्टी के माथे पर अभी से परेशानी की लकीरें साफ दिखने लगी हैं। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की एका और खुद के संगी-साथियों की सौदेबाजी को लेकर कमल दल दुविधा में है। भाजपा को उम्मीद थी कि नीतीश और लालू एक नहीं होंगे और वह पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के वोटों का विभाजन कर आसानी से मैदान फतह कर लेगी। बदले हालातों को देखें तो जो राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव में भाजपा से हाथ मिलाने को लालायित थे, वे अब गठबंधन में बने रहने की कीमत मांग रहे हैं। आज की राजनीति में यह आम बात हो गई है। गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर थोड़ी-बहुत तकरार तो चलती है, पर जिस तरह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा सीटों को लेकर मोल-भाव कर रहे हैं, वह इस बात का ही संकेत है कि लोकसभा चुनाव की तरह अब मोदी लोकप्रिय नहीं रहे।
बिहार को लेकर मोदी के सिपहसालार कुछ भी सोच रहे हों पर विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव जैसी स्थिति तो नहीं रहने वाली। कुछ महीने पहले तक भाजपा मानती थी कि बिहार में उसके सहयोगी दलों की नैया मोदी लहर के सहारे ही पार लगी थी, पर अब इन दलों को लगता है कि विधानसभा चुनाव में उनसे तालमेल के बगैर भाजपा जीत की बात भी नहीं सोच सकती। वक्त का तकाजा कहें या बदले समीकरण राजग में शामिल छोटे-छोटे दल सीटों को लेकर बढ़-चढ़कर मोल-भाव कर रहे हैं। बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं। उपेन्द्र कुशवाह की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी न केवल 67 विधानसभा सीटों पर दावा ठोंक रही है बल्कि वह चाहती है कि कुशवाह को ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाए। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की इस महत्वाकांक्षा के पीछे का मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाना है।
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की मुख्यमंत्री पद की लालसा ने भाजपा के अंत:पुर में भी बेचैनी बढ़ा दी है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर ने जिस तरह मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए अपना नाम आगे बढ़ाया उसकी देखा-देखी अन्य नाम भी सामने आ जाएं तो हैरत की बात नहीं होगी। महादलित वोटों को रिझाने के लिए भाजपा ने जीतनराम मांझी की तरफ दोस्ती का हाथ तो बढ़ाया है, पर वह चाहते हैं कि उन्हें करीब पचास सीटें दी जाएं। भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद को लेकर न मांझी की तरफ से कोई अड़चन है न रामविलास पासवान की तरफ से लेकिन इन सबके साथ सीटों के बंटवारे का मसला सुलझाना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। भाजपा लालू और नीतीश की जुगलबंदी के बाद अकेले दम ठोकने का भी जोखिम नहीं उठा सकती। लालू और नीतीश की सामूहिक शक्ति का अंदाजा कमल दल दस विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भलीभांति देख चुका है, जब उसे केवल चार सीटें मिली थीं, जबकि ये उपचुनाव लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीने बाद हुए थे। भाजपा भले ही यह कहती हो कि वह मोदी को आगे कर विधानसभा चुनाव लड़ेगी, पर वह जानती है कि उपेन्द्र कुशवाह, रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी के साथ न रहने पर चुनाव का उसका सामाजिक समीकरण गड़बड़ा जाएगा। भाजपा सीटों के बंटवारे को लेकर अपने संगी-साथियों से गलबहियां कर भी ले तो उसे अपनों के बागी होने का डर भी कम नहीं है।
बिहार विधानसभा चुनावों में युवा मतदाताओं के साथ ही जातिगत समीकरण भी अहम होगा। मोदी जिन युवाओं के बल पर मुल्क की सल्तनत पर काबिज हुए हैं वही बिहारी युवा नीतीश कुमार पर एक बार फिर दांव लगाने को बेताब हैं। मोदी की कथनी और करनी के अंतर से उपजी निराशा का लाभ नीतीश कुमार को मिल जाये तो हैरत नहीं होनी चाहिए। नीतीश कुमार को जहां अपने काम पर भरोसा है वहीं लालू प्रसाद यादव का यादव और मुस्लिम जनाधार काफी मजबूत माना जा रहा है। बिहार में यदुवंशियों का संख्या बल भी भाजपा के लिए एक डरावना सच है। यादव, मुस्लिम जनमत को देखते हुए फिलवक्त नीतीश कुमार भाजपा पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। बिहार में भाजपा की मुख्य ताकत सवर्ण वोट होगा पर ब्राह्मणों के मत में कांग्रेस सेंधमारी कर केसरिया रंग फीका कर सकती है। देखा जाये तो बिहार में कांग्रेस की अपने पारम्परिक ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम मतों पर पकड़ तो कमजोर हुई है लेकिन ब्राह्मण जाति के एक बड़े हिस्से की सहानुभूति आज भी उसके साथ है।
बिहार में वामपंथी दल बेशक बड़ी ताकत न हों पर वे चुनावी समीकरण बदलने का माद्दा जरूर रखते हैं। लालू-नीतीश चाहेंगे कि वामदल महागठबंधन में शामिल हों, अगर ऐसा होता है तो न केवल उनकी प्रासंगिकता बढ़ेगी बल्कि भाजपा का काम भी कठिन हो जायेगा। देखा जाये तो बिहार के हर विधान सभा क्षेत्र में इनके पारम्परिक मत हैं। यह रोचक है कि विकास केन्द्रित जनतंत्र में जनतंत्र रचने की शक्ति आज भी जातीय शक्ति से जुड़ी है, जिसके दीदार बिहार में हो सकते हैं। दरअसल विकास दोधारी तलवार है। एक तरफ वह जन आकांक्षाओं को पूरा करती है तो दूसरी तरफ नई उम्मीदें परवान चढ़ने लगती हैं। नीतीश कुमार की जहां तक बात है उन्होंने बिहार के विकास को गति देने की पुरजोर कोशिश की है। जहां तक मतदाताओं के रुझान की बात है, वह जातिभाव से अपने आपको जुदा नहीं कर सकता। बिहार में टिकट वितरण सबसे अहम होगा। जो दल समझदारी दिखाएगा, उसकी बल्ले-बल्ले जरूर होगी। भारतीय जनता पार्टी का जहां तक सवाल है, उसके सामने एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई। उस पर बिहार फतह करने के लिए न केवल अपने कुनबे को संगठित रखने की चुनौती है बल्कि आस्तीनों में पल रहे सपोलों से सावधान रहना भी जरूरी है।
बिहार को लेकर मोदी के सिपहसालार कुछ भी सोच रहे हों पर विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव जैसी स्थिति तो नहीं रहने वाली। कुछ महीने पहले तक भाजपा मानती थी कि बिहार में उसके सहयोगी दलों की नैया मोदी लहर के सहारे ही पार लगी थी, पर अब इन दलों को लगता है कि विधानसभा चुनाव में उनसे तालमेल के बगैर भाजपा जीत की बात भी नहीं सोच सकती। वक्त का तकाजा कहें या बदले समीकरण राजग में शामिल छोटे-छोटे दल सीटों को लेकर बढ़-चढ़कर मोल-भाव कर रहे हैं। बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं। उपेन्द्र कुशवाह की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी न केवल 67 विधानसभा सीटों पर दावा ठोंक रही है बल्कि वह चाहती है कि कुशवाह को ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाए। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की इस महत्वाकांक्षा के पीछे का मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाना है।
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की मुख्यमंत्री पद की लालसा ने भाजपा के अंत:पुर में भी बेचैनी बढ़ा दी है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर ने जिस तरह मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए अपना नाम आगे बढ़ाया उसकी देखा-देखी अन्य नाम भी सामने आ जाएं तो हैरत की बात नहीं होगी। महादलित वोटों को रिझाने के लिए भाजपा ने जीतनराम मांझी की तरफ दोस्ती का हाथ तो बढ़ाया है, पर वह चाहते हैं कि उन्हें करीब पचास सीटें दी जाएं। भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद को लेकर न मांझी की तरफ से कोई अड़चन है न रामविलास पासवान की तरफ से लेकिन इन सबके साथ सीटों के बंटवारे का मसला सुलझाना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। भाजपा लालू और नीतीश की जुगलबंदी के बाद अकेले दम ठोकने का भी जोखिम नहीं उठा सकती। लालू और नीतीश की सामूहिक शक्ति का अंदाजा कमल दल दस विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भलीभांति देख चुका है, जब उसे केवल चार सीटें मिली थीं, जबकि ये उपचुनाव लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीने बाद हुए थे। भाजपा भले ही यह कहती हो कि वह मोदी को आगे कर विधानसभा चुनाव लड़ेगी, पर वह जानती है कि उपेन्द्र कुशवाह, रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी के साथ न रहने पर चुनाव का उसका सामाजिक समीकरण गड़बड़ा जाएगा। भाजपा सीटों के बंटवारे को लेकर अपने संगी-साथियों से गलबहियां कर भी ले तो उसे अपनों के बागी होने का डर भी कम नहीं है।
बिहार विधानसभा चुनावों में युवा मतदाताओं के साथ ही जातिगत समीकरण भी अहम होगा। मोदी जिन युवाओं के बल पर मुल्क की सल्तनत पर काबिज हुए हैं वही बिहारी युवा नीतीश कुमार पर एक बार फिर दांव लगाने को बेताब हैं। मोदी की कथनी और करनी के अंतर से उपजी निराशा का लाभ नीतीश कुमार को मिल जाये तो हैरत नहीं होनी चाहिए। नीतीश कुमार को जहां अपने काम पर भरोसा है वहीं लालू प्रसाद यादव का यादव और मुस्लिम जनाधार काफी मजबूत माना जा रहा है। बिहार में यदुवंशियों का संख्या बल भी भाजपा के लिए एक डरावना सच है। यादव, मुस्लिम जनमत को देखते हुए फिलवक्त नीतीश कुमार भाजपा पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। बिहार में भाजपा की मुख्य ताकत सवर्ण वोट होगा पर ब्राह्मणों के मत में कांग्रेस सेंधमारी कर केसरिया रंग फीका कर सकती है। देखा जाये तो बिहार में कांग्रेस की अपने पारम्परिक ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम मतों पर पकड़ तो कमजोर हुई है लेकिन ब्राह्मण जाति के एक बड़े हिस्से की सहानुभूति आज भी उसके साथ है।
बिहार में वामपंथी दल बेशक बड़ी ताकत न हों पर वे चुनावी समीकरण बदलने का माद्दा जरूर रखते हैं। लालू-नीतीश चाहेंगे कि वामदल महागठबंधन में शामिल हों, अगर ऐसा होता है तो न केवल उनकी प्रासंगिकता बढ़ेगी बल्कि भाजपा का काम भी कठिन हो जायेगा। देखा जाये तो बिहार के हर विधान सभा क्षेत्र में इनके पारम्परिक मत हैं। यह रोचक है कि विकास केन्द्रित जनतंत्र में जनतंत्र रचने की शक्ति आज भी जातीय शक्ति से जुड़ी है, जिसके दीदार बिहार में हो सकते हैं। दरअसल विकास दोधारी तलवार है। एक तरफ वह जन आकांक्षाओं को पूरा करती है तो दूसरी तरफ नई उम्मीदें परवान चढ़ने लगती हैं। नीतीश कुमार की जहां तक बात है उन्होंने बिहार के विकास को गति देने की पुरजोर कोशिश की है। जहां तक मतदाताओं के रुझान की बात है, वह जातिभाव से अपने आपको जुदा नहीं कर सकता। बिहार में टिकट वितरण सबसे अहम होगा। जो दल समझदारी दिखाएगा, उसकी बल्ले-बल्ले जरूर होगी। भारतीय जनता पार्टी का जहां तक सवाल है, उसके सामने एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई। उस पर बिहार फतह करने के लिए न केवल अपने कुनबे को संगठित रखने की चुनौती है बल्कि आस्तीनों में पल रहे सपोलों से सावधान रहना भी जरूरी है।
No comments:
Post a Comment