खेलना-कूदना तो हर जीव जन्म से ही शुरू कर देता है। खेलों
से न केवल शरीर सुगठित होता है बल्कि मानसिक स्फूर्ति भी बढ़ती है। खेलों से
भाईचारा प्रगाढ़ होता है लेकिन अफसोस आजादी के 69 साल बाद भी भारत में खेल संस्कृति
पल्लवित नहीं हो सकी है। कुछ बड़े खेल आयोजनों की सफलता को छोड़ दें तो सवा अरब की
आबादी में एक दर्जन खिलाड़ी भी ऐसे नहीं हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय खेल पटल पर धाक
हो। पुश्तैनी खेल हॉकी अर्श से फर्श पर है तो क्रिकेट भ्रष्टाचारियों के हाथ की
कठपुतली। देश में राजनीति अन्य व्यवस्थाओं की तरह खेलों को भी चौपट कर रही है। पद
और प्रतिष्ठा के चलते जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खेल संघों पर राजनीतिज्ञों
का कब्जा है। सच्चाई यह है कि देश के सम्पूर्ण खेल संघ कांग्रेस और भाजपा के हाथों
की कठपुतली हैं।
क्रीड़ांगन राजनीति का अखाड़ा बन गये हैं तो खिलाड़ियों के हक
पर अनाड़ी डाका डाल रहे हैं। खिलाड़ियों को जहां चना-चिरौंजी नसीब नहीं वहीं खेलनहार
काजू-बादाम उड़ाते हैं। हर बड़े खेल आयोजन से पूर्व दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं
लेकिन उपलब्धि के नाम पर भारत को एकाध पदक से ही संतोष करना पड़ता है। खेलों के
अपयश की गाज हमेशा खिलाड़ियों पर गिरती है जबकि किसी खेलनहार ने स्वेच्छा से अपनी
आसंदी शायद ही कभी छोड़ी हो। आज हर भारतीय के दिल में क्रिकेट राज कर रहा है।
खिलाड़ी अधिकृत तौर पर नीलाम हो रहे हैं तो इनके ईमान की बोली भी खूब लग रही है।
देश भर में सट्टेबाजी की जड़ें गहरा गई हैं तो दूसरी तरफ अपना पौरुष बढ़ाने और खेलों
में कामयाबी का डंका पीटने के लिए खिलाड़ी शक्तिवर्धक दवाओं का बेजा इस्तेमाल करने
से भी बाज नहीं आ रहे।
आजादी के बाद से भारत में खेल संस्कृति का उन्नयन तो नहीं
हुआ अलबत्ता यहां सट्टेबाजी और डोपिंग ने अपनी जड़ें इतनी गहरे जमा ली हैं जिनको
समूल उखाड़ फेंकना किसी के बूते की बात नहीं रही। मादक पदार्थों के इस्तेमाल के
मामले में आज भारत रूस के बाद दूसरे स्थान पर है जबकि प्रदर्शन के मामले में उसका
शीर्ष 20 देशों में भी शुमार नहीं है। पिछले पांच-छह साल में देश के छह सौ से अधिक
खिलाड़ियों का डोपिंग में दोषी पाया जाना चिन्ता की बात है। अफसोस डोपिंग का यह
कारोबार भारत सरकार की मदद से चल रहे साई सेण्टरों के आसपास धड़ल्ले से हो रहा है।
खेलों में जब तब आर्थिक तंगहाली का रोना रोया जाता है जबकि केन्द्र सरकार
प्रतिवर्ष 12 सौ करोड़ रुपये से अधिक खेलों पर निसार कर रही है। राज्य सरकारों के
खेल बजट को भी यदि इसमें समाहित कर दिया जाए तो यह राशि कई गुना बढ़ जाती है। दरअसल
भारत में खेल पैसे के अभाव में नहीं बल्कि लोगों की सोच में खोट के चलते दम तोड़
रहे हैं।
आजादी के बाद देश का मतदाता केन्द्र में 16 बार सरकार बना
चुका है लेकिन इन हुकूमतों ने एक बार भी किसी खिलाड़ी को खेल मंत्री पद देना मुनासिब
नहीं समझा, इसके अपने निहितार्थ हैं। दरअसल खेल संघों में सिर्फ कांग्रेसी ही नहीं
बल्कि अमित शाह, विजय कुमार
मल्होत्रा, अरुण जेटली,
अनुराग ठाकुर, जनार्दन सिंह गहलोत, रमेश बैस, कैलाश विजयवर्गीय, रमन सिंह, सुमित्रा महाजन, अभिषेक मटोरिया, श्रीपद नायक, आमिन पठान आदि भाजपाई आज किसी न किसी खेल संघ
में काबिज हैं लिहाजा किसी खिलाड़ी को खेल मंत्री बनाना इनके लिए कतई मुफीद नहीं
होता।
भारतीय खेलों में पारदर्शिता लाने और खेल संघों से
राजनीतिज्ञों को बेदखल करने के लिए पूर्व खेल मंत्री अजय माकन ने खेल विधेयक की
पहल की थी, पर अधिकांश खेल
संघों में काबिज कांग्रेस और भाजपा के पदाधिकारियों के दबाव के चलते माकन को अपनी
आसंदी से हाथ धोना पड़ा था। खेल संघों में खिलाड़ियों की जगह पदाधिकारी बने
राजनीतिज्ञों के प्रभाव को सिरे से खारिज करना किसी के लिए आसान बात नहीं होगी। खेलों
को चुनौती खिलाड़ियों से नहीं बल्कि हमेशा उन अनाड़ियों से मिलती है जोकि कई दशक से
खेल संघों में अपनी गहरी पैठ बनाए हैं।
खेलों का स्तर बेहतर करना बड़ी चुनौती है। दुनिया के नम्बर
एक खेल फुटबाल, पुश्तैनी खेल
हॉकी, तैराकी और
एथलेटिक्स में भारतीय खिलाड़ियों का पिद्दी प्रदर्शन हमेशा मुंह चिढ़ाता है। फीफा
विश्व कप भारत के लिए सपना बनकर रह गया है। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाला देश 32
श्रेष्ठ देशों की कौन कहे 100 में भी शुमार नहीं है। ओलम्पिक खेल करीब हैं लेकिन
हमारे खिलाड़ी प्रतियोगिता में सहभागिता की जद्दोजहद में लगे हैं। भला हो
अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक महासंघ का जिसने हर खेल के मानक तय कर रखें हैं वरना हम
यहां भी सहभागिता का कीर्तिमान बनाने से नहीं चूकते। सच तो यह है कि दूसरों के लिए
तालियां पीटना भारतीयों का शगल बन गया है। तो आओ एक बार फिर खेलों की नाकामी पर
ताली पीटें।
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