एक कटी टांग से विश्व की पांच पर्वत चोटियों पर फहरा चुकी हैं तिरंगा
महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने चला रही हैं पांच सिलाई-कढ़ाई सेण्टर
अरुणिमा सिन्हा ने अपने अदम्य साहस और हौसले से दुनिया को जता दिया कि यदि मनुष्य मन में ठान ले तो असम्भव कोई चीज नहीं है। अरुणिमा सिन्हा आज उन लोगों का रोल माडल हैं जोकि मन से हार मान चुके थे। उन्हें अपना जीवन बोझिल सा लगने लगा था। अरुणिमा ने अपनी एक टांग से ही एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर जो मिसाल कायम की है, वह अपने आपको सक्षम मानने वालों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है।
कहते हैं हवा के अनुकूल चलने वाला जहाज कभी बन्दरगाह नहीं पहुंचता। प्रतिकूल परिस्थितियों में जो अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता सफलता उसी के कदम चूमती है। कृत्रिम पैर के सहारे हिमालय की सबसे ऊॅंची चोटी 'माउंट एवरेस्ट' फतह कर उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर का नाम रोशन करने वाली अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, मेरा कटा पांव मेरी कमजोरी था। उसे मैंने अपनी ताकत बनाया।
बास्केटबॉल खिलाड़ी अरुणिमा को ११ अप्रैल, २०११ की वह काली रात आज भी याद आती है, जब पद्मावत एक्सप्रेस से वह दिल्ली जा रही थीं। बरेली के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने उनके डिब्बे में प्रवेश किया। अरुणिमा को अकेला पाकर वे उनकी चेन छीनने लगे। छीना-झपटी के बीच बदमाशों ने उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे उनका बायां पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक वे बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। इस दौरान दर्जनों ट्रेने गुजर गईं। सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब पटरी के किनारे अरुणिमा को बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। जब मीडिया सक्रिय हुआ तो अरुणिमा को दिल्लीी के एम्सा में भर्ती कराया गया। एम्स में इलाज के दौरान उनका बायां पैर काट दिया गया। तब लगा बास्के टबॉल की राष्ट्रीय स्तौर की खिलाड़ी अरुणिमा अब जीवन में कुछ नहीं कर पायेगी। लेकिन उसने जि़न्दगी से हार नहीं मानी। अरुणिमा की आंखों से आंसू निकले, लेकिन उन आंसुओं ने उन्हें कमजोर करने के बजाये साहस प्रदान किया और देखते ही देखते अरुणिमा ने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने की ठान ली।
अरुणिमा ने ट्रेन पकड़ी और सीधे जमशेदपुर पहुंच गईं। वहां उन्हों ने एवरेस्ट फतह कर चुकी बछेंद्री पाल से मुलाकात की। फिर तो मानो उनके पर से लग गये। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद ३१ मार्च को उनका मिशन एवरेस्ट शुरू हुआ। ५२ दिनों की इस चढ़ाई में २१ मई को माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर वे विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बन गईं। अरुणिमा का कहना है विकलांगता व्यक्ति की सोच में होती है। हर किसी के जीवन में पहाड़ सी ऊंची कठनाइयां आती हैं, जिस दिन वह अपनी कमजोरियों को ताकत बनाना शुरू करेगा हर ऊॅंचाई अपने आप बौनी हो जायेगी।
आज अरुणिमा सिन्हा हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लिए नीले आसमान को निहार रही थी। जहां पहुंचने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम लोग पचास बार सोचते हैं, अरुणिमा सिन्हा वहीं खड़ी थी- एक पैर के साथ। अपने अदम्य साहस से उन्होंने वह कर दिखाया है जो बाकी लोगों के लिए सपना भर हो सकता है। विश्व की एकमात्र महिला विकलांग एवरेस्ट विजेता अरुणिमा सिन्हा को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तेंजिंग नॉर्गे अवॉर्ड से सम्मानित किया है, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें यश भारती से सम्मानित किया।
अरुणिमा ने रेल हादसे में अपना एक पैर गंवाने के बाद भी साहस और संघर्ष की वह गाथा लिखी है जोकि हम सभी के लिए प्रेरक और गौरवान्वित करने वाली है। अरुणिमा सिन्हा आज देश ही नहीं विदेश में भी एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुकी हैं। अरुणिमा अब तक एवरेस्ट समेत विश्व की पांच पर्वत चोटियों पर तिरंगा फहरा चुकी हैं। अम्बेडकर नगर के पंडा टोला निवासी अरुणिमा सिन्हा बताती हैं- वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे भारी दिन था। बरेली रेलवे स्टेशन पर घटे उस हादसे ने मुझे बेहद लाचार बना दिया था। पिता का साया बचपन से ही उठ चुका था। मां ने बेहद आर्थिक तंगी में रहकर मेरी बड़ी बहन, मुझे और छोटे भाई को पाला था। हालांकि अब लगता है, अगर यह हादसा मेरे साथ नहीं बीता होता तो मैं शायद इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती। दरअसल, इस हादसे ने मेरे अंदर के हौसले को जगा दिया।
मैंने इसके लिए ट्रेनिंग हासिल की। हिमालय की एक चोटी पर फतह पाने के बाद तो मेरा हौसला बुलंद होता गया। अरुणिमा बताती हैं, मेरी मां का निधन हो चुका है, लेकिन खुश हूं कि मां ने मेरी सफलता को देखा, हालांकि अफसोस है कि पिता मेरी कामयाबी नहीं देख पाए। विश्व की पांच चोटियों पर अपने अदम्य साहस का परचम लहराकर मिसाल बन चुकी अरुणिमा सिन्हा ने सात चोटियों पर चढ़ने का संकल्प लिया था। इनमें से बीते वर्ष १५ अगस्त को करीब १७ हजार फीट ऊंचाई वाले स्विट्जरलैंड के रोसा पर्वत की चोटी पर वे तिरंगा फहराने के साथ पांच चोटियों पर सफलतापूर्वक चढ़ने का गौरव हासिल कर चुकी हैं। अरुणिमा ९ अगस्त को स्विट्जरलैंड पहुंची थी। अपने गाइड ओलावियर के साथ ट्रेनिंग और स्थलीय जानकारी लेने के बाद १३ अगस्त को उन्होंने चढ़ाई शुरू की। इस दौरान उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मौसम विपरीत रहा लेकिन उन्होंने अपने साहस को नहीं छोड़ा और चलती रहीं।
पद्म श्री सम्मान हासिल करने के बाद बीते वर्ष २९ अगस्त को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अरुणिमा को तेंजिंग नॉर्गे अवार्ड से सम्मानित किया। अरुणिमा के भाई राहुल सिन्हा ने बताया कि उसे अपनी बहन के साहस और सफलता पर नाज है। उसने अपने साधारण परिवार को खास बना दिया है।
आगे और क्या? इस सवाल पर अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, मैं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में पांच सिलाई-कढ़ाई सेण्टर चला रही हूं। पंडाटोला, मिझौड़ा, पहितीपुर, सोनगांव तथा डढ़िया में लड़कियों व महिलाओं को मुफ्त सिलाई कढ़ाई व डिजाइनिंग का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसका मकसद महिलाओं का जीवन स्तर सुधारना है। मैं चाहती हूं कि वे सबल बनें, साहसी बनें।
उत्तर- ट्रेन हादसे में हमने अपना पैर गंवा दिया था। अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर पूरा दिन रोते, हमें सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। यह मुझे मंजूर न था। पर मुझे जीना था, कुछ करना था। मैंने मन ही मन कुछ अलग करने की ठानी जो औरों के लिए एक मिसाल बने।
प्रश्न- क्या परिस्थितियां थीं उस समय?
उत्तर- मूलतः हम बिहार के रहने वाले थे। पिताजी फौज में थे जिस कारण हम लोग सुल्तानपुर आ गये। चार वर्ष की उम्र में पिता का स्वर्गवास हो गया। मां के साथ हम अम्बेडकर नगर पहुंचे वहां उन्हें स्वास्थ्य विभाग में नौकरी मिल गई। पर परिवार को चलाना अब भी मुश्किल था। फिर भी इण्टर के बाद एलएलबी की पढ़ाई की। खेलों में रुझान होने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबाल व फुटबाल में कई पुरस्कार जीते, लेकिन कुछ खास हाथ न लग सका। पर मेरा एक सपना था कुछ अलग करने का।
प्रश्न- क्या वह भयानक ट्रेन हादसा आज भी याद आता है?
उत्तर- वह रात मैं सारी उम्र नही भूल सकती। मैं दिल्ली जा रही थी। रात के लगभग दो बजे थे। चारों ओर सन्नाटा था कब मेरी आंख लगी कुछ पता न चला। तभी बरेली के पास कुछ बदमाश गाड़ी पर चढ़े। अकेला जान वे मेरी चेन छीनने लगे, मैंने भी डटकर उनका सामना किया। झपटा-झपटी के बीच उन लोगों ने मुझे ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे मेरा बांया पैर कट गया।
प्रश्न- बछेन्द्रीपाल से आपने ट्रेनिंग ली, कैसे पहुंचीं उन तक?
उत्तर- एम्स में इलाज के दौरान ही मैंने बछेन्द्रीपाल जी का मोबाइल नम्बर इण्टरनेट से प्राप्त किया। उनसे मैंने अपनी पूरी कहानी बतायी और कहा मैं एवरेस्ट पर चढ़ना चाहती हूं। उन्होंने मुझे जमशेदपुर बुलाया। फिर क्या था अगले ही पल मैं वहां थी। दो वर्ष तक मैंने उनसे ट्रेनिंग ली।
प्रश्न- हिमालय की चढ़ाई के दौरान कैसी चुनौतियां थीं?
उत्तर- ५२ दिनों की यात्रा हर पल रोमांच-खतरों और हौसलों की कहानी से भरी थी सबसे मुश्किल क्षण डेथ जोन एरिया खम्बू आइसलैण्ड का था। बर्फ की चट्टानों पर चढ़ाई करनी थी। सिर पर चमकता सूरज था। कब कौन सी चट्टान पिघल कर गिर जाए, अंदाजा लगाना मुश्किल था।
प्रश्न- माउंट एवरेस्टय पर लाशें देख कैसा लगा?
उत्तर- जब मैं माउंट एवरेस्ट पर चढ़ रही थी तभी पहले उसे पार करने की कवायद कर चुके आधा दर्जन से ज्यादा पर्वतारोहियों की सामने पड़ी लाशें रोंगटे खड़ी कर देती थीं। कभी बर्फ उन्हें ढंक देती कभी हवा के झोंके उन पर ढंकी बर्फ हटा देते। ऐसे मंजर का सामना मुश्किल था, लेकिन नामुमकिन नहीं।
प्रश्न- सब कह रहे थे वापस आ जाओ, फिर क्याम हुआ?
उत्तर- पर्वत पर चुनौतियों का सामना करना बहुत मुश्किल था। पर धैर्य नहीं खोया। इसी बीच मेरा आक्सीजन सिलेण्डर खत्म हो गया था। कैम्प से मेरे पास फोन आ रहे थे अरुणिमा तुम वापस आ जाओ जहां तक तुम पहुंची हो वो भी एक रिकार्ड है। पर मैंने तो मन्जिल को पाने की ठानी थी बीच से वापस कैसे आ जाती।
प्रश्न- युवाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?
उत्तर- मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि परिस्थितियां बदलती रहती हैं। पर हमें अपने लक्ष्य से भटकता नहीं चाहिये बल्कि उनका सामना करना चाहिये। जब मैं हॉकी स्टिक लेकर खेलने जाती तो मोहल्ले के लोग मुझ पर हंसते थे मेरा मजाक उड़ाते थे। शादी हुई और फिर तलाक पर मैंने हार नहीं मानी। बड़ी बहन व मेरी मां ने मेरा साथ दिया। हादसे के बाद मेरे जख्मों को कुरेदने वाले बहुत थे पर मरहम लगाने वाले बहुत कम। इतना कुछ होने के बाद भी मैंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। अन्ततः मुझे सफलता मिली।
महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने चला रही हैं पांच सिलाई-कढ़ाई सेण्टर
अरुणिमा सिन्हा ने अपने अदम्य साहस और हौसले से दुनिया को जता दिया कि यदि मनुष्य मन में ठान ले तो असम्भव कोई चीज नहीं है। अरुणिमा सिन्हा आज उन लोगों का रोल माडल हैं जोकि मन से हार मान चुके थे। उन्हें अपना जीवन बोझिल सा लगने लगा था। अरुणिमा ने अपनी एक टांग से ही एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर जो मिसाल कायम की है, वह अपने आपको सक्षम मानने वालों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है।
कहते हैं हवा के अनुकूल चलने वाला जहाज कभी बन्दरगाह नहीं पहुंचता। प्रतिकूल परिस्थितियों में जो अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता सफलता उसी के कदम चूमती है। कृत्रिम पैर के सहारे हिमालय की सबसे ऊॅंची चोटी 'माउंट एवरेस्ट' फतह कर उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर का नाम रोशन करने वाली अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, मेरा कटा पांव मेरी कमजोरी था। उसे मैंने अपनी ताकत बनाया।
बास्केटबॉल खिलाड़ी अरुणिमा को ११ अप्रैल, २०११ की वह काली रात आज भी याद आती है, जब पद्मावत एक्सप्रेस से वह दिल्ली जा रही थीं। बरेली के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने उनके डिब्बे में प्रवेश किया। अरुणिमा को अकेला पाकर वे उनकी चेन छीनने लगे। छीना-झपटी के बीच बदमाशों ने उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे उनका बायां पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक वे बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। इस दौरान दर्जनों ट्रेने गुजर गईं। सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब पटरी के किनारे अरुणिमा को बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। जब मीडिया सक्रिय हुआ तो अरुणिमा को दिल्लीी के एम्सा में भर्ती कराया गया। एम्स में इलाज के दौरान उनका बायां पैर काट दिया गया। तब लगा बास्के टबॉल की राष्ट्रीय स्तौर की खिलाड़ी अरुणिमा अब जीवन में कुछ नहीं कर पायेगी। लेकिन उसने जि़न्दगी से हार नहीं मानी। अरुणिमा की आंखों से आंसू निकले, लेकिन उन आंसुओं ने उन्हें कमजोर करने के बजाये साहस प्रदान किया और देखते ही देखते अरुणिमा ने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने की ठान ली।
अरुणिमा ने ट्रेन पकड़ी और सीधे जमशेदपुर पहुंच गईं। वहां उन्हों ने एवरेस्ट फतह कर चुकी बछेंद्री पाल से मुलाकात की। फिर तो मानो उनके पर से लग गये। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद ३१ मार्च को उनका मिशन एवरेस्ट शुरू हुआ। ५२ दिनों की इस चढ़ाई में २१ मई को माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर वे विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बन गईं। अरुणिमा का कहना है विकलांगता व्यक्ति की सोच में होती है। हर किसी के जीवन में पहाड़ सी ऊंची कठनाइयां आती हैं, जिस दिन वह अपनी कमजोरियों को ताकत बनाना शुरू करेगा हर ऊॅंचाई अपने आप बौनी हो जायेगी।
आज अरुणिमा सिन्हा हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लिए नीले आसमान को निहार रही थी। जहां पहुंचने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम लोग पचास बार सोचते हैं, अरुणिमा सिन्हा वहीं खड़ी थी- एक पैर के साथ। अपने अदम्य साहस से उन्होंने वह कर दिखाया है जो बाकी लोगों के लिए सपना भर हो सकता है। विश्व की एकमात्र महिला विकलांग एवरेस्ट विजेता अरुणिमा सिन्हा को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तेंजिंग नॉर्गे अवॉर्ड से सम्मानित किया है, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें यश भारती से सम्मानित किया।
अरुणिमा ने रेल हादसे में अपना एक पैर गंवाने के बाद भी साहस और संघर्ष की वह गाथा लिखी है जोकि हम सभी के लिए प्रेरक और गौरवान्वित करने वाली है। अरुणिमा सिन्हा आज देश ही नहीं विदेश में भी एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुकी हैं। अरुणिमा अब तक एवरेस्ट समेत विश्व की पांच पर्वत चोटियों पर तिरंगा फहरा चुकी हैं। अम्बेडकर नगर के पंडा टोला निवासी अरुणिमा सिन्हा बताती हैं- वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे भारी दिन था। बरेली रेलवे स्टेशन पर घटे उस हादसे ने मुझे बेहद लाचार बना दिया था। पिता का साया बचपन से ही उठ चुका था। मां ने बेहद आर्थिक तंगी में रहकर मेरी बड़ी बहन, मुझे और छोटे भाई को पाला था। हालांकि अब लगता है, अगर यह हादसा मेरे साथ नहीं बीता होता तो मैं शायद इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती। दरअसल, इस हादसे ने मेरे अंदर के हौसले को जगा दिया।
मैंने इसके लिए ट्रेनिंग हासिल की। हिमालय की एक चोटी पर फतह पाने के बाद तो मेरा हौसला बुलंद होता गया। अरुणिमा बताती हैं, मेरी मां का निधन हो चुका है, लेकिन खुश हूं कि मां ने मेरी सफलता को देखा, हालांकि अफसोस है कि पिता मेरी कामयाबी नहीं देख पाए। विश्व की पांच चोटियों पर अपने अदम्य साहस का परचम लहराकर मिसाल बन चुकी अरुणिमा सिन्हा ने सात चोटियों पर चढ़ने का संकल्प लिया था। इनमें से बीते वर्ष १५ अगस्त को करीब १७ हजार फीट ऊंचाई वाले स्विट्जरलैंड के रोसा पर्वत की चोटी पर वे तिरंगा फहराने के साथ पांच चोटियों पर सफलतापूर्वक चढ़ने का गौरव हासिल कर चुकी हैं। अरुणिमा ९ अगस्त को स्विट्जरलैंड पहुंची थी। अपने गाइड ओलावियर के साथ ट्रेनिंग और स्थलीय जानकारी लेने के बाद १३ अगस्त को उन्होंने चढ़ाई शुरू की। इस दौरान उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मौसम विपरीत रहा लेकिन उन्होंने अपने साहस को नहीं छोड़ा और चलती रहीं।
पद्म श्री सम्मान हासिल करने के बाद बीते वर्ष २९ अगस्त को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अरुणिमा को तेंजिंग नॉर्गे अवार्ड से सम्मानित किया। अरुणिमा के भाई राहुल सिन्हा ने बताया कि उसे अपनी बहन के साहस और सफलता पर नाज है। उसने अपने साधारण परिवार को खास बना दिया है।
आगे और क्या? इस सवाल पर अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, मैं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में पांच सिलाई-कढ़ाई सेण्टर चला रही हूं। पंडाटोला, मिझौड़ा, पहितीपुर, सोनगांव तथा डढ़िया में लड़कियों व महिलाओं को मुफ्त सिलाई कढ़ाई व डिजाइनिंग का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसका मकसद महिलाओं का जीवन स्तर सुधारना है। मैं चाहती हूं कि वे सबल बनें, साहसी बनें।
अरुणिमा सिन्हा की कहानी उनकी ही जुबानी
प्रश्न- एवरेस्ट फतह करने का मन आपने कब और क्यों बनाया?उत्तर- ट्रेन हादसे में हमने अपना पैर गंवा दिया था। अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर पूरा दिन रोते, हमें सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। यह मुझे मंजूर न था। पर मुझे जीना था, कुछ करना था। मैंने मन ही मन कुछ अलग करने की ठानी जो औरों के लिए एक मिसाल बने।
प्रश्न- क्या परिस्थितियां थीं उस समय?
उत्तर- मूलतः हम बिहार के रहने वाले थे। पिताजी फौज में थे जिस कारण हम लोग सुल्तानपुर आ गये। चार वर्ष की उम्र में पिता का स्वर्गवास हो गया। मां के साथ हम अम्बेडकर नगर पहुंचे वहां उन्हें स्वास्थ्य विभाग में नौकरी मिल गई। पर परिवार को चलाना अब भी मुश्किल था। फिर भी इण्टर के बाद एलएलबी की पढ़ाई की। खेलों में रुझान होने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबाल व फुटबाल में कई पुरस्कार जीते, लेकिन कुछ खास हाथ न लग सका। पर मेरा एक सपना था कुछ अलग करने का।
प्रश्न- क्या वह भयानक ट्रेन हादसा आज भी याद आता है?
उत्तर- वह रात मैं सारी उम्र नही भूल सकती। मैं दिल्ली जा रही थी। रात के लगभग दो बजे थे। चारों ओर सन्नाटा था कब मेरी आंख लगी कुछ पता न चला। तभी बरेली के पास कुछ बदमाश गाड़ी पर चढ़े। अकेला जान वे मेरी चेन छीनने लगे, मैंने भी डटकर उनका सामना किया। झपटा-झपटी के बीच उन लोगों ने मुझे ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे मेरा बांया पैर कट गया।
प्रश्न- बछेन्द्रीपाल से आपने ट्रेनिंग ली, कैसे पहुंचीं उन तक?
उत्तर- एम्स में इलाज के दौरान ही मैंने बछेन्द्रीपाल जी का मोबाइल नम्बर इण्टरनेट से प्राप्त किया। उनसे मैंने अपनी पूरी कहानी बतायी और कहा मैं एवरेस्ट पर चढ़ना चाहती हूं। उन्होंने मुझे जमशेदपुर बुलाया। फिर क्या था अगले ही पल मैं वहां थी। दो वर्ष तक मैंने उनसे ट्रेनिंग ली।
प्रश्न- हिमालय की चढ़ाई के दौरान कैसी चुनौतियां थीं?
उत्तर- ५२ दिनों की यात्रा हर पल रोमांच-खतरों और हौसलों की कहानी से भरी थी सबसे मुश्किल क्षण डेथ जोन एरिया खम्बू आइसलैण्ड का था। बर्फ की चट्टानों पर चढ़ाई करनी थी। सिर पर चमकता सूरज था। कब कौन सी चट्टान पिघल कर गिर जाए, अंदाजा लगाना मुश्किल था।
प्रश्न- माउंट एवरेस्टय पर लाशें देख कैसा लगा?
उत्तर- जब मैं माउंट एवरेस्ट पर चढ़ रही थी तभी पहले उसे पार करने की कवायद कर चुके आधा दर्जन से ज्यादा पर्वतारोहियों की सामने पड़ी लाशें रोंगटे खड़ी कर देती थीं। कभी बर्फ उन्हें ढंक देती कभी हवा के झोंके उन पर ढंकी बर्फ हटा देते। ऐसे मंजर का सामना मुश्किल था, लेकिन नामुमकिन नहीं।
प्रश्न- सब कह रहे थे वापस आ जाओ, फिर क्याम हुआ?
उत्तर- पर्वत पर चुनौतियों का सामना करना बहुत मुश्किल था। पर धैर्य नहीं खोया। इसी बीच मेरा आक्सीजन सिलेण्डर खत्म हो गया था। कैम्प से मेरे पास फोन आ रहे थे अरुणिमा तुम वापस आ जाओ जहां तक तुम पहुंची हो वो भी एक रिकार्ड है। पर मैंने तो मन्जिल को पाने की ठानी थी बीच से वापस कैसे आ जाती।
प्रश्न- युवाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?
उत्तर- मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि परिस्थितियां बदलती रहती हैं। पर हमें अपने लक्ष्य से भटकता नहीं चाहिये बल्कि उनका सामना करना चाहिये। जब मैं हॉकी स्टिक लेकर खेलने जाती तो मोहल्ले के लोग मुझ पर हंसते थे मेरा मजाक उड़ाते थे। शादी हुई और फिर तलाक पर मैंने हार नहीं मानी। बड़ी बहन व मेरी मां ने मेरा साथ दिया। हादसे के बाद मेरे जख्मों को कुरेदने वाले बहुत थे पर मरहम लगाने वाले बहुत कम। इतना कुछ होने के बाद भी मैंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। अन्ततः मुझे सफलता मिली।
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