Thursday, 12 May 2016

ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में महिला हाकी का सफर


मास्को ओलम्पिक के ठीक ३६ साल बाद भारत की बेटियां ब्राजील के रियो-डी-जेनेरियो  शहर में होने जा रहे ३१वें ओलम्पिक खेलों में पुश्तैनी खेल हाकी में मादरेवतन का मान बढ़ाने जा रही हैं। ओलम्पिक में शिरकत करना बड़ी बात है, खासकर इस लिहाज से जब हाकी में सिर्फ और सिर्फ दुनिया की १२ सर्वश्रेष्ठ टीमों को ही खेलने का मौका मिल रहा हो। हाल ही में भारतीय महिला हाकी टीम ने ब्रिटेन जाकर वहां उससे पांच मुकाबलों में दो-दो हाथ किए। नतीजा बेशक भारतीय टीम के पक्ष में नहीं रहा लेकिन इससे इस बात का पता तो चला कि हमारी बेटियां किस क्षेत्र में कमजोर हैं। रियो ओलम्पिक से ठीक पहले कोई भी टीम अपने सम्पूर्ण पत्ते नहीं खोलना चाहेगी, यह खेल की रणनीति का ही एक हिस्सा है। भारतीय महिला हाकी टीम का ऐलान होना अभी बाकी है। उम्मीद है कि जो भी टीम होगी, उसमें ग्वालियर में १० साल पहले खुली मध्यप्रदेश राज्य महिला हाकी एकेडमी की पांच से छह खिलाड़ी अवश्य होंगी। मध्यप्रदेश में महिला हाकी की जहां तक बात है, जबलपुर एक समय सुर्खियों में रहा। जबलपुर की अविनाश कौर और मधु यादव जैसी खिलाड़ियों ने देश का प्रतिनिधित्व कर प्रदेश का नाम रोशन किया। ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में महिला हाकी के सफर पर चर्चा करने से पहले श्रोताओं को भारतीय हाकी और दुनिया में महिला हाकी के अभ्युदय पर जानकारी होना भी जरूरी है।
आज हमारा देश क्रिकेट का दीवाना है किन्तु एक समय ऐसा भी था जब लोगों में हॉकी के लिए इससे भी ज्यादा दीवानगी थी। १९२८ से १९५६ तक के २८ साल के लम्बे अन्तराल तक भारतीय हॉकी दुनिया में सिरमौर रही। हॉकी की इसी उपलब्धि ने इस खेल को मुल्क के राष्ट्रीय खेल का गौरव दिलाया। यह ग्वालियर-चम्बल सम्भाग के लिए गर्व और गौरव की ही बात है कि भारतीय हॉकी फेडरेशन का गठन सन् १९२५ में ग्वालियर में ही हुआ। इसके बाद सन् १९२८ में भारतीय हॉकी फेडरेशन अंतरराष्ट्रीय हाकी महासंघ से जुड़ा। भारत अंतरराष्ट्रीय हाकी महासंघ से सम्बद्ध होने वाला पहला गैर यूरोपिन सदस्य देश है। जहां तक महिला हाकी की बात है, विक्टोरियाई शासन में खेलों में महिलाओं पर प्रतिबंध होने के बावजूद महिलाओं में हॉकी की लोकप्रियता चरम पर थी। महिला हाकी के इतिहास को देखें तो १८९५ से ही महिला टीमें नियमित रूप से सद्भावना मुकाबलों में भाग लेती रहीं, लेकिन इनके बीच अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की शुरुआत १९७० के दशक तक नहीं हुई थी। १९७४ में हॉकी का पहला महिला विश्व कप आयोजित किया गया और १९८० में पहली बार महिला हॉकी ओलम्पिक खेलों में शामिल की गई। इसे संयोग ही कहेंगे कि भारतीय महिला हाकी टीम भी १९८० मास्को ओलम्पिक में पहली बार खेली थी। इसी साल अगस्त महीने में होने जा रहे ३१वें रियो ओलम्पिक खेलों में वह दूसरी बार शिरकत करेगी। महिला हाकी संगठन की जहां तक बात है, १९२७ में अंतरराष्ट्रीय नियामक संस्था यानि इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ वूमेंस हॉकी एसोसिएशन का गठन हुआ।
भारत और हाकी एक-दूसरे के पूरक हैं। सन १९२८ के एम्सटर्डम ओलम्पिक से शुरू हुआ भारतीय हॉकी का सुनहरा सफर १९५६ के मेलबोर्न ओलम्पिक तक बेरोकटोक जारी रहा। ओलम्पिक खेलों में भारत ने जो २६ पदक जीते, इनमें ११ पदक तो अकेली हाकी के हैं। ओलम्पिक खेलों में भारत ने हॉकी में अब तक आठ स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य पदक जीते हैं। वर्ष १९२८ के एम्सटर्डम ओलम्पिक में भारत ने पहली बार स्वर्ण पदक हासिल किया जबकि आखिरी स्वर्ण पदक भारत की झोली में १९८० मास्को ओलम्पिक में आया था। १९२८ से लेकर १९५६ तक भारतीय हॉकी ने लगातार छह स्वर्ण पदक जीते थे। उस दौरान ओलम्पिक में भारत ने २४ मैच खेले और सभी में जीत हासिल की। एशिया महाद्वीप की तरफ से पहला स्वर्ण पदक जीतने का श्रेय भी भारतीय हाकी को है। भारतीय हाकी टीम ने यह करिश्मा दद्दा ध्यानचंद की अगुआई में १९२८ के ओलम्पिक में अंजाम दिया था। हाकी की जहां तक बात है, कालजयी दद्दा ध्यानचंद को इस खेल का जादूगर माना जाता है। जो स्थान फुटबाल में पेले का है वही स्थान हॉकी में मेजर ध्यानचंद का है। दद्दा ध्यानचंद ने १९२६ से १९४८ के बीच प्रतिद्वन्द्वी टीमों पर हजारों गोल दागे। दद्दा के इसी करिश्माई खेल से प्रभावित होने के बाद उनके सम्मान में वियेना के एक स्पोर्ट्स क्लब ने उनकी एक प्रतिमा स्थापित की,  जिसमें ध्यानचंद के चार हाथों में चार हॉकी थमाई गईं। यह प्रतिमा इस बात का प्रतीक है कि ध्यानचंद के अलावा कोई अन्य व्यक्ति दो हाथों और एक स्टिक से ऐसा कौशल दिखा ही नहीं सकता। देखा जाए तो अंग्रेजों ने ही भारत में क्रिकेट और हॉकी खेलों को स्थापित किया। जहाँ क्रिकेट में इंग्लैंड को हराने के लिए भारत को २० वर्ष और १५ मैचों तक इंतजार करना पड़ा वहीं हॉकी में भारत को हराने के लिए इंग्लैंड को ३७ वर्ष में २२ मैच खेलने पड़े। उल्लेखनीय है कि क्रिकेट में भारत ने इंग्लैंड को पहली बार १९५२ के चेन्नई टेस्ट मैच में हराया था वहीं हॉकी में इंग्लैंड ने भारत को १९८५ में पर्थ में हुई चैम्पियन्स ट्रॉफी हाकी में पहली बार २-१ गोल से पराजित किया था।
परिवर्तन प्रकृति का नियम ही नहीं मनुष्य के लिए एक चुनौती भी है। जो चुनौतियों से पार पाता है वही सिकंदर कहलाता है। दुनिया में पुरुष हाकी की वर्णमाला जहां भारत के बिना पूरी नहीं होती वहीं भारतीय हाकी में ग्वालियर के बिना भी यह काम अधूरा नजर आता है। कैप्टन रूप सिंह, शिवाजी राव पंवार, हसरत कुरैशी, शिवेन्द्र सिंह चौधरी के बाद आज अरमान कुरैशी पर सबकी नजरें हैं। बीते १० साल में मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने खेलों के समुन्नत विकास की चुनौती स्वीकारी है। हाकी, खासकर महिला हाकी के अभ्युदय का काम २००६ में खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने अपने हाथ लिया था। उन्होंने पुरुष हाकी के लिए भोपाल तो महिला हाकी के लिए ग्वालियर को चुना। महिला हॉकी के उत्थान की दिशा में शिवराज सिंह और यशोधरा राजे सिंधिया ने एक मील का पत्थर स्थापित किया है।
१० साल पहले दूसरे राज्यों की प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के सहारे मध्यप्रदेश में चला हॉकी का कारवां आहिस्ते.आहिस्ते ही सही अपनी मंजिल की ओर अग्रसर है। ग्वालियर के जिला खेल परिसर कम्पू में स्थापित देश की सर्वश्रेष्ठ महिला हॉकी एकेडमी खिलाड़ियों की प्रथम पाठशाला ही नहीं आज ऐसी वर्णमाला है जिसके बिना महिला हॉकी की बात ही पूरी नहीं होती। सच कहें तो यह खेलों की ऐसी कम्पनी है जहां खिलाड़ी का खेल-कौशल ही नहीं निखरता बल्कि उसका जीवन भी संवरता है। १० साल में इस एकेडमी ने मुल्क को जहां दर्जनों नायाब खिलाड़ी दिए वहीं तीन दर्जन से अधिक बेटियों को रेलवे में रोजगार भी मिला। इनमें आधा दर्जन बेटियां मध्यप्रदेश की हैं।
प्रतिद्वंद्विता सफलता का मूलमंत्र है। जिस ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में १० साल पहले एक भी महिला हाकी खिलाड़ी नहीं थी वहां आज दर्जनों राष्ट्रीय तो लगभग आधा दर्जन खिलाड़ी भारतीय टीम की चौखट पर दस्तक देने को आतुर हैं। ग्वालियर की करिश्मा यादव ग्वालियर-चम्बल सम्भाग की पहली अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी है। इसी शहर की नेहा सिंह भी भारतीय प्रशिक्षण शिविर में शिरकत कर चुकी है। २००६ में ग्वालियर में स्थापित महिला हाकी एकेडमी से पूर्व यहां तीन राष्ट्रीय महिला हाकी प्रतियोगिताएं तो हुई थीं लेकिन उनमें इस अंचल की किसी भी बेटी को सहभागिता का मौका नहीं मिला था। महिला हॉकी की बात करें तो आज ग्वालियर अंचल की कई प्रतिभाशाली जूनियर और सब जूनियर बेटियां राष्ट्रीय क्षितिज पर अपने गौरवशाली भविष्य की आहट दे रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर जीते गये दर्जनों खिताब इसी बात का सूचक हैं कि यहां हाकी बेटियों को मुकम्मल सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं।
२००६ में ग्वालियर में स्थापित महिला हाकी एकेडमी की पहली प्रशिक्षक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी अविनाश कौर सिद्धू को बनाया गया था। एकेडमी का आगाज लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान से हुआ। उसके बाद जिला खेल परिसर कम्पू में फ्लड-लाइटयुक्त कृत्रिम हाकी मैदान आबाद हुआ। ग्वालियर की प्रतिभाओं को भी मौका मिले इसके लिए सरकार ने जिला खेल परिसर कम्पू के साथ-साथ दर्पण मिनी स्टेडियम का भी कायाकल्प किया। यही वह मैदान है जिसमें पहली दफा ग्वालियर की बेटियों को हाकी का ककहरा सीखने का मौका मिला। बेटियों की प्रतिभा निखारने का दुरूह काम प्रशिक्षक अविनाश भटनागर (एनआईएस) के कंधों पर डाला गया। प्रशिक्षक भटनागर ने इस काम को सही अंजाम देकर यह सिद्ध किया कि लगन और मेहनत से काम हो तो एकेडमी को बाहरी खिलाड़ियों की जरूरत ही न पड़े। इसे खुशकिस्मती ही कहेंगे, आज एकेडमी में प्रशिक्षणरत करिश्मा यादव, नेहा सिंह, नीरज राणा, प्रतिभा आर्य और राखी प्रजापति सहित दर्जनों बेटियां दर्पण मैदान का ही दर्पण हैं।
अविनाश भटनागर फिलवक्त मुरैना के उत्कृष्ट उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-एक में जहां हाकी बेटियों की पौध तैयार कर रहे हैं वहीं दर्पण मैदान पर अब अतीत की राष्ट्रीय हाकी खिलाड़ी संगीता दीक्षित बेटियों को पुश्तैनी खेल हाकी में दक्ष कर रही हैं। अंचल के दो अन्य जिलों शिवपुरी और गुना में भी अब महिला हाकी परवान चढ़ रही है। शिवपुरी के श्रीमंत माधव राव सिंधिया जिला खेल परिसर में जहां गीता लखेरा बेटियों को हाकी के गुर सिखा रही हैं वहीं गुना के संजय गांधी खेल परिसर में सुनीता कंवर महिला हाकी के उत्थान को जी-जान से लगी हैं। यह सुखद है कि महिला हाकी के इतिहास में पहली बार मध्यप्रदेश सरकार द्वारा ग्वालियर की दो बेटियों करिश्मा यादव और नेहा सिंह को एकलव्य अवार्ड से नवाजा गया। बीते महीने बेंगलूर में हुई सीनियर राष्ट्रीय महिला हाकी प्रतियोगिता में मध्यप्रदेश की बेटियों ने कांस्य पदक से अपने गले सजाये। कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में मध्यप्रदेश ने उड़ीसा को २-१ से पराजित किया। इस मैच में पहला गोल ग्वालियर की ही करिश्मा यादव तो विजयी गोल इसी शहर की इशिता चौधरी ने दागा।
कल तक मध्यप्रदेश की महिला हॉकी पर बात न करने वाले राज्य भी आज मध्यप्रदेश की तरफ ताक रहे हैं। आज मध्यप्रदेश की १-२ बेटियां नहीं बल्कि लगभग तीन दर्जन प्रतिभाशाली लाड़लियां दूसरे राज्यों को ललकार रही हैं। इनकी इस ललकार में दम न होता तो वे राष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों बार चैम्पियन न बनतीं। मध्यप्रदेश की ये बेटियां अपने राज्य के साथ हिन्दुस्तान का भी स्वर्णिम भविष्य हैं। कुछ बेटियां टीम इण्डिया के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी हैं तो कुछ के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। जुलाई, २००६ में ग्वालियर में खुली राज्य महिला हॉकी एकेडमी के शुरूआती दो साल तक मध्यप्रदेश में प्रतिभाओं का अकाल सा था। तब लग रहा था कि आखिर प्रदेश किराये की कोख से कब तक काम चलाएगा। अब यह बात नहीं है। शिवराज सिंह की महत्वाकांक्षी हॉकी फीडर सेण्टर योजना का लाभ भोपाल में स्थापित पुरुष हॉकी एकेडमी को बेशक न मिला हो पर इससे महिला हॉकी एकेडमी जरूर धन्य हुई है। इस एकेडमी में अब अंचल की बेटियां न सिर्फ प्रवेश पा रही हैं बल्कि दूसरे राज्यों की खिल्ली भी उड़ा रही हैं। इस सफलता में ग्वालियर के दर्पण मिनी स्टेडियम का सर्वाधिक योगदान है। मध्यप्रदेश की इस आशातीत सफलता से हरियाणा, पंजाब, उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश आदि को रश्क हो रहा है। इन राज्यों की समझ में ही नहीं आ रहा कि अनायास मध्यप्रदेश महिला हॉकी का गढ़ कैसे बन गया।
इन १० वर्षों में मध्यप्रदेश की हॉकी बेहतरी में कुछ ऐसे लोगों का भी योगदान है जोकि राष्ट्रीय स्तर पर बेशक बड़े गुरुज्ञानी न माने जाते हों पर उन्होंने इस खेल की बेहतरी के लिए दिन-रात एक कर साबित किया कि मेहनत से कुछ भी हासिल करना सम्भव है। मध्यप्रदेश राज्य महिला हाकी एकेडमी में बतौर प्रशिक्षक अविनाश कौर सिद्धू, पूबालन, द्रोणाचार्य अवार्डी गुरुदयाल सिंह भंगू अपनी सेवाएं दे चुके हैं। अब यह गुरुतर कार्य कभी भारतीय महिला हाकी टीम के प्रशिक्षक रहे महाराज किशन कौशिक और परमजीत सिंह बरार के हाथों में है। परमजीत वह शख्स हैं जिन्होंने मुश्किल हालातों में भी कभी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने स्थानीय खिलाड़ियों के महत्व को न केवल स्वीकारा बल्कि कोशिश की कि मध्यप्रदेश की बेटियां हर आयु वर्ग में राष्ट्रीय चैम्पियन बनें। टीम इण्डिया के दरवाजे पर दस्तक देने वाली ग्वालियर की करिश्मा यादव, नेहा सिंह के साथ ही साथ भोपाल की डिफेण्डर सीमा वर्मा भी आज देश की उदीयमान खिलाड़ियों में शुमार हैं। ग्वालियर की करिश्मा यादव, नेहा सिंह, स्नेहा सिंह, राखी प्रजापति, प्रतिभा आर्य, इशिका चौधरी, कृतिका चंद्रा, नंदनी कुशवाह, दिव्या थेटे, निशा रजक, योगिता वर्मा उर्फ मुस्कान, अनुजा सिंह, अंजली मुड़ैया आदि बेटियों के करिश्माई प्रदर्शन को देखते हुए उम्मीद जगी है कि महिला हाकी में आने वाला कल ग्वालियर-चम्बल सम्भाग का होगा।
देखा जाए तो ग्वालियर में यदि महिला हाकी एकेडमी न होती तो मध्यप्रदेश की रैना यादव, जहान आरा बानो, निहारिका सक्सेना, रीना राठौर, प्रीति पटेल जैसी हाकी बेटियां कहीं गुमनामी के अंधेरे में ही खो गई होतीं। मध्यप्रदेश में खेलों के कायाकल्प की वह दिन-तारीख आज भी मेरे जेहन में है। जिला खेल परिसर कम्पू में ३१ मार्च, २००६ को तत्कालीन खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने हाकी को लेकर कई घोषणाएं की थीं। उस समय उनकी कही बातों पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन आज खेलों में मध्यप्रदेश जिस मुकाम पर है उसका सारा श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और ग्वालियर की बिटिया यशोधरा राजे सिंधिया को ही जाता है। सच कहें तो खेलों में जो नजीर मध्यप्रदेश ने पेश की, उसका अन्य राज्यों में बेहद अभाव है। मध्यप्रदेश आज सुधारवादी और खिलाड़ी हितैषी नजरिया लेकर चल रहा है, जिसका लाभ मध्यप्रदेश ही नहीं देश के दूसरे राज्यों की प्रतिभाएं भी उठा रही हैं। अकेले मध्यप्रदेश में जितने कृत्रिम हॉकी मैदान हैं उतने तो सम्पूर्ण देश में भी नहीं हैं। 

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