Friday 6 February 2015

तमाशा बने राष्ट्रीय खेल


केरल में लम्बी जद्दोजहद के बाद 35वें राष्ट्रीय खेलों का आगाज तो हो चुका है लेकिन नामचीन खिलाड़ियों की अरुचि, आयोजकों की सहखर्ची और खेलनहारों की हद दर्जे की बेईमानी से राष्ट्रीय खेल महोत्सव तमाशा बन गया है। अगले साल होने वाले रियो ओलम्पिक खेलों को देखते हुए उम्मीद थी कि प्रतिस्पर्द्धाएं सलीके से होंगी और खिलाड़ी पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का आगाज करेंगे, पर केरल में ऐसा कुछ भी नजर नहीं आ रहा। अपनों से हार जाने के डर ने जहां खेलों के राष्ट्रीय मंच को बेरौनक कर दिया है वहीं खेलगांव से लेकर मैदानों तक खिलाड़ी बदइंतजामी का रोना रो रहे हैं।
भारतीय खेलों में बेईमानी, भाई-भतीजावाद और खेल संघों की गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। गुटबाजी के चलते कराटेबाज जहां एशियाड का टिकट पाने से वंचित हो गये थे वहीं राष्ट्रीय खेलों में भी उनके साथ सौतेला व्यवहार ही हुआ। पदकों की खातिर मध्यप्रदेश ने बाहरी राज्यों के खिलाड़ियों को पैसे का प्रलोभन देकर एक गलत परम्परा का श्रीगणेश किया है। भारतीय ओलम्पिक संघ, भारत सरकार और भारतीय खेल प्राधिकरण के बीच तारतम्य के अभाव में न केवल नियम-कायदों का चीरहरण हो रहा है बल्कि विजेता खिलाड़ी पदकों से भी वंचित हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल की उदीयमान जिमनास्ट प्रणति नायक का मध्यप्रदेश के लिए खेलना और रजत पदक से वंचित होना भारतीय खेलों का शर्मनाक पहलू है। उम्मीद थी कि सचिन तेंदुलकर के जुड़ने से राष्ट्रीय खेलों को एक अलग पहचान मिलेगी पर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों की अनिच्छा ने इन खेलों की उपयोगिता पर ही बड़े सवाल पैदा कर दिए हैं। भारत में राष्ट्रीय खेलों की जहां तक बात है, इनका आगाज 1924 में मद्रास में हुआ था। 1954 में दिल्ली में हुए सोलहवें राष्ट्रीय खेल महोत्सव को छोड़ दें तो मद्रास ने 1999 तक 29 बार इन खेलों की मेजबानी की है। 1924 से 1970 तक यह खेल हर दो साल के तय मानक पर होते रहे, उसके बाद भारतीय खेलों को राजनीतिज्ञों की नजर लगते ही इनका बंटाढार हो गया। खेल संघों में सफेदपोशों को इस गरज से प्रवेश दिया गया कि इनके प्रोत्साहन से खिलाड़ियों को सुविधाएं और अधिकाधिक खेल के अवसर मिलेंगे, पर ऐसा होने की बजाय खिलाड़ी बेजार, बेकार तथा लाचार हो गया। खेलों में राजनीतिज्ञों की चौधराहट से सिर्फ खिलाड़ी ही नहीं सरकार भी हलाकान है। भारत में खेलों का कोई माई-बाप नहीं है। खेल महासंघों के पदाधिकारी सरकारी नियम-कायदों को जहां रत्ती भर तवज्जो नहीं देते वहीं खिलाड़ी भी मतलबपरस्त हो गया है। राजनीतिज्ञों के लिए खेलों की सल्तनत उनके बुरे वक्त का ठौर-ठिकाना है। यही वह जगह है जहां उन्हें कभी कोई पराजित नहीं कर सकता। सत्ता और लूट-खसोट की घमासान के चलते ही कराटे, बॉडी बिल्डिंग, ताइक्वांडो और मुक्केबाजी जैसे लोकप्रिय खेलों के खिलाड़ी आज खून के आंसू रो रहे हैं। खेलों के रक्षक ही उसके भक्षक बन गये हैं। खेलों में आज जो हो रहा है, कालांतर में उसके बीज भारतीय ओलम्पिक संघ के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी, महासचिव राजा रणधीर सिंह और ललित भनोट जैसों ने अपनी चौधराहट बरकरार रखने को ही बोए थे। बॉडी बिल्डिंग में कभी भारत का नाम था। मनोहर आइच, मोंतोष राय और प्रेमचंद डोगरा जैसे मिस्टर यूनिवर्स पैदा करने वाला देश अब कहीं का नहीं रहा। देश में जो बॉडी बिल्डर हैं भी, उन्हें दुनिया शक की नजर से देख रही है। कारण, हमारे बॉडी बिल्डर नशेबाजी की गिरफ्त में हैं। हॉकी इण्डिया और हॉकी फेडरेशन के टकराव ने पुश्तैनी खेल हॉकी को बर्बाद कर दिया है। एक तरफ राष्ट्रीय खेल हो रहे हैं तो दूसरी तरफ हीरो हॉकी इण्डिया लीग परवान चढ़ रही है। आखिर यह तमाशा किसकी शह पर हो रहा है? देखा जाए तो भारत मुक्केबाजी में एक बड़ी शक्ति बनने की राह चल रहा था, पर भारतीय ओलम्पिक संघ और बॉक्सिंग इण्डिया के बीच ठनी रार ने मुक्कों की ताकत इतनी कम कर दी कि राष्ट्रीय खेलों में नामवर बॉक्सर उतरे ही नहीं। 35वें राष्ट्रीय खेलों की तिथि पहले से ही तय थी बावजूद इसके लगभग तीन साल बाद इनका आयोजन किया जा रहा है। इससे साफ-साफ पता चलता है कि भारत अपने घरेलू खेल महोत्सव को लेकर कितना गम्भीर है और जिस राज्य में इसका आयोजन होता है, वह भी कितनी सजगता से इसकी जिम्मेदारी लेते हैं। सच तो यह है कि केरल में कुछ स्पर्द्धाओं की तैयारियां भी मुकम्मल नहीं थीं, पर जैसे-तैसे आयोजन को कामयाब बनाने की जद्दोजहद जारी है। केरल 1987 में भी इन खेलों का आयोजन कर चुका है। केरल में हो रहे राष्ट्रीय खेलों की 33 स्पर्द्धाओं में 414 स्वर्ण, 414 रजत और 541 कांस्य पदक सहित कुल 1369 पदक दांव पर लगे हैं। इनमें सर्वाधिक 150 पदक तैराकी, 132 पदक एथलेटिक्स, 114 पदक निशानेबाजी तथा 76 पदक कुश्ती में हैं। इन खेलों का सिरमौर कौन होगा, यह भविष्य के गर्भ में है, पर अब तक के खेल-कौशल को देखते हुए सर्विसेज स्पोर्ट्स कंट्रोल बोर्ड, हरियाणा और महाराष्ट्र की दावेदारी सबसे मजबूत दिख रही है। भारत खेलों में तरक्की की लाख बातें करता हो पर एथलेटिक्स में आज भी कई रिकॉर्ड अटूट हैं। मैराथन में शिवनाथ सिंह का 1978 में जालंधर में बनाया रिकॉर्ड, 1976 में मांट्रियल ओलम्पिक में श्रीराम सिंह का 800 मीटर दौड़ का रिकॉर्ड, 1998 में बैंकॉक एशियाई खेलों में पुरुषों का चार गुना चार सौ मीटर रिले का रिकॉर्ड, 1995 में चेन्नई में 1500 मीटर में बहादुर प्रसाद और साल 2005 में दिल्ली में अनिल कुमार तथा इसी साल दिल्ली में ही अब्दुल नजीम कुरैशी के 100 मीटर दौड़ के रिकॉर्ड अब तक नहीं टूटे हैं। राष्ट्रीय खेलों में बदइंतजामी को लेकर भी उंगली उठी हैं। उड़नपरी पीटी ऊषा, भारतीय खेल प्राधिकरण के पूर्व महानिदेशक जिजी थामसन और कुश्ती महासंघ के पदाधिकारियों ने आयोजकों पर खिलाड़ियों को सुविधाएं मयस्सर कराने की बजाय देश का पैसा फिजूल के कार्यों में खर्च करने का आरोप लगाया है। एक तरफ भारतीय खेल मंत्रालय अपनी महत्वाकांक्षी योजना टारगेट ओलम्पिक पोडियम स्कीम (टॉप्स) को जल्द से जल्द धरातल में उतारने की सोच रहा है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय खेल नामचीन खिलाड़ियों के बिना परवान चढ़ रहे हैं। खेल सचिव और भारतीय खेल प्राधिकरण के महानिदेशक अजीत मोहन शरण ने नामवर खिलाड़ियों के नहीं खेलने पर खेद जताते हुए कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए, यह वाकई दु:खद है।

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