Wednesday 11 February 2015

‘मफलरवाला’ ही निकला नसीबवाला

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने एक बार फिर समूचे विश्व के सामने अपनी ‘परिपक्वता’ का सबूत देकर यह जता दिया कि जहां लोक बड़ा होता है, वहां सब कुछ गौण होता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने देश-दुनिया को इस तरह चौंकाया है जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी, खुद अरविंद केजरीवाल ने भी नहीं सोचा होगा कि वह इस तरह छा जाएंगे।
दिल्ली के नतीजे अप्रत्याशित नहीं थे, लेकिन चौंकाने वाले जरूर साबित हुए। अब दिल्ली विधानसभा का नजारा ही बिल्कुल उलट होगा। भले ही दिल्ली कांग्रेस से मुक्त हो गई है लेकिन इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि आम आदमी पार्टी कल कांग्रेस का विकल्प तो नहीं बन जाएगी?अब यह वक्त निश्चित रूप से विश्लेषण का है, खुद आम आदमी पार्टी के लिए भी और उससे ज्यादा भाजपा के लिए। दिल्ली ने एक नया इतिहास रच दिया और इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि देश की नब्ज दिल्ली में ही धड़कती है या यूं कहा जाए कि दिल्ली की नब्ज ही देश की धड़कन है।
लगता है, अब दिल्ली की जनता को ही विपक्ष की भूमिका निभानी होगी, क्योंकि कल तक कांग्रेस को विपक्ष की भूमिका के लिए नकारा मानने वाली भाजपा आज खुद उसी कटघरे में आ खड़ी हुई है। यह सब अप्रत्याशित था। अन्ना हजारे के आंदोलन से उपजे अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी के एक-दूसरे के सामने आ जाने का जवाब दिल्ली के मतदाताओं ने कुछ इस अंदाज में दिया कि राजनीति के चाणक्यों को जबरदस्त मात खानी पड़ी। सारा गुणा-भाग धरा का धरा रह गया। राजनीति के सारे अंकगणित को मतदाताओं के बीजगणित ने झुठला दिया और बता दिया कि भारतीय मतदाता न केवल बेहद समझदार है, बल्कि वह सबक सिखाने में जरा भी देर नहीं करता। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत ने जहां नरेंद्र मोदी के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को न केवल रोक लिया, बल्कि सिक्किम में रचे गए 1989 के विधानसभा चुनाव की याद दिला दी जहां पर तब ‘सिक्किम संग्राम परिषद’ ने सभी 32 विधानसभा सीटों पर एकतरफा जीत हासिल की थी। लेकिन आम आदमी पार्टी की इस जीत को उससे बड़ी इसलिए माना जा रहा है, क्योंकि दिल्ली को ‘मिनी इंडिया’ कहा जाता है और यह माना जाता है कि दिल्ली के चुनाव एक तरह से देश की राजनीति के लिए बैरोमीटर का काम करता है। आंकड़ों की बाजीगरी के लिहाज से भले ही भाजपा इस बात से संतोष कर ले कि उसे प्राप्त वोटों का प्रतिशत ज्यादा कम नहीं हुआ है। इस बार भी भाजपा को लगभग 32.2 प्रतिशत मत हासिल हुए हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी के वोटों में जबरदस्त इजाफा हुआ है और उसे लगभग 54.3 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं जो कि एक रिकार्ड भी है।
इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली का जागरूक मतदाता एक-एक वोट का महत्व जानता था और उसने कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया। इस तरह 1951 के बाद से कांग्रेस का यह सबसे बुरा प्रदर्शन रहा है। पिछले चुनाव में कांग्रेस को लगभग 20 प्रतिशत वोट मिले थे जो कि इस बार मात्र 9.7 प्रतिशत पर ही सिमट कर रह गए। भाजपा के लिए सबसे बड़े झटके की बात मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव से 17 दिन पूर्व ही प्रोजेक्ट की गई किरण बेदी की हार है जिनके लिए दिल्ली की सबसे सुरक्षित सीट को तलाशा गया था और वहां से भाजपा 1993 से लगातार जीतती आई थी। एक तरह से यह आत्मचिंतन और मंथन का समय है, जब अपनी ही धुन में और बंद कमरों में राजनीति की बिसात और गुणा-भाग करने वाले हर नेता को सोचना होगा कि मैदानी हकीकत जाने बिना किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना कितना घातक होता है। दिल्ली के इन चुनावों ने देश में एक नई बहस शुरू कर दी है और इतना तो साफ हो गया है कि मतदाताओं को कम आंकने वालों को अब सोचना ही होगा। राजनीति में शुचिता की बात के महत्व को स्वीकारना होगा तथा दंभ और अहं से भी बचना होगा। इसके साथ ही दिल्ली के मतदाताओं ने भले ही भाजपा को तीन सीटों पर लाकर समेट दिया हो, लेकिन एक संदेश यह भी दे दिया है कि उसका भरोसा दो दलों पर ही है यानी टक्कर आमने-सामने की है। यह संदेश सारे देश में असर डाल सकता है।
इन परिणामों ने गठबंधनों की आड़ में राजनीति करने वालों का भी रक्तचाप बढ़ा दिया है, क्योंकि दिल्ली में समूचे भारत के लोग रहते हैं और इन नतीजों का असर दूर तलक जाएगा। जब बात नतीजों और देश की धड़कन की निकलेगी तो चर्चा नसीब पर भी होगी। यहीं एक चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी ने खुद को ‘नसीबवाला’ बताया था और जब नतीजे आए तो मफलरवाला ही नसीबवाला निकला। राजनीति में बड़बोलापन, वादाखिलाफी और सरकार के क्रियाकलापों पर मतदाता किस तरह से और कितनी पैनी निगाह रखता है और बड़ी ही खामोशी से अपने वक्त का इंतजार करता है, यह दिल्ली विधानसभा के इन नतीजों से समझा जा सकता है। मतदाताओं को बौना समझने वालों को दिल्ली के चुनाव परिणामों ने खुद बौना बना दिया है। विरोधों, अंतर्विरोधों और लोक से रूबरू हुए बिना तंत्र को साधने वालों के लिए अब भी होश में आने का वक्त बचा है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आगे अपने तंत्र को फैलाने वालों के सारे मंत्र यूं ही खाली जाएंगे और फिर सिवाय हाथ मलने के कुछ नहीं रह जाएगा। बहुत से विद्यालयों में पढ़ी जाने वाली दैनिक प्रार्थना की ये पंक्तियां शायद आज राजनीतिज्ञों के लिए सबसे अहम होगी ‘छल द्वेष दंभ पाखंड झूठ अन्याय से निसि दिन दूर रहें, जीवन हो शुद्ध सरल अपना सुचि प्रेम सुधा रस बरसाए,... निज आन मान मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे’।

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