दिल्ली की अकल्पनीय पराजय के बाद कमल दल सकते में है। मोदी मैजिक के सहारे चक्रवर्ती बनने का सपना टूटते ही अब भाजपा उनके परिधानों की नीलामी का फंडा आजमा रही है। इससे देश की आवाम को क्या हासिल होगा, यह तो राम जानें पर भारतीय राजनीति में प्रयोगधर्मिता और चाटुकारिता का नया स्वांग अबूझ पहेली जरूर बन गया है। हिन्दुस्तान अब सिर्फ गांवों का ही नहीं बल्कि गगनचुम्बी इमारतों, फ्लाईओवर, शॉपिंग मालों से दमकते महानगरों का भी देश है। अफसोस विकास से दूर, मद में चूर हमारी सल्तनतों को इस बात का इल्म ही नहीं है कि भारत गरीबों का देश है, जहां आज भी कई करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। उन्हें दो वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है।
भारत लोकतांत्रिक देश है, जहां एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है। भारत में राजतंत्र कायम है, जहां प्रधानमंत्री चक्रवर्ती राजा की तरह है, जो दस लाख का सूट पहनता है और सियासत की खातिर उस गांधी का नाम लेता है, जो भारतीय गरीबों के कारण अधनंगा फकीर बना रहा। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति, उसकी धार्मिक, भाषायी और सामाजिक विविधता गैर मुल्कों के लिए आज भी अबूझ पहेली है। विदेशियों की दिलचस्पी इस बात में हमेशा रही है कि इतनी विविधताओं वाले देश हिन्दुस्तान में एकता कैसे कायम रहती है। अब शायद उनकी जिज्ञासा इस बात में भी हो कि भारत में किस किस्म की आर्थिक असमानता है। भारतीय संविधान में भले ही सबको बराबरी का अधिकार मिला हो, पर अर्थतंत्र के बाजारवाद ने संवैधानिक भावनाओं के साथ क्रूर मजाक किया है। प्रधानमंत्री मोदी के परिधानों की नीलामी के स्वांग से न ही मुल्क की विविधता दूर होगी और न ही इससे नमामि गंगे का उद्धार होने वाला है।
लोकसभा चुनाव के समय मोदी ने अपने आपको एक जनसेवक के रूप में पेश किया था। वह जानते हैं कि मुल्क असमानता की राह चल रहा है। करोड़ों भारतीयों के पास न तो तन ढंकने को कपड़ा है और न ही दो वक्त की रोटी। जनमानस को उम्मीद थी कि मोदी के सल्तनत सम्हालते ही देश से भ्रष्टाचार छूमंतर हो जाएगा, राजनीतिज्ञों की शाहखर्ची पर लगाम लगेगी और सबका विकास होगा, पर 10 माह के उनके शासनकाल में कोई बड़ा बदलाव नजर नहीं आया। गरीबी आज भी मुंह चिढ़ा रही है। दिल्ली चुनाव हारने के बाद उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके सिपहसालार जनसेवा और देशहित के कामों को वरीयता देंगे, अफसोस वे परिधानों की नीलामी के बेहूदा प्रयोग में मदमस्त हैं। नरेन्द्र मोदी की जहां तक बात है, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए जब उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा ने अपना चेहरा बनाया तो लोगों की पहली नजर उनके पहनावे पर ही गई थी। उनका चूड़ीदार कुर्ता, जैकेट, कभी सिर पर साफा, कभी कंधे पर पड़ी शॉल, इन सबको उनके प्रचारकों ने अपने अंदाज में बिना कुछ कहे पेश किया। टेलीविजन पर जब वे दिखें तो किस कोण से बेहतर लगेंगे, मंच पर जब हों तो उन्हें कैसे जाना चाहिए, अमेरिका यात्रा में उनका पहनावा क्या हो, जापान और आस्ट्रेलिया में क्या हो, हर बात का बारीकी से ध्यान रखा गया। समय के अनुकूल उनके परिधानों के रंग भी बदलते रहे। कभी केसरिया, कभी हरा, कभी भूरा तो कभी गाढ़े नीले रंग में मोदी नजर आये। जो भी हो अब मोदी के रंग में भंग पड़ता दिख रहा है। भारत युवाओं का देश है। भारतीय जनता पार्टी जानती है कि युवा तरुणाई के बिना सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता, इसी वजह से उसने सारा तामझाम देश के युवाओं को आकर्षित करने के लिए किया था। इसमें दो राय नहीं कि युवाओं पर मोदी का जमकर जादू चला पर बुजुर्ग हाशिए पर चले गये। मोदी भी युवा नहीं हैं, लेकिन बेकाबू युवाओं पर कैसे काबू पाना है, उन्हें पता है। मोदी हों या कोई और, जोश भरी बातों और फैशनेबल कपड़ों से बहुत दिनों तक जनमानस को झांसे में नहीं रखा जा सकता। इस बात का अहसास कमल दल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके फैशन डिजाइनरों को तब हुआ जब वे मफलरबाज और पतलून के बाहर आधी बाजू की शर्ट पहनने वाले अरविंद केजरीवाल से दिल्ली चुनावों में बुरी तरह मात खा गए।
बराक ओबामा की भारत यात्रा पर अपना नामधारी सूट पहन कर बेशक नरेन्द्र मोदी को थोड़ी-बहुत संतुष्टि मिली होगी, पर उनका महंगा लाखिया सूट और आडम्बर भारतीय जनमानस को कतई रास नहीं आया। भारतीय राजनीति में अकेले नरेन्द्र मोदी ही नहीं कभी बसपा सुप्रीमो मायावती भी अपने धन-वैभव का खुला प्रदर्शन करने में यकीन रखती रही हैं, लेकिन उनके समर्थकों का मोहभंग उनसे कभी नहीं हुआ, बल्कि वे प्रसन्न होते थे कि एक दलित की बेटी अपना जन्मदिन सवर्णों की तरह शान से मना रही है। कमल दल को अफसोस होगा कि मोदीजी के मामले में ऐसा समीकरण फिट क्यों नहीं बैठा। आम चुनाव के वक्त अपने चायवाला होने का जिक्र मोदीजी ने खूब किया था। तब मोदी के उन लफ्जों और उनकी छवि पर गरीब परवरदिगारों को यकीन था कि मुल्क की सल्तनत पर काबिज होने के बाद यह चायवाला गरीबों का हमदर्द साबित होगा। धीरे-धीरे ही सही देश से गरीबी जरूर दूर होगी, पर ऐसा नहीं हुआ। अब तो जो लोग मोदी की जमीन से जुड़ी छवि के कायल थे, उनका भी धीरे-धीरे मोहभंग होता जा रहा है। यह भारतीय जनता पार्टी के लिए चिन्तन का विषय होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अब लगने लगा है कि उनसे कहीं न कहीं चूक जरूर हुई है। अपनी भूल सुधार के लिए ही प्रधानमंत्री सूरत में दस लाख के सूट समेत, उपहार में मिले 237 कपड़ों व अन्य सामानों की नीलामी से प्राप्त राशि को नमामि गंगे योजना में लगाना चाहते हैं। भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को मिले उपहार, उनकी निजी नहीं वरन राष्ट्र की सम्पत्ति होते हैं और उन्हें सरकारी तोषखाने में जमा किया जाता है। नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी इसी तरह नीलामी करवाते थे। अब भी उन्होंने वही तरीका अपनाया है। मोदी के इस कदम से मुमकिन है अच्छी-खासी रकम जुटे और उसका सदुपयोग भी हो, लेकिन उनका यह कार्य राजसी मिजाज के मुताबिक ही लगता है, जिसमें राजा प्रजा के लिए काम तो करता है, पर उसका अहसान भी जताता है। सच्चाई तो यह है कि नीलामी के इस स्वांग से न तो गरीबों का पेट भरेगा और न ही सबका साथ, सबका विकास होगा। अपनी गरीबी का बखान करने, गरीबों के साथ एकाध बार खाना खा लेने भर से देश की दरिद्रता दूर नहीं होगी। कमल दल को अपने 10 माह के शासनकाल की स्वयं विवेचना करते हुए यह सोचना होगा कि उसने आमजन से जो कहा था, उस पर कितना अमल हुआ है।
भारत लोकतांत्रिक देश है, जहां एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है। भारत में राजतंत्र कायम है, जहां प्रधानमंत्री चक्रवर्ती राजा की तरह है, जो दस लाख का सूट पहनता है और सियासत की खातिर उस गांधी का नाम लेता है, जो भारतीय गरीबों के कारण अधनंगा फकीर बना रहा। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति, उसकी धार्मिक, भाषायी और सामाजिक विविधता गैर मुल्कों के लिए आज भी अबूझ पहेली है। विदेशियों की दिलचस्पी इस बात में हमेशा रही है कि इतनी विविधताओं वाले देश हिन्दुस्तान में एकता कैसे कायम रहती है। अब शायद उनकी जिज्ञासा इस बात में भी हो कि भारत में किस किस्म की आर्थिक असमानता है। भारतीय संविधान में भले ही सबको बराबरी का अधिकार मिला हो, पर अर्थतंत्र के बाजारवाद ने संवैधानिक भावनाओं के साथ क्रूर मजाक किया है। प्रधानमंत्री मोदी के परिधानों की नीलामी के स्वांग से न ही मुल्क की विविधता दूर होगी और न ही इससे नमामि गंगे का उद्धार होने वाला है।
लोकसभा चुनाव के समय मोदी ने अपने आपको एक जनसेवक के रूप में पेश किया था। वह जानते हैं कि मुल्क असमानता की राह चल रहा है। करोड़ों भारतीयों के पास न तो तन ढंकने को कपड़ा है और न ही दो वक्त की रोटी। जनमानस को उम्मीद थी कि मोदी के सल्तनत सम्हालते ही देश से भ्रष्टाचार छूमंतर हो जाएगा, राजनीतिज्ञों की शाहखर्ची पर लगाम लगेगी और सबका विकास होगा, पर 10 माह के उनके शासनकाल में कोई बड़ा बदलाव नजर नहीं आया। गरीबी आज भी मुंह चिढ़ा रही है। दिल्ली चुनाव हारने के बाद उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके सिपहसालार जनसेवा और देशहित के कामों को वरीयता देंगे, अफसोस वे परिधानों की नीलामी के बेहूदा प्रयोग में मदमस्त हैं। नरेन्द्र मोदी की जहां तक बात है, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए जब उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा ने अपना चेहरा बनाया तो लोगों की पहली नजर उनके पहनावे पर ही गई थी। उनका चूड़ीदार कुर्ता, जैकेट, कभी सिर पर साफा, कभी कंधे पर पड़ी शॉल, इन सबको उनके प्रचारकों ने अपने अंदाज में बिना कुछ कहे पेश किया। टेलीविजन पर जब वे दिखें तो किस कोण से बेहतर लगेंगे, मंच पर जब हों तो उन्हें कैसे जाना चाहिए, अमेरिका यात्रा में उनका पहनावा क्या हो, जापान और आस्ट्रेलिया में क्या हो, हर बात का बारीकी से ध्यान रखा गया। समय के अनुकूल उनके परिधानों के रंग भी बदलते रहे। कभी केसरिया, कभी हरा, कभी भूरा तो कभी गाढ़े नीले रंग में मोदी नजर आये। जो भी हो अब मोदी के रंग में भंग पड़ता दिख रहा है। भारत युवाओं का देश है। भारतीय जनता पार्टी जानती है कि युवा तरुणाई के बिना सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता, इसी वजह से उसने सारा तामझाम देश के युवाओं को आकर्षित करने के लिए किया था। इसमें दो राय नहीं कि युवाओं पर मोदी का जमकर जादू चला पर बुजुर्ग हाशिए पर चले गये। मोदी भी युवा नहीं हैं, लेकिन बेकाबू युवाओं पर कैसे काबू पाना है, उन्हें पता है। मोदी हों या कोई और, जोश भरी बातों और फैशनेबल कपड़ों से बहुत दिनों तक जनमानस को झांसे में नहीं रखा जा सकता। इस बात का अहसास कमल दल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके फैशन डिजाइनरों को तब हुआ जब वे मफलरबाज और पतलून के बाहर आधी बाजू की शर्ट पहनने वाले अरविंद केजरीवाल से दिल्ली चुनावों में बुरी तरह मात खा गए।
बराक ओबामा की भारत यात्रा पर अपना नामधारी सूट पहन कर बेशक नरेन्द्र मोदी को थोड़ी-बहुत संतुष्टि मिली होगी, पर उनका महंगा लाखिया सूट और आडम्बर भारतीय जनमानस को कतई रास नहीं आया। भारतीय राजनीति में अकेले नरेन्द्र मोदी ही नहीं कभी बसपा सुप्रीमो मायावती भी अपने धन-वैभव का खुला प्रदर्शन करने में यकीन रखती रही हैं, लेकिन उनके समर्थकों का मोहभंग उनसे कभी नहीं हुआ, बल्कि वे प्रसन्न होते थे कि एक दलित की बेटी अपना जन्मदिन सवर्णों की तरह शान से मना रही है। कमल दल को अफसोस होगा कि मोदीजी के मामले में ऐसा समीकरण फिट क्यों नहीं बैठा। आम चुनाव के वक्त अपने चायवाला होने का जिक्र मोदीजी ने खूब किया था। तब मोदी के उन लफ्जों और उनकी छवि पर गरीब परवरदिगारों को यकीन था कि मुल्क की सल्तनत पर काबिज होने के बाद यह चायवाला गरीबों का हमदर्द साबित होगा। धीरे-धीरे ही सही देश से गरीबी जरूर दूर होगी, पर ऐसा नहीं हुआ। अब तो जो लोग मोदी की जमीन से जुड़ी छवि के कायल थे, उनका भी धीरे-धीरे मोहभंग होता जा रहा है। यह भारतीय जनता पार्टी के लिए चिन्तन का विषय होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अब लगने लगा है कि उनसे कहीं न कहीं चूक जरूर हुई है। अपनी भूल सुधार के लिए ही प्रधानमंत्री सूरत में दस लाख के सूट समेत, उपहार में मिले 237 कपड़ों व अन्य सामानों की नीलामी से प्राप्त राशि को नमामि गंगे योजना में लगाना चाहते हैं। भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को मिले उपहार, उनकी निजी नहीं वरन राष्ट्र की सम्पत्ति होते हैं और उन्हें सरकारी तोषखाने में जमा किया जाता है। नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी इसी तरह नीलामी करवाते थे। अब भी उन्होंने वही तरीका अपनाया है। मोदी के इस कदम से मुमकिन है अच्छी-खासी रकम जुटे और उसका सदुपयोग भी हो, लेकिन उनका यह कार्य राजसी मिजाज के मुताबिक ही लगता है, जिसमें राजा प्रजा के लिए काम तो करता है, पर उसका अहसान भी जताता है। सच्चाई तो यह है कि नीलामी के इस स्वांग से न तो गरीबों का पेट भरेगा और न ही सबका साथ, सबका विकास होगा। अपनी गरीबी का बखान करने, गरीबों के साथ एकाध बार खाना खा लेने भर से देश की दरिद्रता दूर नहीं होगी। कमल दल को अपने 10 माह के शासनकाल की स्वयं विवेचना करते हुए यह सोचना होगा कि उसने आमजन से जो कहा था, उस पर कितना अमल हुआ है।
No comments:
Post a Comment