एक तरफ दुनिया भारतीय वैज्ञानिकों की मंगल मिशन पर शानदार कामयाबी की बलैयां ले रही है तो दूसरी तरफ मुल्क की तारणहार राजनीतिक पार्टियां सल्तनत के लिए भीड़तंत्र का सहारा ले रही हैं। लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं पर राजनीतिक क्षत्रप अपने-अपने पराक्रम की दुहाई देने का कोई भी मौका जाया नहीं करना चाहते। यह जानते हुए भी कि आज देश का हर दूसरा बच्चा कुपोषित और तीसरा नागरिक भूखा सोता है। तरक्की की डींगें और गरीबी के बीच फासला बढ़ता ही जा रहा है। पिछले पांच साल के तरक्की के आंकड़ों पर नजर डालें तो एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या 24 से बढ़कर 55 हुई है तो भूखे पेट सोने वालों में करोड़ों का इजाफा हुआ है। यह विडम्बना ही है कि आज मुल्क न सिर्फ अरबपतियों की संख्या के मामले में बल्कि गरीबों के मामले में भी अफ्रीकी देशों को कड़ी शर्मनाक टक्कर दे रहा है। ये आंकड़े न सिर्फ त्रासद व चुनौतीपूर्ण हैं बल्कि कालान्तर में इनके और विस्फोटक होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
देखा जाए तो भारत में आर्थिक असमानता सदियों से विद्यमान रही है, पर पिछले 20-25 साल में इसमें बेतहाशा वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों पर गौर करें तो 2004-05 से 2011-12 के बीच देश में अमीरी-गरीबी के बीच की खाई न सिर्फ चौड़ी हुई बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में यह पिछले 35 साल के सबसे अधिक स्तर पर दर्ज की गई। शहरी क्षेत्रों में भी असमानता का ग्राफ रिकार्ड 0.37 प्रतिशत के स्तर पर जा पहुंचा है। समाज में बढ़ती आर्थिक विपन्नता और विरोधाभास लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इतिहास गवाह है कि विरोधाभासों से घिरा समाज ज्यादा समय तक शांत और सुरक्षित नहीं रह सकता। दरअसल, आर्थिक विरोधाभास समाज के मूल पर प्रभाव डालता है। यही वजह है कि देश के हर कोने में आज व्यवस्था के प्रति लोगों में रंज है। यहां तक कि लोगों का गुस्सा सशस्त्र संघर्ष के रूप में सामने आने लगा है। क्या यह परिदृश्य एक लोकतंत्र के लिए जो समता, समरसता और सामाजिक न्याय के मूल्यों का पक्षधर और पहरुआ हो, उसके लिए उचित है?
आज सभी राजनीतिक दल देश की सल्तनत हथियाने के लिए गरीबों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। खुद डरे-सहमे राजनीतिज्ञ उसे निडरता का पाठ पढ़ा रहें हैं जोकि हर पल भूखा पेट भरने को डरता और मरता है। भीड़तंत्र जुटाने के इस प्रहसन में कोई भी दल दूध का धुला नहीं है। राजनीतिक दलों के इस सत्ता खेल में कांग्रेस व भाजपा ही नहीं तीसरे मोर्चे के सम्भावित लोग भी दम ठोक रहे हैं। देश की सल्तनत पिछले 16 साल से गठबंधन के बंधन में जकड़ी हुई है। मुल्क की भोली-भाली जनता कभी कांग्रेस तो कभी कमल दल से दिल लगाती है। उसने तीसरे मोर्चे को बेशक कभी तवज्जो न दी हो पर इसके क्षत्रपों ने सत्ता का सुख हमेशा भोगा है। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा ही नहीं अन्य दल भी भीड़तंत्र की कवायद में जुट गए हैं।
भारतीय राजनीति में जहां तक सम्भावित तीसरे मोर्चे का सवाल है उसने 1977, 1989 और 1996 की अपनी विफलताओं से कोई सबक नहीं लिया है। इन्हें मौके भी मिले पर अपने-अपने पूर्वाग्रह और अंतर्विरोधों के चलते सल्तनत सम्हाल नहीं पाए और उन पर देश की अस्थिरता के आरोप लगे। जबकि इस अस्थिरता में कांग्रेस का बड़ा हाथ था। 1977 में जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार इसलिए गिरी कि कांग्रेस को जनादेश का आदर करते हुए पांच साल तक रचनात्मक विपक्ष का फर्ज निभाना कुबूल नहीं था और उसने जनता पार्टी में फूट डालकर चौधरी चरण सिंह की सरकार तो बनवा दी पर उन्हें संसद का मुंह नहीं देखने दिया। चन्द्रशेखर, एचडी देवगौड़ा व इन्द्र कुमार गुजराल की सरकारों के साथ भी लगभग वही सलूक हुआ पर कांग्रेस ने उन सरकारों की अकाल मृत्यु से उत्पन्न अस्थिरता की जिम्मेदारी अपने ऊपर कभी नहीं ली।
कमल दल ने भी विश्वासघात का दंश झेला है। भाजपा की खुद की पहली सरकार 13 दिन जबकि दूसरी 13 महीने चली थी। दो झटकों के बाद कमल दल ने अटल सरकार को कभी दांव पर नहीं लगाया और राम मंदिर मुद्दे को ठण्डे बस्ते में डाल फीलगुड करती रही। पिछले 16 साल से तीसरा मोर्चा राष्ट्रीय परिदृश्य से तो गैरहाजिर रहा पर कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधनों में उनके नेता राज करते रहे। देश के आर्थिक हालात ठीक नहीं हैं। निरंकुश महंगाई से लोग परेशान हैं। देश को गरीबी का दंश देने वाली कांग्रेस और स्थिर सरकार देने का दम्भ भरने वाला कमल दल भीड़ से भरोसा दिलाने का जतन कर रहे हैं तो तीसरा कुनबा भी चैन की बंशी बजा रहा है। फिलवक्त मुल्क का हर राजनीतिक दल दिल्ली दूर है जाना जरूर है का राग अलाप रहा है तो गरीबी का दंश झेलती लाचार जनता किसी को भी जनप्रिय मानने को तैयार नहीं है।
देखा जाए तो भारत में आर्थिक असमानता सदियों से विद्यमान रही है, पर पिछले 20-25 साल में इसमें बेतहाशा वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों पर गौर करें तो 2004-05 से 2011-12 के बीच देश में अमीरी-गरीबी के बीच की खाई न सिर्फ चौड़ी हुई बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में यह पिछले 35 साल के सबसे अधिक स्तर पर दर्ज की गई। शहरी क्षेत्रों में भी असमानता का ग्राफ रिकार्ड 0.37 प्रतिशत के स्तर पर जा पहुंचा है। समाज में बढ़ती आर्थिक विपन्नता और विरोधाभास लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इतिहास गवाह है कि विरोधाभासों से घिरा समाज ज्यादा समय तक शांत और सुरक्षित नहीं रह सकता। दरअसल, आर्थिक विरोधाभास समाज के मूल पर प्रभाव डालता है। यही वजह है कि देश के हर कोने में आज व्यवस्था के प्रति लोगों में रंज है। यहां तक कि लोगों का गुस्सा सशस्त्र संघर्ष के रूप में सामने आने लगा है। क्या यह परिदृश्य एक लोकतंत्र के लिए जो समता, समरसता और सामाजिक न्याय के मूल्यों का पक्षधर और पहरुआ हो, उसके लिए उचित है?
आज सभी राजनीतिक दल देश की सल्तनत हथियाने के लिए गरीबों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। खुद डरे-सहमे राजनीतिज्ञ उसे निडरता का पाठ पढ़ा रहें हैं जोकि हर पल भूखा पेट भरने को डरता और मरता है। भीड़तंत्र जुटाने के इस प्रहसन में कोई भी दल दूध का धुला नहीं है। राजनीतिक दलों के इस सत्ता खेल में कांग्रेस व भाजपा ही नहीं तीसरे मोर्चे के सम्भावित लोग भी दम ठोक रहे हैं। देश की सल्तनत पिछले 16 साल से गठबंधन के बंधन में जकड़ी हुई है। मुल्क की भोली-भाली जनता कभी कांग्रेस तो कभी कमल दल से दिल लगाती है। उसने तीसरे मोर्चे को बेशक कभी तवज्जो न दी हो पर इसके क्षत्रपों ने सत्ता का सुख हमेशा भोगा है। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा ही नहीं अन्य दल भी भीड़तंत्र की कवायद में जुट गए हैं।
भारतीय राजनीति में जहां तक सम्भावित तीसरे मोर्चे का सवाल है उसने 1977, 1989 और 1996 की अपनी विफलताओं से कोई सबक नहीं लिया है। इन्हें मौके भी मिले पर अपने-अपने पूर्वाग्रह और अंतर्विरोधों के चलते सल्तनत सम्हाल नहीं पाए और उन पर देश की अस्थिरता के आरोप लगे। जबकि इस अस्थिरता में कांग्रेस का बड़ा हाथ था। 1977 में जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार इसलिए गिरी कि कांग्रेस को जनादेश का आदर करते हुए पांच साल तक रचनात्मक विपक्ष का फर्ज निभाना कुबूल नहीं था और उसने जनता पार्टी में फूट डालकर चौधरी चरण सिंह की सरकार तो बनवा दी पर उन्हें संसद का मुंह नहीं देखने दिया। चन्द्रशेखर, एचडी देवगौड़ा व इन्द्र कुमार गुजराल की सरकारों के साथ भी लगभग वही सलूक हुआ पर कांग्रेस ने उन सरकारों की अकाल मृत्यु से उत्पन्न अस्थिरता की जिम्मेदारी अपने ऊपर कभी नहीं ली।
कमल दल ने भी विश्वासघात का दंश झेला है। भाजपा की खुद की पहली सरकार 13 दिन जबकि दूसरी 13 महीने चली थी। दो झटकों के बाद कमल दल ने अटल सरकार को कभी दांव पर नहीं लगाया और राम मंदिर मुद्दे को ठण्डे बस्ते में डाल फीलगुड करती रही। पिछले 16 साल से तीसरा मोर्चा राष्ट्रीय परिदृश्य से तो गैरहाजिर रहा पर कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधनों में उनके नेता राज करते रहे। देश के आर्थिक हालात ठीक नहीं हैं। निरंकुश महंगाई से लोग परेशान हैं। देश को गरीबी का दंश देने वाली कांग्रेस और स्थिर सरकार देने का दम्भ भरने वाला कमल दल भीड़ से भरोसा दिलाने का जतन कर रहे हैं तो तीसरा कुनबा भी चैन की बंशी बजा रहा है। फिलवक्त मुल्क का हर राजनीतिक दल दिल्ली दूर है जाना जरूर है का राग अलाप रहा है तो गरीबी का दंश झेलती लाचार जनता किसी को भी जनप्रिय मानने को तैयार नहीं है।
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