Saturday, 9 November 2013

महिला होने की गर्वोक्ति आखिर कब?

आज महिलावाद या महिला विमर्श एक फैशन बन गया है। महिलाओं के मुद्दों पर चिन्तित समाज आंदोलन की राह चल निकला है। महिलाओं के लिए हो रहे आन्दोलन कोई नई बात नहीं हैं।  नारी अस्मिता और उससे जुड़े तमाम सवालों का हल हमारा समाज बीते दो सौ साल से खोज रहा है तथापि समस्याएं यथावत हैं। अठारहवीं शताब्दी के मध्य से ही दुनिया भर की तमाम महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं। भारत में महिलाओं की गरिमा को सनातन समय से गौरवशाली मुकाम हासिल है बावजूद आज सब कुछ ठीक नहीं कहा जा सकता।
भारत में सरोजिनी नायडू पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने एनी बेसेण्ट और अन्य लोगों के साथ मिलकर भारतीय महिला संघ की स्थापना की थी। उन्नीसवीं शताब्दी की महिला आन्दोलनकारियों में फ्रांस की सिमोन द बोउवा का नाम सर्वोपरि है। उनकी पुस्तक द सेकेण्ड सेक्स स्त्री विमर्श की चर्चित कृति है। सिमोन मानती थीं कि स्त्री का जन्म भी पुरुष की तरह ही होता है मगर परिवार व समाज द्वारा उसमें स्त्रियोचित गुण भर दिए जाते हैं। 1970 में फ्रांस के नारी मुक्ति आंदोलन में भाग लेने वाली सिमोन स्त्री के लिए पुरुष के समान स्वतंत्रता की पक्षधर थीं। महिलाएं चाहे जिस भी नस्ल, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति या देश की हों, उनका संघर्ष लगभग एक समान है। आश्चर्यजनक तो यह है कि स्त्रीवादियों के आन्दोलन की जो लहर अठारहवीं शताब्दी के मध्य में उठी थी, अब तक अपनी मंजिल नहीं पा सकी है। धार्मिक नेता और समाज के ठेकेदार युवतियों के रहन-सहन, परिधान, संचार साधनों के उपयोग और जीवनसाथी के चयन जैसे सर्वथा निजी मामलों में भी अपनी राय थोपकर उनकी स्वतंत्रता का हनन करते हैं। वस्तुत: महिलाओं के संदर्भ में रोजगार, शिक्षा और कानून को लेकर समानता की मांग बेमानी नहीं है क्योंकि वे हर जगह भेदभाव से पीड़ित हैं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की उन्नति के मार्ग में हर कदम पर अवरोध दिखाई देते हैं।
महिलाएं अपने परिवार के लिए अथक परिश्रम करती हैं पर उनके श्रम को कोई सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है। भारत में तो कर्तव्य और प्रेम की ओट में उसके श्रम की अनदेखी कर दी जाती है। मगर दु:ख की बात यह है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति सरकार के समस्त प्रयासों के बावजूद दयनीय होती जा रही है। आज सबसे बड़ी समस्या महिलाओं की स्वतंत्रता नहीं, सुरक्षा की है। संसद की महिलाओं के पोषण से सम्बन्धित कामकाज देखने वाली केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की लोकसभा प्राक्कलन समिति ने सरकार को इस बात के लिए फटकारा है कि देश में आज भी 70 प्रतिशत बच्चे और 60 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। देश तमाम प्रौद्योगिक क्षेत्रों में विकास कर रहा है, संचार और तकनीकी युग में इतना कुपोषण शर्म की ही बात है। कुपोषण रोकने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए ग्रोथ चार्ट के बाद भी देश में बच्चों एवं महिलाओं की स्थिति जस की तस है। महिलाओं और बच्चों के कुपोषण पर हमारी सरकारों और उनके विभागों के बीच समन्वय का बेहद अभाव है।
सरकार कुपोषण खत्म करने के लिए जो भी योजनाएं लागू की कर रही है, वे जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। आंगनबाड़ियों और स्वास्थ्य विभाग में व्यापक समन्वय की कमी है। अधिकांश बच्चों का वजन नहीं लिया जाता। इससे वास्तविकता का पता नहीं चलता। एक समय प्रधानमंत्री ने भी कुपोषण को देश के लिए राष्ट्रीय शर्म बताया था। पर सरकार और समाज दोनों के बीच कोई चेतना और समस्याओं के प्रति जुझारूपन देखने को नहीं मिलता। इसी समिति ने यह भी बताया है कि देश में बच्चों में कुपोषण 1998-99 में 74 प्रतिशत के मुकाबले 2005-06 में 80 प्रतिशत हो गया यानी कुपोषण की दर घटने की बजाय बढ़ गई है।
यह गम्भीर मामला है। हम जिस स्तर को स्थिर नहीं रख सके, कम से कम उसे दुर्गति की ओर जाने से तो रोक ही सकते थे। आज ग्रामीण क्षेत्रों में सुदृढ़ होती स्वास्थ्य व्यवस्थाएं, जैसा वाक्य सरकारी विज्ञापन का हिस्सा तो हो सकता है लेकिन वास्तविकता से इसका बहुत वास्ता नहीं हो सकता। देश में हर बार बजट बढ़ता है और हर बार कुपोषण भी सामने आता है। हर बार कुपोषण, रक्त अल्पता, निरक्षरता की शिकार महिलाओं की संख्या करोड़ों में हो जाती है। देश में बाल विवाह को लेकर लाख सजगता का दम्भ भरा जाता हो पर प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में जवाबदेह लोगों के सामने क्रूर मजाक होता है। आज देश में करीब 40 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह राष्ट्रीय शर्म की बात नहीं तो क्या है?
दुर्भाग्य की बात है जिस समय समय संयुक्त राष्ट्र बाल विवाह रोकने की बात कर रहा था ठीक उसी समय हरियाणा में एक राजनैतिक पार्टी के नेता 15 वर्ष में लड़कियों के विवाह की सलाह दे रहे थे। भारतीय समाज, यहां का शासक वर्ग अपने हितों को बनाये रखने व राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी गणित की दृष्टि से पिछड़े सामंती मूल्यों को बनाये रखे हुए हैं। यही कारण है कि भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी तमाम स्त्री विरोधी प्रथाएं और परम्पराएं आज भी बदस्तूर जारी हंै। शासक वर्ग इन समस्याओं के समाधान में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। वह मात्र चुनावी रस्म अदायगी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि जड़ में चोट करने वाले व्यापक आंदोलन की शुरूआत हो। 

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