Saturday 16 November 2013

गरीब नहीं, गरीबी दूर हो

एक तरफ राजनीतिक दल सल्तनत की खातिर गरीबों से महंगाई और भुखमरी दूर करने के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं तो दूसरी तरफ महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है। मुल्क में महंगाई का आलम यह है कि अब गरीब ही नहीं मध्यम वर्ग भी त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगा है। ताजा आंकड़ों पर नजर डालें तो खुदरा कीमतों पर आधारित महंगाई दर अक्टूबर में 10.09 फीसद पर पहुंच गई। बीते अगस्त और सितम्बर महीनों में भी महंगाई में कोई राहत की स्थिति नहीं थी, तब यह आंकड़ा साढ़े नौ फीसद से ऊपर था। पिछले सात महीनों में पहली बार हुआ कि खुदरा महंगाई की दर दो अंकों की शर्मनाक स्थिति में जा पहुंची है। महंगाई की मौजूदा स्थिति को देखें तो यह सबसे ज्यादा खाने-पीने की वस्तुओं पर असरकारक रही है। गलाकाट महंगाई की तपिश कल तक जिन लोगों को हलाकान नहीं कर रही थी, अब उन लोगों के लिए भी घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। अगर खानपान की मूल्यवृद्धि को हिसाब में लें तो इनका महंगाई ग्राफ साढ़े बारह फीसद के भी ऊपर जा पहुंचा है। महंगाई की सबसे बड़ी मार साग-सब्जियों और फलों के दामों में हुई है। यह आंकड़ा पिछले साल के मुकाबले पैंतालीस फीसद अधिक है।
सरकार महंगाई को दूर भगाने का राग तो अलापती है, पर सात महीने में आमजन को इससे निजात मिलना तो दूर क्षणिक राहत भी नहीं मिली है। सवाल यह उठता है कि  क्या देश में महंगाई की यह स्थिति स्वाभाविक है और इसे नियति के रूप में स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? केन्द्र में काबिज कांग्रेस महंगाई के लिए ओड़िसा, बंगाल और आंध्र प्रदेश में हाल में आए तूफानों की लाख दलील दे पर देखें तो इसका आंशिक असर ही रहा है। सात महीने पहले मुल्क में कोई आंधी-तूफान और बवंडर नहीं आया था फिर भी महंगाई दर सातवें आसमान पर ही रही है। दरअसल, मुल्क में महंगाई का काला सच यह है कि सरकार जमाखोरी और कालाबाजारी पर नकेल कसने में पूरी तरह से विफल है। मौजूदा महंगाई की सबसे बड़ी वजह ही जमाखोरी और कालाबाजारी है। देश में खानपान सामग्री में महंगाई का एक दूसरा पहलू कुप्रबंधन और आपूर्ति की खामियों का भी है। देखा जाए तो हर साल देश में हजारों करोड़ रुपए के फल और सब्जियां रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाते हैं।
गलाकाट महंगाई को कालाबाजारी और जमाखोरी के अलावा वायदा बाजार ने भी मुश्किल में डाला है। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और सरकार वायदा बाजार पर लगाम लगाना तो दूर, इस बारे में कभी विचार करने को भी तैयार नहीं हुई। थोक और खुदरा कीमतों के अंतराल को कैसे तर्कसंगत बनाया जाए यह भी सरकार के लिए कोई विचारणीय मुद्दा नहीं लगता। फिलवक्त देश में खाद्य पदार्थों के साथ-साथ अन्य उत्पादों और सेवाओं की कीमतों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक तरफ महंगाई आमजन का जीना मुश्किल कर रही है तो दूसरी तरफ केन्द्र में काबिज कांग्रेस पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की चुनावी रैलियों में गरीब परवरदिगारों को गरीबी दूर भगाने का झूठा भरोसा देती दिख रही है। गरीबों पर महंगाई की चौतरफा मार यूपीए के लिए गहरी चिन्ता का सबब होना चाहिए पर सत्ता में बैठे लोग सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक नफा-नुकसान पर ही गम्भीर हैं। केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेस ही नहीं प्रमुख विपक्षी कमल दल भी मुल्क में महंगाई से उपजे जन असंतोष का राजनीतिक लाभ तो लेना चाहता है, पर उसके पास भी महंगाई से निपटने की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं दिखती।
देखा जाए तो आजादी के बाद से ही राजनीतिक दलों द्वारा हिन्दुस्तान से गरीबी और भुखमरी मिटाने के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए जाते रहे हैं पर मुल्क से गरीबी दूर होने के बजाय गरीब जरूर असमय काल के गाल में समा गये। बेहतर होता सभी राजनीतिक दल महंगाई के इस दंश को लोकसभा चुनाव से पहले बेअसर करने के साझा प्रयास करते और गरीब नहीं गरीबी दूर करने का संकल्प लेते, पर अफसोस कोई भी दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने के सिवाय भूखे पेटों को भरने पर बात करने को तैयार नहीं है। देश का गरीब और मध्यम वर्ग जहां महंगाई से आहत राहत मांग रहा है वहीं राजनीतिक दल नंगानाच दिखा रहे हैं। देखा जाए तो मुल्क में जब भी महंगाई का संकट आता है लोग रिजर्व बैंक से बड़ी-बड़ी उम्मीदें करने लगते हैं लेकिन सच यह है उसकी मौद्रिक कवायद गलाकाट महंगाई पर आसानी से काबू नहीं पा सकती।
कांग्रेस ने चुनावी वैतरणी पार करने की खातिर बेशक देश में महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी और दीगर असमानताओं को लेकर उपजे जनाक्रोश को शांत करने के लिए पहले रोजगार गारंटी योजना और उसके बाद खाद्य सुरक्षा कानून का झुनझुना थमाने का चालाकीपूर्ण कार्य किया हो, पर यह समस्या का स्थाई समाधान कभी नहीं हो सकता। सच यह है कि सरकारी मदद के आधार पर कभी भी कोई स्थायी समाधान नहीं निकला है। महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए जमाखोरी को जब तक हतोत्साहित नहीं किया जाएगा, सरकार के सारे प्रयास अकारथ ही जाएंगे। सरकार किसी भी दल की क्यों न हो जब तक गरीब की सम्पत्ति की सुरक्षा और उसके लिए रोजगार के स्थायी अवसर उपलब्ध नहीं होंगे उसे गरीबी और भुखमरी का भूत हमेशा डराएगा। किसी राज्य के विकास मॉडल की चर्चा अथवा किसी गरीब के घर में जाकर एक रात गुजार देने से न तो महंगाई कम होगी और न ही गरीबों का भला होगा, यह बात हमारे राजनीतिक आकाओं को भलीभांति समझ लेनी चाहिए। देश से गरीबी और भुखमरी यदि भगानी ही है तो ऐसी नीतियां अमल में लाई जाएं जिसमें ग्रोथ के नाम पर किसी गरीब की भूमि न छिने और ऐसे उद्यम चलाए जाएं जिसमें श्रम का अधिक से अधिक उपयोग हो। देश में जब तक अमीर को और अमीर बनाने की कोशिशें बंद नहीं होंगी, लोग भूखे पेट ही सोते रहेंगे।

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