Tuesday 5 August 2014

किताबी जंग का दौर

न खंगालो तथ्यों को, न तर्कों पर बात करो

जब भुनानी हो पुरानी अदावत, तो किताब लिख डालो
(अकबर इलाहाबादी माफ करें)
पुरानी कहावत है कि जब जहाज डूबता है तो सबसे पहले चूहे निकल भागते हैं। इस वक्त कांग्रेस पर जैसे चौतरफा हमलों का दौर चल रहा है और विरोधियों से अधिक पुराने कांग्रेसी ही सोनिया गांधी, राहुल गांधी व डा.मनमोहन सिंह को निशाना बना रहे हैं, उसे देखकर यही कहावत याद आती है। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि कांग्रेस डूबता जहाज है। राजनीति में कुछ भी स्थायी नहींहोता, जीत और हार भी नहीं। अभी कांग्रेस एक बेहद बुरे दौर से गुजर रही है, किंतु उसका अस्तित्व ही खत्म होने की कगार पर है, ऐसा नहींहै। उत्तराखंड में उपचुनावों में उसे मिली सफलता इस बात का प्रमाण है कि जनता का एक वर्ग अब भी कांग्रेस का समर्थक है। यह सही है कि विगत दस सालों के केेंद्र के शासन के बाद उसे लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा और भाजपा को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आश्चर्यजनक सफलता का स्वाद चखने मिला। किंतु इसमें कांग्रेस से लोगों की उठती आस्था और भाजपा पर अटूट विश्वास जैसे तथ्य केवल काम नहीं आए, बल्कि राजनीति के पर्दे के पीछे छिपे अन्य कई कारक इसके जिम्मेदार रहे। ये कारक भविष्य में कभी बेपर्दा होंगे या नहीं, कहा नहींजा सकता। क्योंकि अब किसी बात को दबा कर रखना या उजागर कर देना, किसी का वफादार सिपाही या मित्र होना, ऐसे गुणों की कोई समयसीमा नहींरह गई है। राजनीति में इस वक्त जो हलचल मची हुई है, उसे देखकर तो यही लगता है। ऐन चुनाव के वक्त संजय बारू व पी.सी.पारेख की प्रकाशित, प्रचारित किताबों ने कांग्रेस के विरोध में माहौल बनाने का काम किया। इन किताबों में मुख्यत: तत्कालीन प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह को निशाना बनाया था। अब उस कड़ी में अगली किताब है वन लाइफ इज़ नाट इनफ। पुराने वरिष्ठ कांग्रेसी, कांग्रेस सरकार में अनेक महत्वपूर्ण पद संभाल चुके, कूटनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी डा.नटवर सिंह की यह आत्मकथा है। कभी गांधी परिवार के करीबी रहे डा.सिंह ने इस किताब में अपनी कथा के बहाने राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी सबकी बात कही है। लिहाजा इसे आत्मकथा कम और गांधी कथा अधिक कहना चाहिए। राजनीतिज्ञों, राजनेताओं पर किताबें लिखना, उनकी जीवनकथा लिखना कोई नई बात नहींहै। विशेषकर गांधी परिवार तो ऐसी किताबों का प्रिय केन्द्रीय चरित्र रहा है। नेहरूजी से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी यहां तक राहुल गांधी पर भी किताब लिखी गई है, जबकि राहुल गांधी की राजनीति में सक्रियता मात्र एक दशक की रही है। इन तमाम किताबों में भारतीय राजनीति में गांधी परिवार के योगदान और भूमिका की चर्चा की गई है, विश्लेषण में अगर आलोचना और निंदा जरूरी है, तो वह भी की गई है। किंतु डा.नटवर सिंह की किताब के जो अंश मुख्य तौर पर सामने आए हैं, उनसे यही पता चलता है कि लेखन में तटस्थता बरतना उन्होंने जरूरी नहींसमझा। वे सोद्देश्य सोनिया गांधी व राहुल गांधी की आलोचना कर रहे हैं। इस किताब के बाजार में आने के बाद कुछेक चैनलों में दिए साक्षात्कार में उन्होंने यही प्रदर्शित किया कि तेल के बदले अनाज कार्यक्रम में भ्रष्टाचार के कारण मंत्रिमंडल से बाहर कर दिए जाने की नाराजगी वे इस रूप में दिखा रहे हैं। सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री पद स्वीकार न करना, त्याग था या नाटक या बेटे राहुल गांधी का दबाव, इसका सच सिर्फ सोनिया गांधी बता सकती हैं। राहुल गांधी में राजनीति करने की योग्यता है या नहीं, राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री क्या गलतियां की, उनके मित्र व सलाहकार कैसे उनके लिए घातक साबित हुए, किताब में लिखी इस तरह की कई बातों विश्लेषण भी तटस्थता के साथ होना चाहिए। 
नटवर सिंह की किताब के बहाने भाजपा को कांग्रेस पर प्रहार करने का एक और अवसर मिल गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि डा. सिंह ने अपने मृतप्राय राजनीतिक जीवन में थोड़ी प्राणवायु भरने के प्रयास में इस तरह की किताब लिखी है। भारतीय राजनीति, सरकार, शासन को उन्होंने बेहद करीब से देखा है, विदेशनीति के वे जानकार रहे हैं, कूटनीति के विद्वान हैं, उनसे यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि वे भारतीय राजनीति पर प्रामाणिक किताब लिखते, जिसमें लिखित तथ्य इतिहास, राजनीति के विद्यार्थियों, शोधार्थियों के लिए उपयोगी होते। पर इस किताब से उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध होती है। डा.नटवर सिंह की किताब से उठे विवाद के सोनिया गांधी ने कहा है कि वे भी किताब लिखेंगी, जिसमें सच होगा। पहले जुबानी जंग होती थी, अब किताबी जंग का मौसम है। किताबें लिखी जाएं, खूब पढ़ी जाएं, देश में पढऩे-लिखने की संस्कृति विकसित हो, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है, लेकिन कम से कम आत्मकथा, जीवनी लेखन, संस्मरण जैसी विधाओं में पूर्वाग्रह से बचा जाए, तथ्यों से खिलवाड़ न हो और निष्पक्षता से सच को सामने रखा जाए, तभी ऐसी किताबों का महत्व बना रहेगा, वर्ना इनमें और लुगदी साहित्य में कोई फर्क नहींबचेगा। 

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