Friday, 29 August 2014

प्रयोगधर्मी नरेन्द्र मोदी!

देश की सल्तनत पर काबिज होने के साथ ही कमल दल की दुश्वारियां कम होने के बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। भाजपा में प्रयोग दर प्रयोग हो रहे हैं और नरेन्द्र मोदी चुप हैं। संस्कारित भाजपा के अंत:पुर में जो हो रहा है उससे न तो महंगाई कम हो रही है और न ही अच्छे दिनों के संकेत मिल रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह फाड़ती भारतीय जनता पार्टी के कई स्वनामधन्य आजकल मुश्किल में हैं। उनकी स्थिति सांप-छछूंदर सी हो गई है। मोदी ने जो चाहा वह तो पा लिया लेकिन कई लोग असहज स्थिति का सामना कर रहे हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि मौनी बाबा मोदी को कैसे और किस तरह घेरा जाए। हाल ही पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड से अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की विदाई के साथ ही कमल दल में पीढ़ीगत नेतृत्व परिवर्तन का एक अध्याय समाप्त हो गया।
मोदी प्रयोगधर्मी हैं, उन्हें अपना विरोध किसी भी सूरत में पसंद नहीं है। भारतीय सल्तनत में काबिज होने के साथ मोदी ने अपने मंत्रिमण्डल में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर राजनीतिज्ञों को शामिल न कर पीढ़ीगत परिवर्तन की प्रक्रिया का ही संकेत दे दिया था। अमित शाह को नया भाजपा अध्यक्ष बनवाकर मोदी ने एक तीर से कई शिकार कर दिए हैं। भाजपा के नये संसदीय बोर्ड से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे लोगों को नवगठित मार्गदर्शक मंडल का सदस्य बनाने के भी निहितार्थ हैं। इस मार्गदर्शक मण्डल को बेशक सम्मान का सूचक करार दिया जा रहा हो पर इसके जरिए मोदी ने यह संकेत जरूर दिया है कि कमल दल में अब वही रहेगा जिसे वह चाहेंगे।  
कहने को इस नवगठित मार्गदर्शक मंडल में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी हैं, लेकिन वे संसदीय बोर्ड और केन्द्रीय चुनाव समिति में भी बतौर सदस्य दखल रखेंगे। कमल दल के संसदीय बोर्ड में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शामिल किया जाना मोदी की मजबूरी थी। दरअसल, शिवराज न केवल नेक इंसान हैं बल्कि विरोधी दलों में भी खासे लोकप्रिय हैं। शिवराज सिंह चौहान प्रपंच की राजनीति नहीं करते, वे सत्यं ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात के पक्षधर हैं। चुनावी महाभारत के समय जब लोगों की जुबां पर सच बोलने का माद्दा नहीं था उस समय भी उन्होंने संघ की परवाह किए बिना मोदी के मुकाबले आडवाणी को पेश करने की भरसक कोशिश की थी। शिवराज सिंह चौहान को संसदीय बोर्ड में शामिल करने के दो ही अर्थ हैं। एक, लगातार तीसरी बार उनका मुख्यमंत्री बनना और दूसरा, सभी को साथ लेकर चलने की उनकी काबिलियत।
भाजपा की राजनीति में छल-प्रपंच का चलन पुरानी बात है। कटु सत्य तो यह है कि छल-प्रपंच बिना राजनीति की कंटीली पगडंडी पर चला भी नहीं जा सकता। भाजपा में जो हुआ और जो आगे होगा उसमें आश्चर्यजनक जैसी बात बिल्कुल नहीं है। अतीत पर नजर डालें तो स्वयं अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने भी बलराज मधोक जैसे काबिल शख्स को किनारे लगाकर ही पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी। सच कहें तो मोदी ने कुछ नया नहीं किया बल्कि कमल दल में इतिहास दोहराया गया है। दरअसल हमारे मुल्क में प्राय: भावनाएं व्यावहारिकता पर हावी हो जाती हैं, इसलिए आडवाणी और जोशी के साथ जो हुआ उसका विश्लेषण भावुकता के साथ किया जा रहा है। कोई इसे आडवाणी और जोशी को वानप्रस्थ में भेजना कह रहा है, तो कोई ओल्ड एज होम में घर के बुजुर्गों को भेजना ठहरा रहा है। हकीकत यह है कि कमल दल में इन बुजुर्गवारों का क्या स्थान रहेगा, इसके संकेत लम्बे समय से दिए जा रहे थे। सत्ता मोह आडवाणी या जोशी ही नहीं अमूमन हर राजनीतिज्ञ की कमजोरी होती है।
खैर, कमल दल के अंत:पुर में हुए इस बदलाव का भविष्य में क्या असर होगा और युवा चेहरों पर जो जिम्मेदारी दी गई है, उसमें जनता उनका कितना साथ देती है, यह देखने वाली बात होगी। केन्द्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है बावजूद इसके एनडीए के गठबंधन को और मजबूत करना तथा पुराने साथियों को जोड़े रखना आसान बात नहीं होगी। आम चुनाव के पहले भाजपा में नए-नए दल उसी भांति आकर मिले थे, जैसे छोटी-छोटी नदियां बड़ी नदी से मिल जाती हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा, इन दलों की अपनी महत्वाकांक्षाएं कमल दल के सामने मुश्किलातें नहीं खड़ी करेंगी इसकी कोई गारण्टी नहीं है। ताजा प्रकरण हरियाणा में तीन साल पुराने साथी हरियाणा जनहित कांग्रेस का एनडीए से अलग होना है। हरियाणा में शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने हैं, इसके ठीक पहले हजकां सुप्रीमो कुलदीप बिशनोई की भाजपा से खुट्टी को अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं पल भर में गठबंधन की गांठ ढीली कर देती हैं। यही वजह है कि हजकां की ही तरह शिवसेना भी भाजपा से अपने सम्बन्धों पर पुनर्विचार कर रही है।
राजनीति में गुरूर कभी नहीं पालना चाहिए। कमल दल का नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना बेशक सफल दांव साबित हुआ हो लेकिन उसका हर दांव इसी तरह सफल हो और हर कदम राह को आसान बनाए, ऐसा नहीं होता। राजनीतिक सफर में अनगिनत अंधे मोड़ आते हैं। भारतीय राजनीति पर गौर करें तो कई बार दिग्गजों के आकलन और अनुमान भी गलत साबित हो चुके हैं। कमल दल के उत्थान में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता। राम मंदिर मुद्दे को देशव्यापी प्रचार दिलाने और इसके लिए रथयात्रा निकालने वाले लालकृष्ण आडवाणी के कारण ही भाजपा लोकसभा में दो से दो सौ तक पहुंची थी। गोधरा काण्ड के बाद मोदी जब मुश्किल में थे तब आडवाणी ही न केवल उनकी ढाल बने थे बल्कि  हिन्दुत्व के एजेण्डे को आगे ले जाने का मार्ग भी प्रशस्त किया था। राजनीति में कभी-कभी बहुत चतुराई भी विधवा विलाप का कारण बन जाती है। भाजपा में जब भी हिन्दुत्व की बात होगी आडवाणी का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा। इसी तरह मुरली मनोहर जोशी के बौद्धिक कौशल को चुनौती नहीं दी जा सकती। यह दोनों बेशक उम्र के अंतिम पड़ाव पर हों पर इनकी अहमियत थी और आगे भी महसूस की जाएगी।

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