तीन साल में 88 विदेशी कोचों पर 2569.63 करोड़ खर्च
ग्लास्गो में भी हुई फजीहत, मिला पांचवां स्थान
आगरा। खिलाड़ियों के चयन में पक्षपात, हद दर्जे की लापरवाही और विदेशी प्रशिक्षकों की आरामतलबी ने भारतीय महिला हॉकी का सत्यानाश कर दिया है। दवा हो रही है, पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। पराजय दर पराजय के बाद तो बीमारी लाइलाज सी हो गई है। ग्लास्गो जाने से पहले हॉकी इण्डिया और हमारे विदेशी प्रशिक्षक नील हावर्ड ने बड़े-बड़े दावे किए थे लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा। हमारे 14 महिला-पुरुष पहलवानों ने जहां भारत की झोली में 13 पदक डाले वहीं अरबों का सैर-सपाटा करने वाली भारतीय महिला हॉकी टीम एक अदद पदक के लिए तरस गई। वह दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों की ही तरह ग्लास्गो में पांचवें स्थान पर रही।
भारतीय महिला हॉकी टीम के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद देश के द्रोणाचार्य और अर्जुन अवार्डी हॉकी इण्डिया से सवाल पूछ रहे हैं कि जब हॉकी में सुखद परिणाम नहीं मिल रहे तो आखिर विदेशी प्रशिक्षकों पर अरबों रुपया क्यों बर्बाद किया जा रहा है। यह सच है कि साई की कृपा से बीते तीन साल में 88 विदेशी प्रशिक्षकों पर भारत सरकार ने 2569.63 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर भारत में पैसे की यह फिजूलखर्ची आखिर क्यों? भारत ने जब से हॉकी में विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं ली हैं कोई बड़ा परिणाम सामने नहीं आया है। हर दौरे से पहले दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन पराजय के बाद बेशर्मी ओढ़ ली जाती है। राष्ट्रमण्डल खेलों में महिला हॉकी का यह पांचवां पड़ाव था। 1998 में पहली बार महिला हॉकी को राष्ट्रमण्डल खेलों में शामिल किया गया। पहले साल भारत को चौथा स्थान मिला तो 2002 में भारतीय बेटियों ने सोने के तमगों से अपने गले सजाए थे। 2006 में भारतीय बेटियां अपने खिताब की रक्षा नहीं कर सकीं फिर भी वे उपविजेता रहीं। 2006 के बाद भारतीय हॉकी में विदेशी प्रशिक्षकों की पैठ होते ही हॉकी बंटाढार हो गया।
यदाकदा कुछ कमजोर टीमों पर विजय को छोड़ दें तो ताकतवर टीमों के सामने भारतीय हॉकी हमेशा असहाय ही नजर आई। एक समय था जब भारतीय हॉकी की दुनिया भर में तूती बोलती थी। लोग हमसे डरते थे। आज स्थिति इतनी दयनीय है कि पिद्दी टीमें भी हमें आंख दिखा रही हैं। भारतीय हॉकी का सत्यानाश होने की कई वजह हैं। हॉकी इण्डिया जब से अस्तित्व में आई है भारतीय काबिल लोगों को सिरे से खारिज किया गया है। जीहुजूरी पसंद हॉकी इण्डिया के महासचिव नरिन्दर बत्रा ने एक-एक कर उन काबिलों को खदेड़ा जिनमें भारतीय हॉकी के उत्थान की ललक थी। हॉकी के पहले द्रोणाचार्य गुरुदयाल सिंह भंगू, द्रोणाचार्य बल्देव सिंह, द्रोणाचार्य राजिन्दर सिंह, अर्जुन अवॉर्डी रेखा भिड़े, अर्जुन अवॉर्डी प्रीतम सिवाच और अर्जुन अवॉर्डी पुष्पा श्रीवास्तव आदि में महिला हॉकी के उत्थान की न केवल ललक है बल्कि यह लोग हॉकी के लिए कुछ करना चाहते हैं। अफसोस, यह सभी नरिन्दर बत्रा की आंख की किरकिरी हैं। इनका गुनाह सिर्फ यह है कि ये नहीं चाहते कि बेटियों के हक पर निठल्ले मजा करें।
गोरे हॉकी का सत्यानाश कर देंगे: बल्देव सिंह
द्रोणाचार्य अवॉर्डी बल्देव सिंह ग्लास्गो में भारतीय महिला हॉकी टीम के प्रदर्शन बेहद नाखुश हैं। इनका कहना है कि गोरे भारतीय हॉकी का सत्यानाश कर देंगे। यह हॉकी का भला नहीं बल्कि पैसा कमाने आते हैं। हम लोग ग्रासरूट से हॉकी का भला सोचते हैं लेकिन गोरे खिलाड़ियों को आपस में लड़ाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। हॉकी इण्डिया को जब ये माजरा समझ में आएगा तब तक बड़ी देर हो चुकी होगी।
हॉकी की नहीं लोगों को कुर्सी की चिन्ता: राजिन्दर सिंह
द्रोणाचार्य अवॉर्डी और भारतीय पुरुष हॉकी के कोच रहे राजिन्दर सिंह कहते हैं कि आज हमारे पुश्तैनी खेल हॉकी की चिन्ता करने की बजाए लोग अपनी कुर्सी की चिन्ता कर रहे हैं। नाजायज प्रयोगधर्मिता से हॉकी का भला नहीं हो सकता। भारतीय हॉकी को विदेशी नहीं बल्कि देशी प्रशिक्षक ही सही दिशा दे सकते हैं।
जीहुजूरों की हॉकी इण्डिया: रेखा भिड़े
अर्जुन अवॉर्डी और महिला हॉकी टीम की चयन समिति में रह चुकी रेखा भिड़े का कहना है कि हॉकी इण्डिया को हॉकी की बेहतरी से कोई सरोकार नहीं है। नरिन्दर बत्रा जैसे लोग इसे कम्पनी की तरह चलाना चाहते हैं। जो भी खिलाड़ी की बेहतरी की बात करता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। दरअसल हॉकी इण्डिया के साथ वही काम कर सकता है, जोकि नरिन्दर बत्रा की जीहुजूरी करे।
ग्रासरूट पर ध्यान दिए बिना नहीं बनेगी बात: प्रीतम
अर्जुन अवॉर्डी और भारतीय महिला हॉकी की कोच रह चुकी प्रीतम सिवाच का कहना है कि यदि हॉकी का भला करना है तो सबसे पहले ग्रासरूट पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश में हॉकी की नर्सरियां खत्म हो चुकी हैं, उन्हें पुन: पल्लवित और पोषित करने की दरकार है। विदेशी प्रशिक्षक भारतीय हॉकी की दशा नहीं सुधार सकते। जब से गोरे आए हैं हॉकी का कितना भला हुआ है, यह सबके सामने है।
विदेशी प्रशिक्षक समस्या का समाधान नहीं: पुष्पा श्रीवास्तव
अर्जुन अवॉर्डी पुष्पा श्रीवास्तव का कहना है कि किसी प्रतियोगिता में जाने से पहले हमें मजबूत टीमों से दो-दो हाथ करने चाहिए न कि मलेशिया जैसी दोयमदर्जे की टीमों के साथ। पुष्पा का कहना है कि विदेशी प्रशिक्षक समस्या का समाधान नहीं हो सकते। इतिहास गवाह है जब हमारे अपने कोच थे परिणाम सुखद आते थे। आज जो भी हो रहा है, उसे देखकर दु:ख होता है। खिलाड़ियों को सुविधाएं मिलने की जगह विदेशी आरामतलबी कर रहे हैं।
घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध
घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध यह कहावत भारतीय खेलों पर सही साबित होती है। आज भारत में कोच पैदा करने के कई स्पोर्ट्स संस्थान कार्य कर रहे हैं बावजूद देशी खेलनहार विदेशी प्रशिक्षकों का मोह नहीं त्याग पा रहे। भारत जैसे गरीब देश ने खिलाड़ियों का पेट काटकर बीते तीन साल में 88 विदेशी कोचों पर 2569.63 करोड़ रुपये निसार कर दिए हैं। इसमें भारतीय हॉकी पर लगभग डेढ़ अरब रुपया खर्च होने का अनुमान है। भारत ने 2011-12 में 31 विदेशी प्रशिक्षकों पर 790.02 करोड़ रुपये, 2012-13 में 34 प्रशिक्षकों पर 717.73 करोड़ और 2013-14 में 23 प्रशिक्षकों पर 1061.88 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
ग्लास्गो में भी हुई फजीहत, मिला पांचवां स्थान
आगरा। खिलाड़ियों के चयन में पक्षपात, हद दर्जे की लापरवाही और विदेशी प्रशिक्षकों की आरामतलबी ने भारतीय महिला हॉकी का सत्यानाश कर दिया है। दवा हो रही है, पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। पराजय दर पराजय के बाद तो बीमारी लाइलाज सी हो गई है। ग्लास्गो जाने से पहले हॉकी इण्डिया और हमारे विदेशी प्रशिक्षक नील हावर्ड ने बड़े-बड़े दावे किए थे लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा। हमारे 14 महिला-पुरुष पहलवानों ने जहां भारत की झोली में 13 पदक डाले वहीं अरबों का सैर-सपाटा करने वाली भारतीय महिला हॉकी टीम एक अदद पदक के लिए तरस गई। वह दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों की ही तरह ग्लास्गो में पांचवें स्थान पर रही।
भारतीय महिला हॉकी टीम के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद देश के द्रोणाचार्य और अर्जुन अवार्डी हॉकी इण्डिया से सवाल पूछ रहे हैं कि जब हॉकी में सुखद परिणाम नहीं मिल रहे तो आखिर विदेशी प्रशिक्षकों पर अरबों रुपया क्यों बर्बाद किया जा रहा है। यह सच है कि साई की कृपा से बीते तीन साल में 88 विदेशी प्रशिक्षकों पर भारत सरकार ने 2569.63 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर भारत में पैसे की यह फिजूलखर्ची आखिर क्यों? भारत ने जब से हॉकी में विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं ली हैं कोई बड़ा परिणाम सामने नहीं आया है। हर दौरे से पहले दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन पराजय के बाद बेशर्मी ओढ़ ली जाती है। राष्ट्रमण्डल खेलों में महिला हॉकी का यह पांचवां पड़ाव था। 1998 में पहली बार महिला हॉकी को राष्ट्रमण्डल खेलों में शामिल किया गया। पहले साल भारत को चौथा स्थान मिला तो 2002 में भारतीय बेटियों ने सोने के तमगों से अपने गले सजाए थे। 2006 में भारतीय बेटियां अपने खिताब की रक्षा नहीं कर सकीं फिर भी वे उपविजेता रहीं। 2006 के बाद भारतीय हॉकी में विदेशी प्रशिक्षकों की पैठ होते ही हॉकी बंटाढार हो गया।
यदाकदा कुछ कमजोर टीमों पर विजय को छोड़ दें तो ताकतवर टीमों के सामने भारतीय हॉकी हमेशा असहाय ही नजर आई। एक समय था जब भारतीय हॉकी की दुनिया भर में तूती बोलती थी। लोग हमसे डरते थे। आज स्थिति इतनी दयनीय है कि पिद्दी टीमें भी हमें आंख दिखा रही हैं। भारतीय हॉकी का सत्यानाश होने की कई वजह हैं। हॉकी इण्डिया जब से अस्तित्व में आई है भारतीय काबिल लोगों को सिरे से खारिज किया गया है। जीहुजूरी पसंद हॉकी इण्डिया के महासचिव नरिन्दर बत्रा ने एक-एक कर उन काबिलों को खदेड़ा जिनमें भारतीय हॉकी के उत्थान की ललक थी। हॉकी के पहले द्रोणाचार्य गुरुदयाल सिंह भंगू, द्रोणाचार्य बल्देव सिंह, द्रोणाचार्य राजिन्दर सिंह, अर्जुन अवॉर्डी रेखा भिड़े, अर्जुन अवॉर्डी प्रीतम सिवाच और अर्जुन अवॉर्डी पुष्पा श्रीवास्तव आदि में महिला हॉकी के उत्थान की न केवल ललक है बल्कि यह लोग हॉकी के लिए कुछ करना चाहते हैं। अफसोस, यह सभी नरिन्दर बत्रा की आंख की किरकिरी हैं। इनका गुनाह सिर्फ यह है कि ये नहीं चाहते कि बेटियों के हक पर निठल्ले मजा करें।
गोरे हॉकी का सत्यानाश कर देंगे: बल्देव सिंह
द्रोणाचार्य अवॉर्डी बल्देव सिंह ग्लास्गो में भारतीय महिला हॉकी टीम के प्रदर्शन बेहद नाखुश हैं। इनका कहना है कि गोरे भारतीय हॉकी का सत्यानाश कर देंगे। यह हॉकी का भला नहीं बल्कि पैसा कमाने आते हैं। हम लोग ग्रासरूट से हॉकी का भला सोचते हैं लेकिन गोरे खिलाड़ियों को आपस में लड़ाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। हॉकी इण्डिया को जब ये माजरा समझ में आएगा तब तक बड़ी देर हो चुकी होगी।
हॉकी की नहीं लोगों को कुर्सी की चिन्ता: राजिन्दर सिंह
द्रोणाचार्य अवॉर्डी और भारतीय पुरुष हॉकी के कोच रहे राजिन्दर सिंह कहते हैं कि आज हमारे पुश्तैनी खेल हॉकी की चिन्ता करने की बजाए लोग अपनी कुर्सी की चिन्ता कर रहे हैं। नाजायज प्रयोगधर्मिता से हॉकी का भला नहीं हो सकता। भारतीय हॉकी को विदेशी नहीं बल्कि देशी प्रशिक्षक ही सही दिशा दे सकते हैं।
जीहुजूरों की हॉकी इण्डिया: रेखा भिड़े
अर्जुन अवॉर्डी और महिला हॉकी टीम की चयन समिति में रह चुकी रेखा भिड़े का कहना है कि हॉकी इण्डिया को हॉकी की बेहतरी से कोई सरोकार नहीं है। नरिन्दर बत्रा जैसे लोग इसे कम्पनी की तरह चलाना चाहते हैं। जो भी खिलाड़ी की बेहतरी की बात करता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। दरअसल हॉकी इण्डिया के साथ वही काम कर सकता है, जोकि नरिन्दर बत्रा की जीहुजूरी करे।
ग्रासरूट पर ध्यान दिए बिना नहीं बनेगी बात: प्रीतम
अर्जुन अवॉर्डी और भारतीय महिला हॉकी की कोच रह चुकी प्रीतम सिवाच का कहना है कि यदि हॉकी का भला करना है तो सबसे पहले ग्रासरूट पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश में हॉकी की नर्सरियां खत्म हो चुकी हैं, उन्हें पुन: पल्लवित और पोषित करने की दरकार है। विदेशी प्रशिक्षक भारतीय हॉकी की दशा नहीं सुधार सकते। जब से गोरे आए हैं हॉकी का कितना भला हुआ है, यह सबके सामने है।
विदेशी प्रशिक्षक समस्या का समाधान नहीं: पुष्पा श्रीवास्तव
अर्जुन अवॉर्डी पुष्पा श्रीवास्तव का कहना है कि किसी प्रतियोगिता में जाने से पहले हमें मजबूत टीमों से दो-दो हाथ करने चाहिए न कि मलेशिया जैसी दोयमदर्जे की टीमों के साथ। पुष्पा का कहना है कि विदेशी प्रशिक्षक समस्या का समाधान नहीं हो सकते। इतिहास गवाह है जब हमारे अपने कोच थे परिणाम सुखद आते थे। आज जो भी हो रहा है, उसे देखकर दु:ख होता है। खिलाड़ियों को सुविधाएं मिलने की जगह विदेशी आरामतलबी कर रहे हैं।
घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध
घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध यह कहावत भारतीय खेलों पर सही साबित होती है। आज भारत में कोच पैदा करने के कई स्पोर्ट्स संस्थान कार्य कर रहे हैं बावजूद देशी खेलनहार विदेशी प्रशिक्षकों का मोह नहीं त्याग पा रहे। भारत जैसे गरीब देश ने खिलाड़ियों का पेट काटकर बीते तीन साल में 88 विदेशी कोचों पर 2569.63 करोड़ रुपये निसार कर दिए हैं। इसमें भारतीय हॉकी पर लगभग डेढ़ अरब रुपया खर्च होने का अनुमान है। भारत ने 2011-12 में 31 विदेशी प्रशिक्षकों पर 790.02 करोड़ रुपये, 2012-13 में 34 प्रशिक्षकों पर 717.73 करोड़ और 2013-14 में 23 प्रशिक्षकों पर 1061.88 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
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