रात को रेलगाड़ियां होती हैं जीआरपी और आरपीएफ के हवाले
आगरा। एक्सप्रेस ट्रेनों में मुसाफिरों की सुरक्षा के नाम पर भले कितना भी ढिंढोरा पीटा जाए, असलियत इसके विल्कुल विपरीत है। इस मामले में जीआरपी और आरपीएफ के जवानों की भूमिका संदेहजनक है। दिन और रात के वक्त मुसाफिरों की सुरक्षा इन्हीं दो फोर्स के जिम्मे रहती है। मंडल रेलवे के सेक्शन में दौड़ने वाली ज्यादातर रेलगाड़ियां दिन में बेशक टिकट परीक्षकों (टीटीई) की निगहबानी में चलती हों, लेकिन रात में ये पूरी तरह जीआरपी और आरपीएफ जवानों के हाथ का खिलौना होती हैं। बताते चलें कि यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था का दायित्व रेलवे का होता है, लेकिन रात में यही रक्षक भक्षक हो जाते हैं। ट्रेन स्क्वायड में चलने वाले जीआरपी और रेलवे सुरक्षा बल के जवान यात्रियों की सुरक्षा करने की बजाय सुनियोजित तरीके से उनसे अवैध वसूली में जुट जाते हैं।
जीआरपी और आरपीएफ के जवानों का अवैध वसूली का यह खेल रात में अमूमन हर रेलगाड़ी में होता है। मरता क्या नहीं करता की तर्ज पर यात्री भी अपनी इज्जत बचाने और अपने गंतव्य स्टेशन तक पहुंचने के लिए न चाहकर भी सब कुछ सहन करते हैं। सच्चाई यह है कि इस काम को कोई एक रेलवे पुलिस का जवान अंजाम नहीं देता बल्कि पूरी ट्रेन में चलने वाले स्क्वायड में तैनात समूचा सुरक्षा अमला इस गोरखधंधे में लिप्त होता है। ऐसा नहीं कि इसकी जानकारी ट्रेन के कोच में चल रहे टिकट परीक्षकों को न हो। कटु सत्य तो यह है कि इस काम में उनकी भी मौन स्वीकृति होती है। यात्रियों से अवैध वसूली का यह खेल प्राय: स्लीपर से लेकर जनरल कोचों में होता है।
बताते चलें कि लगभग सभी एक्सप्रेस और सुपरफास्ट ट्रेनों में जनरल के डिब्बे चार-पांच होते हैं, जबकि साधारण टिकट से यात्रा करने वालों की संख्या बहुत अधिक होती है। दिन हो या रात जनरल डिब्बों में यात्रा करना आसान बात नहीं है। जनरल डिब्बों में आराम से बैठना तो दूर उनमें प्रवेश करना ही कठिन बात होती है। यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए प्राय: जानते हुए भी मजबूरी में स्लीपर कोचों में प्रवेश करना पड़ता है। बस फिर क्या इन डिब्बों में सवार जीआरपी और आरपीएफ के जवान ऐसे यात्रियों से अवैध वसूली में मशगूल हो जाते हैं। पैसे न देने या न होने पर यात्रियों को जलालत झेलनी पड़ती है।
अरे भाई अंदर चलो-अंदर चलो...
जनरल का टिकट होने पर यात्री प्राय: स्लीपर कोचों में या तो गेट के पास खड़ा हो जाता है या फिर टॉयलेट के पास। स्टेशन से गाड़ी जैसे ही आगे के लिए रवाना होती है टिकट परीक्षक ऐसे यात्रियों से अरे भाई अंदर चलो-अंदर चलो कहता है। टिकट परीक्षक के इस शिष्टाचार या यूं कहें रहम पर यात्री बाग-बाग हो जाता है। टिकट परीक्षक तो चला जाता है लेकिन उसके बाद समूह में आते रेलवे पुलिस के जवान यात्रियों की आंख में टार्च मारते हुए टिकट चेकिंग का आडम्बर करने लगते हैं। मजबूर यात्रियों को न केवल डराया-धमकाया जाता है बल्कि उनसे जमकर चौथवसूली की जाती है। इसका कोई मानक नहीं होता।
आगरा से दिल्ली और आगरा से झांसी के देने होते हैं 100 रुपये
रेलवे पुलिस की चौथवसूली का वैसे तो कोई मानक तय नहीं है पर आगरा से दिल्ली और आगरा से झांसी के बीच का रेट 100 रुपये है। आप सौ रुपये टिकट परीक्षक को देकर स्लीपर में यात्रा करने के पात्र हो जाते हैं।
वर्षों से हो रही है जनरल बोगियां बढ़ाने की मांग
साधारण टिकट होने पर स्लीपर में यात्रा करना कानूनन जुर्म है, लेकिन यह जुर्म हर रोज करना यात्रियों का शगल बन गया है। वर्षों से यात्रियों द्वारा रेल मंत्रालय से एक्सप्रेस और सुपरफास्ट ट्रेनों में जनरल बोगियों की संख्या बढ़ाने की मांग की जा रही है, किन्तु इस दिशा में आज तक कुछ नहीं हुआ।
ट्रेनों में बढ़ रही है बेटिकट यात्रियों की संख्या
रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने संसदकाल के दौरान एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया था कि रेलवे ने 2011-12 में 1.15 करोड़ लोगों को बिना टिकट यात्रा करते हुए पकड़ा था जो 2012-13 में बढ़कर 1.37 करोड़ रुपये हो गया। वर्ष 2013-14 के दौरान बिना टिकट यात्रा करने वाले यात्रियों की संख्या बढ़कर 1.48 करोड़ हो गई। 2014 में जून तक 49.01 लाख लोगों को बेटिकट यात्रा करते हुए पकड़ा गया। रेलवे ने बेटिकट यात्रियों से 2011-12 में 477.81 करोड़ रुपया, 2012-13 में 572.61 करोड़ रुपया और 2013-14 में 637.40 करोड़ रुपया जुर्माना वसूला जबकि चालू साल 2014 में जून तक 227.67 करोड़ रुपया जुर्माना वसूला जा चुका है।
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