बेटियां हमेशा इतिहास रचती हैं और अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाती हैं बावजूद इसके वे कामकाज हासिल करने में उस पुरुष प्रधान समाज के सामने हार जाती हैं जोकि शिक्षा की परीक्षा में हमेशा उससे पीछे रहता है। देश भर के सभी राज्यों में परीक्षा परिणाम आ चुके हैं। हमेशा की तरह इस बार भी बेटियां ही अव्वल रही हैं। ये सुखद परिणाम बेटियों को न केवल हौसला बल्कि उन्हें सपने संजोने का अधिकार भी देते हैं। परीक्षाओं में अपनी शानदार कामयाबी का आगाज करने के बाद बेटियां वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अधिकारी और बहुत कुछ शिक्षक बनने का सपना संजोती हैं। बेटियों का खुद के पांव खड़े होना और अपने परिवार को सम्बल प्रदान करना बुरी बात नहीं है, पर हमारी सामाजिक रूढ़िवादिता उनके अरमानों को कभी परवान नहीं चढ़ने देती।
कहने को हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। चांद पर रहने की तैयारी कर रहे हैं लेकिन हमारी सामाजिक विचारधारा आज भी नहीं बदली है। घर से लेकर समाज तक बेटियों को ही समझौता करना पड़ रहा है, यही वजह है कि आजादी के 67 साल बाद भी आधी आबादी को उसका वाजिब हक नहीं मिल पाया है। कामकाज की दृष्टि से देखें तो आज देश के ग्रामीण क्षेत्र में 30 और शहरी क्षेत्र में मात्र 15.4 प्रतिशत ही कामकाजी महिलाएं हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र दोनों को मिलाकर देश में औसतन 25 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं ही हैं। ग्रामीण क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं की अधिकता की वजह उनका खेती-बाड़ी में हाथ बंटाना है। कृषि क्षेत्र में लगी महिलाओं में वे बेटियां शामिल नहीं हैं जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कामयाबी का परचम फहराया है। यह हमारे विकासशील देश का दुर्भाग्य ही है कि यहां मात्र 15 फीसदी बेटियां ही कामकाजी बन पाती हैं। बार-बार सवाल उठता है कि हमारी टॉपर बेटियां कहां और क्यों गुम हो जाती हैं और कहां दफन हो जाते हैं उनके अरमान। आर्थिक तंगहाली के चलते हाईस्कूल और इण्टर में अपनी शानदार सफलता का आगाज करने वाली अधिकांश बेटियों को उच्च शिक्षा पाने का मौका नहीं मिल पाता। सरकारें बेटियों की साक्षरता की अलख तो जगा रही हैं लेकिन निठल्ले सरकारी तंत्र के सामने वे लाचार हैं। बेटियां पराए घर की अमानत हैं, यह परम्परा आज भी हमारे समाज में बदस्तूर जारी है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार आज भी अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने के बजाय उनका हाथ पीला करना अपनी पहली प्राथमिकता समझते हैं। जो बेटियां मनमुताबिक उच्च शिक्षा हासिल भी कर लेती हैं उनके सपने पूरे होने में सरकारी तंत्र की अड़ंगेबाजी आड़े आती है। मजबूरन ये बेटियां घर-परिवार की जिम्मेदारियों में अपने आपको होम कर देने को विवश हो जाती हैं। बेटियों के स्वावलम्बी न बन पाने के कारण ही आज समाज में तरह-तरह की विद्रूपताएं आ खड़ी हुई हैं। यह सिर्फ बेरोजगारी का नहीं बल्कि प्राथमिकता का मामला है। जीवन में बदलाव की हमेशा गुंजाइश होती है। मुल्क में कई कामकाजी महिलाओं ने अपने कामकाज और प्रशासनिक क्षमता का लोहा मनवाया है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अतीत से अब तक बेटियों को त्याग, तपस्या, स्नेह और ममता की मूर्ति बताकर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है। कामकाजी महिलाएं आज दोहरे काम की शिकार हैं। वे दफ्तरों में काम करने के बाद घर की पूरी जिम्मेदारी का निर्वहन करने को भी मजबूर हैं। बेटियां सक्षम होते हुए भी अपने भविष्य के निर्णय पर हमेशा खामोश रहती हैं यही वजह है कि उनके अभिभावक जहां जिससे भी कहते हैं वे आंख मूंदकर शादी कर लेती हैं। आज उच्च या उच्च-मध्य वर्ग की बेटियां ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं। ऐसे में उन्हें अपने जीवन-बसर का अधिकार होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। इस मसले पर हमारे समाज और अभिभावकों में चेतना की दरकार है।
हमारा समाज पितृसत्तात्मक है यह सही है, लेकिन सबसे पहले बेटियों को खुद पर यकीन करने की भी जरूरत है। समाज का बहशीपन भी बेटियों के कामकाज में बड़ा रोड़ा है। आज बहुतेरी बेटियां नौकरी की प्रकृति और आने-जाने की समस्या आदि को देखते हुए पीछे हट जाती हैं। अभिभावक जब अपनी बच्चियों को उच्च शिक्षा दिलाते हैं तब अधिकतर लड़कियों या खुद अभिभावकों की सोच सिर्फ अधिकारी बनने तक ही सीमित रहती है, पर कई बार ऐसा सम्भव नहीं हो पाता लेकिन जरूरत खुद पर यकीन करते हुए घर से बाहर निकल कर काम करने की है, तभी समाज का माहौल अधिक सकारात्मक होगा। कामकाजी महिलाओं की सूची में अव्वल बेटियों के गुम हो जाने का दूसरा पहलू भी है। जब हम कामकाजी महिलाओं की गिनती करते हैं या यह कहते हैं कि पढ़ी-लिखी बेटियां घर बैठी हैं, तो हम गृहणियों के महत्व को कमतर आंकते हैं। तात्पर्य यह कि घर-परिवार और बच्चों की परवरिश जैसे महत्वपूर्ण काम करने वाली महिलाओं को आज भी हमारे समाज में कामकाजी महिलाओं से कमतर आंका जाता है, जोकि गलत है। बच्चों का पालन-पोषण एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लिहाजा ऐसी महिलाओं को भी उचित सम्मान मिलना ही चाहिए। आज घर-गृहस्थी के काम में लगी महिलाओं को भी उचित सम्मान दिए जाने की जरूरत है वरना महिलाओं के अस्तित्व और सम्मान को ठेस लगेगी।
जाहिर है कि बेटियां शिक्षा ग्रहण करते समय कई सपने देखती हैं। ऐसे सपने तो कतई नहीं जिसके लिए विशेष व्यावसायिक उच्च शिक्षा की जरूरत हो बल्कि यह सपना खुद को स्वावलम्बी बनाने और अपनी पहचान-अस्मिता को बनाए रखने का होता है। समय का फेर कहें या सामाजिक खोट आज बेटियों में असीम सम्भावनाएं होने के बाद भी वे अपने सपनों की उड़ान नहीं भर पातीं। मोदी सरकार यदि भारत के समुन्नत विकास का सपना साकार करना चाहती है तो उसे बेटियों को पर्याप्त प्रोत्साहन देना होगा। देश में कामकाजी महिलाओं का ग्राफ जब तक नहीं बढ़ेगा समाज की तरक्की को पर नहीं लगेंगे।
कहने को हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। चांद पर रहने की तैयारी कर रहे हैं लेकिन हमारी सामाजिक विचारधारा आज भी नहीं बदली है। घर से लेकर समाज तक बेटियों को ही समझौता करना पड़ रहा है, यही वजह है कि आजादी के 67 साल बाद भी आधी आबादी को उसका वाजिब हक नहीं मिल पाया है। कामकाज की दृष्टि से देखें तो आज देश के ग्रामीण क्षेत्र में 30 और शहरी क्षेत्र में मात्र 15.4 प्रतिशत ही कामकाजी महिलाएं हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र दोनों को मिलाकर देश में औसतन 25 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं ही हैं। ग्रामीण क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं की अधिकता की वजह उनका खेती-बाड़ी में हाथ बंटाना है। कृषि क्षेत्र में लगी महिलाओं में वे बेटियां शामिल नहीं हैं जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कामयाबी का परचम फहराया है। यह हमारे विकासशील देश का दुर्भाग्य ही है कि यहां मात्र 15 फीसदी बेटियां ही कामकाजी बन पाती हैं। बार-बार सवाल उठता है कि हमारी टॉपर बेटियां कहां और क्यों गुम हो जाती हैं और कहां दफन हो जाते हैं उनके अरमान। आर्थिक तंगहाली के चलते हाईस्कूल और इण्टर में अपनी शानदार सफलता का आगाज करने वाली अधिकांश बेटियों को उच्च शिक्षा पाने का मौका नहीं मिल पाता। सरकारें बेटियों की साक्षरता की अलख तो जगा रही हैं लेकिन निठल्ले सरकारी तंत्र के सामने वे लाचार हैं। बेटियां पराए घर की अमानत हैं, यह परम्परा आज भी हमारे समाज में बदस्तूर जारी है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार आज भी अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने के बजाय उनका हाथ पीला करना अपनी पहली प्राथमिकता समझते हैं। जो बेटियां मनमुताबिक उच्च शिक्षा हासिल भी कर लेती हैं उनके सपने पूरे होने में सरकारी तंत्र की अड़ंगेबाजी आड़े आती है। मजबूरन ये बेटियां घर-परिवार की जिम्मेदारियों में अपने आपको होम कर देने को विवश हो जाती हैं। बेटियों के स्वावलम्बी न बन पाने के कारण ही आज समाज में तरह-तरह की विद्रूपताएं आ खड़ी हुई हैं। यह सिर्फ बेरोजगारी का नहीं बल्कि प्राथमिकता का मामला है। जीवन में बदलाव की हमेशा गुंजाइश होती है। मुल्क में कई कामकाजी महिलाओं ने अपने कामकाज और प्रशासनिक क्षमता का लोहा मनवाया है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अतीत से अब तक बेटियों को त्याग, तपस्या, स्नेह और ममता की मूर्ति बताकर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है। कामकाजी महिलाएं आज दोहरे काम की शिकार हैं। वे दफ्तरों में काम करने के बाद घर की पूरी जिम्मेदारी का निर्वहन करने को भी मजबूर हैं। बेटियां सक्षम होते हुए भी अपने भविष्य के निर्णय पर हमेशा खामोश रहती हैं यही वजह है कि उनके अभिभावक जहां जिससे भी कहते हैं वे आंख मूंदकर शादी कर लेती हैं। आज उच्च या उच्च-मध्य वर्ग की बेटियां ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं। ऐसे में उन्हें अपने जीवन-बसर का अधिकार होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। इस मसले पर हमारे समाज और अभिभावकों में चेतना की दरकार है।
हमारा समाज पितृसत्तात्मक है यह सही है, लेकिन सबसे पहले बेटियों को खुद पर यकीन करने की भी जरूरत है। समाज का बहशीपन भी बेटियों के कामकाज में बड़ा रोड़ा है। आज बहुतेरी बेटियां नौकरी की प्रकृति और आने-जाने की समस्या आदि को देखते हुए पीछे हट जाती हैं। अभिभावक जब अपनी बच्चियों को उच्च शिक्षा दिलाते हैं तब अधिकतर लड़कियों या खुद अभिभावकों की सोच सिर्फ अधिकारी बनने तक ही सीमित रहती है, पर कई बार ऐसा सम्भव नहीं हो पाता लेकिन जरूरत खुद पर यकीन करते हुए घर से बाहर निकल कर काम करने की है, तभी समाज का माहौल अधिक सकारात्मक होगा। कामकाजी महिलाओं की सूची में अव्वल बेटियों के गुम हो जाने का दूसरा पहलू भी है। जब हम कामकाजी महिलाओं की गिनती करते हैं या यह कहते हैं कि पढ़ी-लिखी बेटियां घर बैठी हैं, तो हम गृहणियों के महत्व को कमतर आंकते हैं। तात्पर्य यह कि घर-परिवार और बच्चों की परवरिश जैसे महत्वपूर्ण काम करने वाली महिलाओं को आज भी हमारे समाज में कामकाजी महिलाओं से कमतर आंका जाता है, जोकि गलत है। बच्चों का पालन-पोषण एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लिहाजा ऐसी महिलाओं को भी उचित सम्मान मिलना ही चाहिए। आज घर-गृहस्थी के काम में लगी महिलाओं को भी उचित सम्मान दिए जाने की जरूरत है वरना महिलाओं के अस्तित्व और सम्मान को ठेस लगेगी।
जाहिर है कि बेटियां शिक्षा ग्रहण करते समय कई सपने देखती हैं। ऐसे सपने तो कतई नहीं जिसके लिए विशेष व्यावसायिक उच्च शिक्षा की जरूरत हो बल्कि यह सपना खुद को स्वावलम्बी बनाने और अपनी पहचान-अस्मिता को बनाए रखने का होता है। समय का फेर कहें या सामाजिक खोट आज बेटियों में असीम सम्भावनाएं होने के बाद भी वे अपने सपनों की उड़ान नहीं भर पातीं। मोदी सरकार यदि भारत के समुन्नत विकास का सपना साकार करना चाहती है तो उसे बेटियों को पर्याप्त प्रोत्साहन देना होगा। देश में कामकाजी महिलाओं का ग्राफ जब तक नहीं बढ़ेगा समाज की तरक्की को पर नहीं लगेंगे।
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