Friday 18 July 2014

कालेधन का निराला खेल

देश संकट के दौर से गुजर रहा है। आसमान छूती महंगाई को लेकर प्रतिदिन प्रदर्शन हो रहे हैं लेकिन वह कम होने का नाम नहीं ले रही। दुनिया के बेहद गरीब लोगों में एक तिहाई भारत में रह रहे हैं ऐसे हालात नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं हैं। लोग मोदी सरकार से अच्छे दिनों की अपेक्षा कर रहे हैं पर कैसे आएंगे अच्छे दिन? महंगाई कम न होने की वजह, सफेदपोशों का काला खेल है, जिससे मोदी सरकार भी अछूती नहीं है। गरीबी उन्मूलन के प्रति मोदी की प्रतिबद्धता और सबका साथ, सबका विकास की सोच तभी सार्थक हो सकती है जब उनका हर खैरख्वाह ईमानदारी की कसम खा ले, पर ऐसा सम्भव नहीं दिखता। यह बात मोदी भी भलीभांति जानते हैं।
मोदी सरकार दो महीने से लाइलाज गरीबी की दवा ढूंढ़ रही है पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। लोग मोदी से विदेशी बैंकों में जमा भारतीय कालेधन को लाने की अपेक्षा कर रहे हैं पर सरकार में ही शामिल अधिकांश लोग इस मसले  के खिलाफ हैं। विदेशी बैंकों में जमा कालाधन देश की राजनीति में लम्बे समय से बहस का बड़ा मुद्दा रहा है। कालेधन की वापसी को लेकर मुल्क में आंदोलन भी चले, पर कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला। हाल ही मोदी सरकार ने विदेशों में जमा कालेधन की असलियत का पता लगाने के लिए एसआईटी के गठन की घोषणा की। इस घोषणा के बाद उद्योग संगठन एसोचैम ने सरकार को काली कमाई को देश में वापस लाने के लिए छह महीने तक माफी स्कीम लागू करने का सुझाव देने के साथ ही मिले कुल जमा धन पर चालीस फीसदी कर लगाने की सीख दी। एसोचैम का यह सुझाव सही भी है। यदि इस राशि के दस फीसदी हिस्से को ही देश के बुनियादी विकास में खर्च कर दिया जाए तो स्थिति बदल सकती है। देश में काली कमाई न सिर्फ वापस आए बल्कि एक ठोस पॉलिसी बनाने की भी दरकार है। काला धन दो तरह का होता है। एक ऐसा जो देश के बाहर तो जमा है पर वह सरकार की नीति निर्माण पॉलिसी को प्रभावित नहीं करता। दूसरा वह जो हमारे नीति निर्माण को न केवल बुरी तरह प्रभावित करता है बल्कि आम चुनाव सहित सरकार के पॉलिसीगत निर्णयों को बदलने में भी इस्तेमाल होता है।
देखा जाए तो हमारे राजनीतिज्ञ कालेधन की वापसी का शोर तो मचाते हैं लेकिन दूसरे किस्म के कालेधन, जिसका उपयोग चुनाव के समय लगभग सभी दल करते हैं, उस पर साजिशन पर्दा डालने की सम्मिलित कोशिश की जाती है। चुनावों में खर्च होती बेहिसाब पूंजी ही भ्रष्टाचार की जनक है। यह पूंजी ही नीति निर्माण तंत्र को पूरी तरह से प्रभावित करती है। इस पूंजी पर खुली बहस कभी नहीं होती। दरअसल दुनिया के अमीर पूंजीपति देश लम्बे समय से बड़े पैमाने पर कालेधन का इस्तेमाल गरीब देशों की पॉलिसी अपनी मुनाफाखोर कम्पनियों के हित में बनवाने का खेल खेल रहे हैं। इस खेल से   विकासशील देशों का भला तो नहीं हो रहा अलबत्ता वहां भ्रष्टाचार की जड़ें जरूर गहराती जा रही हैं। चुनाव के बाद मोदी सरकार पर भी यह तोहमत लगी है। चुनाव से पूर्व नरेन्द्र मोदी को अपनी आंखों की किरकिरी मानता अमेरिका आज उनकी तरीफों के कसीदे गढ़ रहा है, उसकी भी वजह है। दरअसल अमेरिका कई राजनीतिक दलों और देशों को बाकायदा बड़ी मात्रा में चुनाव लड़ने को हवाला के जरिए पैसा देता रहा है ताकि सरकार बनने पर वह अपने मन मुताबिक नीतियों का निर्माण करवा सके।
चुनावी मदद ही नहीं अमेरिका किसी देश के खिलाफ अपने पक्ष में लॉबिंग कराने के लिए भी गरीब देशों को बेहिसाब धन देने का गुनहगार है। पूंजीपति देश विकसित देशों को कालाधन देकर वहां के आधारभूत ढांचे जैसे शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य, सड़क, आवास, सेना, उद्योग आदि पर लिए जाने वाले निर्णयों को पूरी तरह प्रभावित करते रहे हैं। 1980 के दशक में अमेरिकी सहायता और विश्व बैंक का कर्ज बेहद गरीब देशों को भारी मात्रा में यह जानते हुए भी दिया जाता रहा कि यह कर्ज सम्बन्धित देश कभी नहीं चुका पाएंगे। इसके पीछे विश्व बिरादर में भले ही गरीब देशों की मदद की बात कही जाती रही हो पर इसके पीछे का असल खेल कर्जदार देश पर अपनी चौधराहट दिखाना होता था। दुनिया के पंूजीपति देश कई मुल्कों की सरकारों को कम्युनिस्ट विचारधारा त्यागने और उसके विस्तार पर अंकुश लगाने पर भी अकूत पैसा खर्च कर चुके हैं। इसके पीछे उनकी मंशा वहां की आर्थिक और सामाजिक पॉलिसी को पूरी तरह प्रभावित कर अपना साम्राज्य स्थापित करने की रही है।
इस खेल से भारतीय राजनीति भी अछूती नहीं है। दो माह पूर्व हुए लोकसभा चुनावों में फौरी तौर पर लगभग अठारह हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च हुआ जिसमें बड़ी मात्रा में विदेशों से मिला कालाधन भी शामिल है। इस सच का भान होने पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र की मोदी सरकार को आदेश दिया था कि वह भाजपा और कांग्रेस पर विदेश से चुनावी चंदा लेने के लिए कठोर कारवाई करे। विदेशी चंदा लेना गैरकानूनी और दण्डनीय अपराध है। अफसोस, इस मामले पर जहां केन्द्र सरकार ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की वहीं पॉलिसीगत निर्णयों को प्रभावित करने वाले इस धन पर कोई बहस भी नहीं हुई। सवाल उठता है कि इस पर सभी राजनीतिक दल चुप क्यों हैं? यदि देश के सभी सफेदपोश वाकई दूध के धुले हैं तो देशहित के इस मसले पर समग्रता से बहस होनी ही चाहिए। ऐसा नहीं होना यह साबित करता है कि भारतीय लोकतंत्र के हमाम में सभी नंगे हैं। महंगाई को लेकर सड़कों पर प्रतिदिन होता नंगनाच और संसद का शोर-शराबा महज गरीबी का उपहास उड़ाना भर है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री हमेशा ऊपर से नीचे बहती है। जब देश की राजनीति ही भ्रष्ट होगी तो भला किसी भी दल का सफेदपोश क्यों न हो वह कालेधन पर किसी कठोर कार्रवाई का हिमायती कैसे हो सकता है। भारतीय लोकतंत्र आज नाजुक मोड़ पर है। चुनावों में बेहिसाब कालेधन का प्रयोग कर गलत लोग न केवल संसद की दहलीज पर कदम रख रहे हैं बल्कि जो सुख-सुविधाएं आम जनता को मिलनी चाहिए  उन पर उनका अधिकार है। लोकतंत्र की गंगोत्री बिना बुनियादी परिवर्तन के शुद्ध नहीं की जा सकती। कालेधन की वापसी में सिर्फ माफी योजना से कुछ नहीं होगा। सरकार कालेधन के उपयोग पर श्वेत-पत्र लाए और इसे हतोत्साहित करने के लिए ऐसी पॉलिसी बनाए जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे के लिए नहीं बल्कि इस मुल्क की आवाम के लिए हो।

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