भूखे पेट दौड़ना मुश्किल, मुझे एक अदद नौकरी की तलाश
श्रीप्रकाश शुक्ला
मैं देश के लिए दौड़ना चाहती हूं। मैं देश को मैडल दिलाना चाहती हूं। देश का
गौरव बढ़ाना चाहती हूं। मैं दिन-रात मेहनत भी कर रही हूं। मैंने अपने राज्य
उत्तराखंड को 400, 800 और 1500 मीटर दौड़ में दर्जनों मैडल दिलाए हैं लेकिन मैं
अपने गरीब माता-पिता पर आखिर कब तक बोझ बनकर रहूंगी। मेरे पिता तांगा चलाते हैं,
उनके सामने परिवार के भरण-पोषण की तमाम चुनौतियां हैं। तीन बहनों और दो भाइयों की
उदरपूर्ति का भार तांगे की कमाई से नहीं चल पाता बावजूद मेरे माता-पिता चाहते हैं
कि मैं देश के लिए दौड़ूं। मुल्क का नाम रोशन करूं, पर कैसे। मेरे पास सैकड़ों खेल
सर्टीफिकेट हैं। मैं एमए, बीपीएड भी हूं। एक साल का योगा सर्टीफिकेट भी है पर एक
अदद नौकरी के लिए भटक रही हूं। उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने मेरी
उपलब्धियों को देखते हुए पुलिस कांस्टेबल के लिए अनुशंसा भी की थी लेकिन नौकरी
नहीं मिली क्योंकि मेरे पास रिश्वत को पैसे नहीं थे। यह दुखद दास्तां उत्तराखंड
राज्य की उस प्रतिभाशाली एथलीट अनिता कुमारी की है जिसने अपने शानदार कौशल से
जूनियर और सीनियर स्तर पर अब तक राज्य को दर्जनों पदक दिलाए हैं।
11 मई, 1993 को
बलवीर सिंह-संतोष देवी के घर जन्मी अनिता कुमारी की कद-काठी ही नहीं उसका हौसला
देखने से लगता है कि यह बेटी भाग-दौड़ में उत्तराखंड ही नहीं भारत का भी भाल ऊंचा
कर सकती है। 24 साल की अनिता आर.के. पुरम मानपुर रोड
काशीपुर, जिला उधम सिंह नगर, उत्तराखंड की रहने वाली है। अनिता को बचपन से ही खेल
मैदानों से मोहब्बत है। वह 16 साल की उम्र में सिर्फ यह देखने गई थी कि मैदानों
में क्या होता है। एथलेटिक कोच चंदन सिंह नेगी की नजर जैसे ही इस बेटी पर गई
उन्हें लगा कि अनिता में वह सब कुछ है जोकि एक एथलीट में होना चाहिए। कहते हैं कि एक
जौहरी ही हीरे की पहचान कर सकता है। चंदन सिंह नेगी ने भी अनिता को न केवल पहचाना
बल्कि उसे दौड़ने का आदेश भी दिया। जब अनिता पहली बार ही दौड़ी तो नेगी की आंखों
में चमक आ गई और उन्हें लगा कि यह बेटी कुछ भी कर सकती है। अनिता ने अपने
प्रशिक्षक की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए पहले जूनियर स्तर पर राज्य भर में पदकों
के ढेर लगाए फिर नेशनल स्तर की प्रतियोगिताओं में भी वह जहां गई, गले में पदक लटका
कर ही लौटी। अब तक राज्य और नेशनल स्तर पर सैकड़ों पदक जीत चुकी अनिता का हौसला
पारिवारिक तंगहाली के चलते जवाब देने लगा है।
सवाल यह कि बलवीर सिंह को लगभग 300 सौ रुपये प्रतिदिन की तांगे की कमाई से
परिवार चलाना ही जब मुश्किल हो ऐसे में वह अपनी एथलीट बेटी के उचित खानपान की
व्यवस्था कैसे कर सकते हैं। अनिता का लक्ष्य देश के लिए दौड़ना है। वह दिन-रात
मेहनत भी कर रही है। इस बेटी के पास भगवान का दिया सब कुछ है लेकिन पेट भरने के
लिए उसे नौकरी की तलाश है। यह एथलीट बेटी जहां भी जाती है, इसकी तमाम उपलब्धियां
और मैदानी कौशल लोगों को तो खूब भाता है लेकिन उसे सरकारी मुलाजिम बनने का अवसर आज
तक नहीं मिला। अनिता कहती है कि मैं आखिर कब तक पिता का बोझ बनकर रहूं। मैं मेहनत
कर सकती हूं, अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने को भी तैयार हूं लेकिन पेट भरने के
लिए मुझे फूड सप्लीमेंट की दरकार है, जिसे मेरे गरीब माता-पिता नहीं दे सकते। मुझे
नौकरी मिल जाए तो मैं देश के लिए पदक जीतने का दम रखती हूं। अनिता कहती है कि 400
मीटर, 800 मीटर और 1500 मीटर की मौजूदा भारतीय धावकों और मेरे बीच कोई बड़ा फासला
नहीं है। यदि मुझे भी मदद और प्रोत्साहन मिले तो मैं इन सब को टक्कर दे सकती हूं।
मैं खेलों के लिए ही जी रही हूं। नौकरी के लिए भी मैंने खूब प्रयास किए लेकिन मुझे
हर जगह असफलता ही हाथ लगी है। मैं गरीब की बेटी हूं। मेरे पास शायद रिश्वत देने को
पैसे होते तो नौकरी मिल गई होती। दुख होता है कि जो लड़कियां मैदान में मुझसे
हमेशा हारती रही हैं, उन्हें नौकरी मिल चुकी है। मैं बदकिस्मती का शिकार हूं।
अनिता बुझे मन से बताती है कि 2016 में मुख्यमंत्री हरीश रावत जी ने मेरी तमाम
उपलब्धियों को देखते हुए पुलिस प्रमुख को कांस्टेबल पद के लिए अनुशंसा भी की लेकिन
मुझे नौकरी नहीं मिली। मैंने खेल विभाग में भी नौकरी के लिए आवेदन किया लेकिन यहां
भी निराशा ही हाथ लगी।
अनिता की जहां तक बात है उत्तराखंड की इस बेटी ने मुफलिसी का सामना करते हुए
भी मैदानों में अब तक जिस तरह का प्रदर्शन किया है इसे देखते हुए उसे नौकरी मिल
जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमारी हुकूमतें बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का लाख
बेसुरा राग अलापती हों पर बेटियों को लेकर जमीनी हकीकत में कोई फर्क नहीं दिखता।
अनिता जैसी बेटियां बार-बार जन्म नहीं लेतीं, इस बात का भान आखिर हमारे खेलतंत्र
को कब होगा। बेटियां बचाने के नाम पर अरबों रुपये निसार करने वाली हमारी सरकारों
की नजर आखिर अनिता जैसी प्रतिभाशाली बेटियों पर कब पड़ेगी। कब इन्हें इनका अधिकार
मिलेगा। उम्मीद है कि उत्तराखंड की भारतीय जनता पार्टी सरकार की नजर तांगे वाले की
बेटी पर जरूर जाएगी और अनिता को नौकरी प्रदान कर उसके सपनों को पंख जरूर लगाएगी।
एक तरफ जहां बेटियों को मैदानों में जाने से रोका जाता है वहीं अनिता के पिता
बलवीर सिंह की तारीफ करनी होगी कि वह पारिवारिक तंगहाली के बावजूद लगातार अपनी बेटी
को दौड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। अनिता उत्तराखंड के लिए ही नहीं भारत के
लिए दौड़े, इसके लिए भारतीय खेलतंत्र को उसकी मदद करनी ही चाहिए। उत्तराखंड सरकार
अनिता को खेल विभाग में नौकरी प्रदान कर न सिर्फ उसका बल्कि सैकड़ों प्रतिभाशाली
खिलाड़ियों का भला कर सकती है। अनिता पहले ही खेल विभाग में नौकरी के लिए आवेदन कर
चुकी है। क्या अनिता को इंसाफ मिलेगा या फिर यह बेटी भी चूल्हे-चौके में ही लगने
को मजबूर होगी।
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