Wednesday 12 July 2017

महिला जिमनास्टिक की पहचान दीपा करमाकर

                                              


प्रोदुनोवा को डेथ वॉल्ट कहना गलत
श्रीप्रकाश शुक्ला
बचपन की शरारती-चुलबुली दीपा करमाकर उर्फ गुड्डू को 2016 से पहले भला कौन जानता था। आज देश ही नहीं इसे दुनिया जानती है। जानना भी चाहिए आखिर उसने जिमनास्टिक जैसे खतरनाक खेल में दुनिया भर में मादरेवतन का मान जो बढ़ाया है। नौ अगस्त, 1993 को अगरतला में दुलाल-गीता करमाकर के घर दूसरी बेटी के जन्म पर बेशक बधाई गीत न गाये गये हों लेकिन आज इस बेटी के करामाती प्रदर्शन पर कर्णप्रिय राष्ट्र-धुन जरूर सुनने को मिलती है। राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगभग 80 पदक जीत चुकी भारत की यह बेटी उस समय चर्चा में आई जब उसने 2016 में रियो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई किया। दीपा से पहले जिमनास्टिक में यह उपलब्धि 11 पुरुष खिलाड़ियों के नाम तो रही लेकिन किसी भारतीय बिटिया ने विश्व मंच पर इस खेल में कभी कोई करतब नहीं दिखाया था। दीपा की इस शानदार उपलब्धि का सारा श्रेय इसके माता-पिता के साथ ही प्रशिक्षक विश्वेस्वर नंदी को जाता है जिन्होंने इसको निखारने में अपने जीवन के अमूल्य क्षण होम किए हैं।
दीपा ने रियो ओलम्पिक खेलों की परीक्षण प्रतियोगिता में वाल्टस फाइनल में स्वर्ण पदक जीतकर यह उपलब्धि प्राप्त की थी। यह पहली बार था जब किसी भारतीय महिला ने वैश्विक जिम्नास्टिक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता। भारत को 52 साल बाद यह खुशी मिली थी क्योंकि इससे पहले भारत की कोई बेटी ओलम्पिक की जिमनास्टिक प्रतियोगिता हिस्सा नहीं ले सकी थी। दीपा को देश की बेस्ट आर्टिस्ट जिमनास्ट होने के चलते 2015 में अर्जुन पुरस्कार तो 2016 में राजीव गांधी खेलरत्न से नवाजा जा चुका है। 2014 में ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीतने के बाद चर्चा में आई दीपा ने वर्ष 2015 में एशियाई जिमनास्टिक चैम्पियनशिप में भी कांस्य पदक हासिल किया। इससे पहले 2007 में दीपा ने जूनियर राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में जीत दर्ज की थी। इसके बाद से उन्होंने राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुल 77 पदक जीते जिनमें 67 स्वर्ण पदक शामिल हैं। दीपा से पहले भारत की ओर से 11 पुरुष जिमनास्ट ओलम्पिक में हिस्सा ले चुके थे। 1952 के ओलम्पिक में दो, 1956 के ओलम्पिक में तीन और 1964 के ओलम्पिक में भारत के छह एथलीट जिमनास्टिक प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुके हैं लेकिन 1964 के बाद यह पहला मौका था जब कोई भारतीय जिमनास्ट ओलम्पिक प्रतियोगिता में न केवल शामिल हुआ बल्कि अपने करिश्मे से सबको हैरत में डाल दिया। दीपा मामूली अंतर से पदक से तो चूक गई लेकिन भारत की यह बिटिया टोक्यो ओलम्पिक में पदक जीतने को प्रतिबद्ध है।
दीपा बताती हैं कि हमारे खेल में कुछ बातें अलग हैं। ड्रेस, मेकअप, डांस जैसी चीजें भी जिमनास्टिक का हिस्सा होती हैं। जब मैं पहली बार प्रतियोगिता में उतरी थी उस समय मेरे पास सलीके के जूते तक नहीं थे। ड्रेस बहुत महंगी होती हैं। विदेशी ड्रेस तो 10-15 हजार रुपये तक की होती है। हम तो पहले अपने देश में ही बनी ड्रेस पहनते थे। अब जाकर विदेशी ड्रेस पहनना शुरू किया है। उसे पहनने के बाद बहुत अच्छा लगता है। आज मुझसे कोई पूछे कि तुम्हें क्या खरीदना है तो मैं तो हमेशा कस्ट्यूम ही खरीदूं। आज मेरे पास 10-15 विदेशी ड्रेस इकट्ठा हो गई हैं। ये ड्रेस अलग-अलग रंगों की होती हैं। अपने लिए हम खुद ही ड्रेस पसंद करते हैं। वैसे तो मुझे पीला रंग बहुत पसंद है लेकिन कम्पटीशन के लिए जाते वक्त यह देखना पड़ता है कि जिमनास्टिक एरीना का रंग कैसा है, उसे देखकर ही मैं अपनी ड्रेस का रंग पसंद करती हूं। जब हम एरीना में होते हैं तब तो दिमाग में सिर्फ कम्पटीशन चल रहा होता है लेकिन बाद में जब ड्रेस में अपनी तस्वीरें देखते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। मेरे पास एक सफेद ड्रेस थी वह मेरे ऊपर बहुत फबती थी।
दीपा कहती हैं कि जिमनास्टिक एक ऐसा खेल है जिसमें मेकअप भी करना होता है। जिमनास्ट खुद ही मेकअप करते हैं। मेरा खेल है आर्टिस्टिक जिमनास्टिक इसीलिए खुद को सुन्दर दिखाना होता है। वैसे मैं मेकअप कम ही पसंद करती हूं लेकिन जब कम्पटीशन के लिए जाती हूं तो थोड़ा बहुत मेकअप करती हूं। जब हम खिलाड़ी एरीना में होते हैं तो बाकायदा एक दूसरे की तारीफ भी होती है। बचपन में मुझे कभी मेकअप बिन्दी लिपिस्टिक का शौक नहीं था। अब भी थोड़ा बहुत ही करती हूं। एकाध इवेंट में तो डांस भी करना होता है। उसके भी नम्बर मिलते हैं इसलिए मैं डांस भी करती हूं। मुझे डांस करना ज्यादा नहीं आता लेकिन उसे भी मैं अच्छी तरह करना चाहती हूं क्योंकि उसके भी नम्बर होते हैं। मेरे करियर से प्रोदुनोवा का नाम जुड़ा हुआ है। 2016 से पहले प्रोदुनोवा कोई जानता भी नहीं था। आज इस शब्द से हर कोई वाकिफ है। यहां तक कि मुझे तो लगता है कि हिन्दुस्तान में कोई जिमनास्टिक के खेल को भले ही न जानता हो लेकिन प्रोदुनोवा के बारे में हर कोई जानता है।
दीपा कहती हैं कि कुछ दिनों पहले की बात है मैं टैक्सी से दिल्ली जा रही थी। रास्ते में टैक्सी वाले ने नंदी सर से पूछा कि इंदिरा गांधी स्टेडियम में तो अभी कुछ नहीं हो रहा है फिर आप वहां क्या करने जा रहे हैं। सर ने बताया कि वहां स्पोर्ट्स हॉस्टल है। टैक्सी वाले को उसके बारे में नहीं पता था। फिर उसने पूछा कि अच्छा आप कौन सा खेल खेलते हो। मैंने कहा जिमनास्टिक। उसे जिमनास्टिक के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था। फिर नंदी सर ने हाथ से दिखाया कि जिमनास्टिक क्या होता है। वह टैक्सी वाला बड़े आराम से कहता है कि अरे ये तो वही खेल है जो प्रोदुनोवा करती है। हम हैरान थे कि उसे खेल के बारे में नहीं पता, मेरा नाम नहीं पता लेकिन प्रोदुनोवा पता है। फिर नंदी सर ने बताया कि यही वह लड़की है। टैक्सी वाला बहुत खुश हुआ और वह मुझे अपलक देखता रहा।
दीपा बताती हैं कि ओलम्पिक से पहले मैंने एक हफ्ते में सौ बार से अधिक प्रोदुनोवा की प्रैक्टिस की थी। मेरे लिए बहुत आसान हो गया था। पता नहीं लोग इसे लेकर इतना डराते क्यों हैं, लोग इसको डेथवॉल्ट तक कहते हैं। मुझे तो बहुत आसान लगता है। ओलम्पिक में जाने से पहले मैं आठ घंटे प्रैक्टिस करती थी। सुबह साढ़े आठ से साढ़े बारह और फिर शाम को साढ़े चार से साढ़े आठ तक। इसमें से प्रोदुनोवा की प्रैक्टिस एक से डेढ़ घंटे करती थी। मुझे कभी इसको लेकर डर नहीं लगा। प्रैक्टिस अच्छी तरह से की है तो प्रोदुनोवा करना बिल्कुल मुश्किल नहीं है। मुझे याद है कि ओलम्पिक से पहले एक दिन एक विदेशी कोच ने हमारा लाइन अप कराया। प्रैक्टिस के दौरान वह बोले कि लड़के तो मेडल ला सकते हैं लेकिन लड़कियां कभी मेडल नहीं ला सकतीं। उस रोज नंदी सर को बहुत बुरा लगा। उनकी आंखों में आंसू थे। उन्होंने उसी दिन आकर कहा कि अब तो हमें इस बात का जवाब देना है। उस दिन के बाद उस विदेशी कोच से मुलाकात तो नहीं हुई लेकिन उनको अब तक मेरे बारे में पता जरूर चल गया होगा।
दीपा कहती हैं कि ओलम्पिक मेडल से पहले ओलम्पिक में क्वालीफाई करना भी बहुत मुश्किल होता है। दुनिया भर के जिमनास्ट के साथ कम्पटीशन करने के बाद ओलम्पिक में जगह मिलती है। इतनी मेहनत के बाद कोई भी एथलीट ओलम्पिक में घूमने नहीं जाता बल्कि मेडल जीतने ही जाता है। मुझे वहां लोगों ने पूछा था कि किसी ने कहा है कि एथलीट घूमने जाते हैं लेकिन मुझे कुछ पता ही नहीं था इसलिए मैं कुछ नहीं बोली। रियो में ही आप देखिए पी.वी. सिन्धु और साक्षी मलिक ने मेडल जीता लेकिन मेरी बदकिस्मती थी कि मैं मेडल से चूक गई। दीपा करमाकर कहती हैं कि मेरे कोच नंदी सर मेरे पिता की तरह हैं। मैं पिछले सोलह साल से उनके साथ हूं। वह अपनी बेटी की तरह मेरा ख्याल रखते हैं। जब मैं घर में रहती हूं तब भी वह मुझे चार-पांच बार फोन करते हैं। सुबह-दोपहर-शाम-रात। क्या कर रही हो, क्या खाया, हर एक बात वह मुझसे पूछते हैं। घर पर आएंगे, तो चेक करेंगे कि मैं कैसी हूं। मेरी तबियत कैसी है। इतने से काम नहीं चलेगा तो वह मेरे पापा-मम्मी को भी फोन करके मेरी खबर लेते रहते हैं। वह अगर मेरे कोच न भी होते तब भी उनका व्यवहार, बातचीत का तरीका बहुत अच्छा है। मेरे अच्छे के लिए उनका कुछ बिगड़ जाए तो भी वह उसकी परवाह नहीं करते। उनका खुद का एक बेटा है। मेरी ही उम्र का है। एक बार उसने अपने इम्तिहान के वक्त कोच सर को बुलाया कि पापा आप आ जाओ लेकिन सर ने मना कर दिया कि अभी दीपा का कम्पटीशन है। जब मैं उनके बेटे की जगह खुद को रखती हूं तो बुरा भी लगता है। सर के खाने-पीने-सोने का टाइम हम लोगों की प्रैक्टिस की वजह से अस्त-व्यस्त ही रहता है। फिर भी वह रात-दिन लगे रहते हैं। मैं अपना घर छोड़कर दिल्ली में ट्रेनिंग करती हूं, वह हमेशा मेरे साथ रहते हैं। उन्होंने अपने घरवालों को मेरी ट्रेनिंग के लिए छोड़ा हुआ है। उनकी पूरी कोशिश है कि मेरी कामयाबी के लिए वह जीजान लगा दें। यही वजह है कि जब अन्य खिलाड़ी विदेशी कोच के साथ ट्रेनिंग के लिए जाते थे तो मैंने नंदी सर के साथ ही रहना ठीक समझा।
मुझे लगता है कि हमारे भारतीय कोच जो काम करते हैं, वे देश के लिए करते हैं। वे हमारे देश के झंडे को हमेशा ऊपर देखना चाहते हैं। काम विदेशी कोच भी करते हैं पर भारतीय कोच की भावना ही अलग होती है। मैं अब भी यह सोचती हूं कि मैंने भारतीय कोच से सीखकर ही करियर शुरू किया था। मुझे याद है कि नेशनल में भी जीतना बहुत मुश्किल होता था। बहुत टफ कम्पटीशन होता था। उसमें सर बोलते थे कि तुम्हें दो-तीन मेडल तो लाना ही है। वह हमारे साथ पूरी मेहनत करते थे। उन्होंने ट्रेनिंग सेशन का टाइम बढ़ा दिया। उस वक्त मेरे एंकल में भी थोड़ी तकलीफ थी। इसके बाद भी उन्होंने कोई रियायत नहीं बरती। बोले- तुम्हें जीतना है, तो जीतना है। आखिर मैं कायमाब हुई। उन दिनों जीत के बाद आज की तरह सेलिब्रेशन नहीं होता था लेकिन जीतने के बाद जब वापस अपने त्रिपुरा पहुंची तो एयरपोर्ट पर हमारा खूब स्वागत हुआ। पांच गोल्ड जीतने के बाद जब वापस घर पहुंची तो खूब तारीफ हुई थी। इन कामयाबियों के बाद भी कोच सर से प्रैक्टिस के वक्त बहुत डांट पड़ती है। प्रैक्टिस में जरा सी भी चूक हुई तो वह माफ नहीं करते। उनकी बातें बहुत चुभती हैं। कई बार तो मैं बोलती हूं कि सर आप एक थप्पड़ मार दीजिए लेकिन बातों से मत मारा कीजिए। दरअसल, उन्हें बिल्कुल परफेक्शन चाहिए।
मैंने नंदी सर से सीखकर ही कॉमनवेल्थ खेलों का मेडल जीता था। फिर ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई किया। जब क्वालीफाई कर लिया तो लगा कि अपने कोच के साथ मैं और भी अच्छा कर सकती हूं। भारतीय कोच बहुत मेहनत करते हैं। 2014 के मेडल की दिलचस्प कहानी है। 2010 में हमारे खेल में लड़कों को मेडल मिला था। इसके बाद लड़कों को ज्यादा सहूलियतें मिलती थीं। यहां तक कि अगर वॉल्टिंग भी करनी हो तो इंतजार करना पड़ता था कि लड़के पहले कर लें, फिर हम करेंगे। घंटे-घंटे भर रुकना पड़ता था। बड़ी बेइज्जती महसूस होती थी कि हम कुछ कर ही नहीं सकते हैं। मैंने तय किया कि 2014 में चाहे जो हो जाए मुझे मेडल जीतना ही है। सर ने भी मुझे यही टारगेट दिया था। एक दिन उन्होंने वॉल्ट में एक नई तकनीक के बारे में पूछा कि वह हम कर पाएंगे या नहीं। मैंने हां कर दी। इसके बाद एक विदेशी कोच आए थे। उन्होंने बोला कि लड़कियां कुछ नहीं कर पाएंगी। हमें बहुत गुस्सा आया। इसके बाद तो सिर्फ और सिर्फ ट्रेनिंग की। बाद में मैं उस चुनौती पर खरी उतरी।
दीपा कहती हैं कि अगर जिमनास्टिक में मुझे डालने का श्रेय पापा को है तो मैं आज जिस जगह पर हूं उसका श्रेय मैं नंदी सर को देती हूं। दरअसल उनके सेक्रीफाइस के इतने किस्से हैं कि मैं बता नहीं सकती। लोग कहते थे कि जिमनास्टिक में भारतीय कोच बहुत दूर तक नहीं जा सकते पर मेरे कोच ने उस बात को गलत साबित किया है। देश में आधे लोग त्रिपुरा के बारे में जानते तक नहीं हैं। जहां पहले उस तरह की सुविधाएं भी नहीं थीं लेकिन सर ने मुझे यहां तक पहुंचाया। 2016 ओलम्पिक के बाद ही लोगों को पता चला कि एक ऐसा भी खेल है जिसमें लड़कियां भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं। अगर मैं किसी और खेल में होती तो शायद मुझे यह संदेश देने का मौका नहीं मिला होता।
दीपा कहती हैं कि मेरे मम्मी-पापा ने बेटे-बेटी में कभी कोई फर्क नहीं रखा। उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम लड़की हो इसलिए यह मत करो या वह मत करो। मुझ पर कभी आस-पड़ोस या रिश्तेदारों का ऐसा दबाव नहीं था कि मैं लड़की होकर खेल क्यों रही हूं। पापा ने पहले ही तय कर लिया था कि उनकी दो बेटियां हैं। एक को वह खेल के क्षेत्र में जरूर रखेंगे। इसलिए किसी ने कोई मजाक नहीं किया। हमारे परिवार के सामने कोई आर्थिक संकट भी नहीं था। जिमनास्टिक के खेल में पैसा तो खर्च होता है पर उसके लिए मेरे पिता तैयार थे। मेरे लिए चीजें इसलिए भी आसान थीं क्योंकि मैं सरकारी जिम में जाती थी। पापा कोच थे इसलिए खाने-पीने का भी वही देखते थे। कॉस्ट्यूम भी मिल ही जाती थी। अगर कोई निजी स्तर पर ये तैयारियां करे तो शायद खर्च ज्यादा होगा। मेरे खेल को सभी ने हमेशा एप्रीसिएट किया। यहां तक कि अगर कभी किसी चैम्पियनशिप में मेरा मेडल नहीं आया तब भी सभी ने बहुत मोटिवेट किया। आस-पड़ोस के लोगों ने कहा- कोई बात नहीं मेडल इस बार नहीं आया तो अगली बार आएगा। रियो ओलम्पिक में पीवी सिन्धु और साक्षी मलिक की कामयाबी के बाद लोगों की सोच में और फर्क आया है। मेरे बचपन की यादों में एक खूबसूरत याद मेरी दादी की है। मैं दादी को बहुत मिस करती हूं। बचपन में मैं और मेरी बहन दादी के साथ ही सोते थे। दादी हमें बहुत प्यार करती थीं। जब हम छोटे थे तो कभी-कभी बगैर नहाए ही खाना खाने बैठ जाते थे। दादी को जैसे ही पता चलता वह आतीं और खाने से पहले हमें ले जाकर अच्छी तरह नहलाती थीं। बचपन में कभी-कभार जब पढ़ाई के लिए मां से डांट पड़ती थी तो दादी ही हमें बचाती थीं। वैसे आजकल के बच्चों की तरह खाने-पीने को लेकर मैं ज्यादा परेशान नहीं करती थी। चुपचाप अच्छी तरह खा-पी लेती थी। मैंने अपना ग्रेजुएशन पूरा कर लिया है। अभी मैं त्रिपुरा विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में मास्टर डिग्री के लिए पढ़ाई कर रही हूं।
दीपा बताती हैं कि मैंने 2002 में अपना पहला मेडल जीता था। अगरतला में ही एक प्रतियोगिता हुई थी। उस वक्त मेरी उम्र सात-आठ साल रही होगी। मुझे तो उस वक्त गोल्ड मेडल का मतलब भी अच्छी तरह नहीं पता था। बस खुशी इस बात की थी कि मैंने अपने से सीनियर दीदी को हराया था। इसके साथ-साथ एक और बात से मैं बहुत खुश थी। मुझे मेडल के साथ-साथ एक ट्रैकसूट मिला था। बीएस नंदी सर के पास त्रिपुरा के अच्छे-अच्छे जिमनास्ट ट्रेनिंग लेने के लिए आते थे। उनमें से कुछ ने तो राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल भी जीता था। मैंने जब उनको देखा तो मुझे बहुत अच्छा लगा। उस वक्त मेरी उम्र की तीन लड़कियां थीं जो नंदी सर से सीख रही थीं। कभी-कभी मुझे लगता था कि सर बड़ी दीदी लोगों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। एक दिन सर ने इसकी वजह समझाई। उन्होंने कहा कि अगर तुमने इससे ज्यादा प्रैक्टिस की तो फिर पढ़ाई बिल्कुल नहीं कर पाओगी क्योंकि ज्यादा ट्रेनिंग के बाद शरीर पढ़ाई के लायक नहीं बचेगा। सर की बात हमारी समझ में आ गई। फिर धीरे-धीरे और भी दूसरी प्रतियोगिताओं में मेडल आने लगे। एक बार बचपन में प्रैक्टिस के दौरान ही मेरे हाथ की हड्डी टूट गई थी। एक-दो महीने में हाथ फिर ठीक हो गया। तो दोबारा प्रैक्टिस शुरू हो गई। इन छोटी-मोटी बातों के बावजूद मैं कभी डबल माइंडेड नहीं हुई कि मुझे जिमनास्टिक की बजाय कोई और खेल खेलना है। मुझे हमेशा लगता था कि अच्छा किया पापा-मम्मी ने कि मुझे जिमनास्टिक में ही डाला। स्पोर्ट्स में तो यह सब चलता ही रहता है। बचपन में जब कभी मैं जिम में ज्यादा एक्सपेरीमेंट कर लेती तो सर पापा से बता देते थे। जैसे मान लीजिए कि सर ने किसी चीज को एक बार करने के लिए बोला तो मैं तीन बार कर लेती थी। किसी भी चीज को जरूरत से ज्यादा करने पर चोट लगने का खतरा रहता था। उनकी शिकायत के बाद पापा से डांट पड़ती थी। सर पापा को बता देते कि यह ज्यादा भाग-दौड़ करती है। फिर पापा बोलते थे कि ज्यादा भाग-दौड़ करोगी तो जिम से निकाल देंगे।
दरअसल, ट्रेनिंग को लेकर नंदी सर का कमिटमेंट ही अलग था। उनके लिए सही तरीके से प्रैक्टिस से बढ़कर कुछ भी नहीं था। साढ़े तीन बजे से लेकर साढ़े सात बजे तक का समय ट्रेनिंग के लिए होता था। दीपा बताती है कि जब वाल्टिंग में स्कूल नेशनल में मुझे गोल्ड मेडल मिला उससे सर बहुत खुश हुए थे। इसके बाद तो सर जो सिखाते गए मैं वही करती चली गई। मेरा पूरा बचपन जिमनास्टिक में ही बीता है। मैंने साढ़े पांच साल की उम्र से ही जिमनास्टिक शुरू कर दी थी। तब तक मैंने स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था। पापा स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया में वेटलिफ्टिंग के कोच थे। परिवार में खेल का अच्छा खासा माहौल था। मेरी बुआ तैराक थीं। फूफाजी भी जिमनास्ट थे। मेरे कजिन जिमनास्टिक करते थे। मेरी बहन योग करती थी। बचपन में पापा ही मुझे जिमनास्टिक कराने के लिए लेकर जाते थे। उन्होंने सोच लिया था कि अपनी दोनों बेटियों में से एक को खेल की दुनिया में जरूर ले जाएंगे। इसके लिए उन्होंने मुझे चुना। तब मैं सोमा मैडम के पास जाती थी। वहां जिम में मैं खूब शरारत करती थी। कभी किसी को मार दिया तो कभी किसी को धक्का दे दिया इसे बंगाली में दुष्टामि कहते हैं। मैं ऐसी शरारतें खूब करती थी। जब स्कूल जाना शुरू किया तो मैं वहां भी झगड़ा कर लेती थी। यहां तक कि मैं अपनी बड़ी बहन को भी नहीं छोड़ती थी। उसे मार तक देती थी। घर में दीदी के साथ मैंने खूब मार-पिटाई की है। अगर घर में हम दोनों के लिए आइसक्रीम आई तो मैं अपनी वाली आइसक्रीम जल्दी-जल्दी खा लेती थी फिर दीदी वाली पर मेरी नजर रहती थी। मैं जिद करके उसमें भी हिस्सा लेती थी। इन बातों पर उनसे मेरा झगड़ा होता था। दीदी जब कभी मुझे मारने के लिए आती मैं फटाफट घर से बाहर भाग जाती थी। मेरे घर वालों ने शायद तभी नोटिस किया कि मैं हर वक्त इधर से उधर कूदती रहती हूं। वैसे जिमनास्टिक की उम्र भी यही होती है चार-पांच साल। पापा कोच थे ही सो उन्होंने सोचा कि अगर मुझे जिमनास्टिक करानी ही है तो कम उम्र से ही शुरू करनी होगी। जिमनास्टिक में मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। मुझे याद है कि घर की तरह ही जिम में भी मैं इधर से उधर कूदती रहती थी। कहीं से भी कूद जाती थी। चोट लगने से बिल्कुल नहीं डरती थी। जिम में प्रैक्टिस शुरू की तो अपने लिए नए-नए चैलेंज तलाशती रहती थी। यहां तक कि सीनियर दीदी लोग जिम में जिस तरह की प्रैक्टिस करती थीं मैं भी वैसा करने की कोशिश करती। लेकिन कुछ बड़े होने पर जब मैं आगे की ट्रेनिंग की तैयारी कर रही थी तो पहली बार एक परेशानी का पता चला। मेरा पैर फ्लैट-फुट था। उसके पहले किसी ने यह बात नहीं कही थी। जब हॉस्टल में जाने का वक्त आया तो एक सर ने बताया कि ये जिमनास्टिक नहीं कर सकती क्योंकि इसका फ्लैट-फुट है। तब मैं करीब आठ-नौ साल की थी। आमतौर पर यह बात मानी जाती है कि अगर किसी का फ्लैट-फुट है तो वह जिमनास्टिक नहीं कर सकता। लेकिन इसके बाद मैं नंदी सर के पास गई। उन्होंने मुझे कुछ एक्सरसाइज कराना शुरू किया। वह जैसा बोलते थे, मैं बिल्कुल वैसा ही करती थी। धीरे-धीरे मेरी परेशानी खत्म हो गई और मैंने प्रापर प्रैक्टिस शुरू कर दी।
दीपा बताती हैं कि मेरे ऊपर कभी भी इस बात का दबाव नहीं रहा कि सिर्फ पढ़ाई पर मुझे फोकस करना है। बावजूद इसके स्कूल में भी मैं अच्छी ही थी। ज्यादातर क्लासेज में मैं पहली तीन लड़कियों में ही रहती थी। इसलिए मुझे हर कोई बहुत प्यार करता था। मेरे स्कूल से भी मुझे बहुत सपोर्ट मिला। मेरा स्कूल मार्निंग सेशन का था। तब तक मुझे कोई परेशानी नहीं होती थी। बाद में जब मेरा स्कूल चार बजकर बीस मिनट तक का हो गया तब मुझे जिमनास्टिक की प्रैक्टिस के लिए जाने में दिक्कत होती थी। स्कूल वालों को पता चला तो उन्होंने मुझे तीन बजे ही छुट्टी देनी शुरू कर दी। अगर मुझे किसी बड़े टूर्नामेंट में भाग लेना होता तो उससे पहले भी छुट्टी मिल जाती थी। बचपन में अगर स्कूल ने सपोर्ट न किया होता तो जिमनास्टिक की प्रैक्टिस अच्छी तरह नहीं हो सकती थी।

स्कूल में मेरे चार-पांच पक्के दोस्त थे। वे अक्सर मुझसे पूछते- तू पहले क्यों चली जाती है। मैं उन्हें बताती थी कि मेरा जाना जरूरी है। बाद में जब वे मेरे खेल को जान गए तो वे आगे बढ़कर मदद करने लगे। प्रैक्टिस पर जाने के लिए जो क्लास मुझे छोड़नी पड़ती, उनके सारे नोट्स मेरे दोस्त ही मुझे दिया करते थे। कभी-कभी स्कूल में कोई कार्यक्रम हो रहा होता तब भी मैं तीन बजे के बाद स्कूल में नहीं रुकती थी। मुझे याद है कि मैंने कभी भी स्कूल में पूरी क्लास नहीं की। कभी-कभार मेरे दोस्तों को गुस्सा भी आता था कि मैं खेल के साथ-साथ पढ़ाई में भी अच्छा कर लेती थी। उन्हीं के नोट्स लेकर उन सबसे अच्छे नम्बर लाती थी लेकिन बाद में उन्हें जब पता चल गया कि मेरे लिए जिमनास्टिक कितनी जरूरी है तो उन्होंने मुझे बहुत सपोर्ट किया। जब स्कूल छूटा तो उसके बाद वे सारे दोस्त मेरे सम्पर्क से बाहर हो गए। मैं सिर्फ और सिर्फ जिमनास्टिक पर फोकस करने लगी इसीलिए मैं आज इस मुकाम पर हूं। मेरा अगला लक्ष्य टोक्यो ओलम्पिक में पदक जीतना है।

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