जो मन में ठाना उसे
कर दिखाया

13 मार्च, 1981 को थाणे जिले के भिवंडी में जन्मे इस शख्स
ने भी बचपन में बहुत सारे सपने देखे थे। 16 मई, 2002 को दोस्तों के साथ खड़वली नदी
में पिकनिक मनाने गये आदिल अंसारी का सिर नदी में गोता लगाते एक पत्थर से टकरा गया
और उनकी गर्दन और रीढ़ की हड्डी टूट गई। आदिल को गम्भीर हालत में मुम्बई के
हरिकिशन दास हास्पिटल में भर्ती कराया गया। वह 28 दिन तक वेंटिलेटर पर जीवन और मौत
से जूझते रहे। आदिल की जान तो बच गई लेकिन वह 90 फीसदी शारीरिक अक्षम हो गए। कोई
तीन साल तक बिस्तर में पड़े रहे आदिल अंसारी ने अपने लिए कुछ लक्ष्य तय किए।
लक्ष्य आसान नहीं थे लेकिन उनकी दृढ़-इच्छाशक्ति पक्की थी। आदिल को बचपन से ही
खेलों में दिलचस्पी थी लिहाजा उन्होंने ह्वीलचेयर को अपना मददगार तो माना लेकिन
ताउम्र की मंजिल कदाचित नहीं। आदिल ने अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए सबसे
पहले स्वावलम्बी बनने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने अपने भाई के साथ डेयरी
फार्म खोला और सफलता की राह चल निकले। आदिल को दिव्यांगों के प्रति सहानुभूति
दिखाने वालों से चिढ़ है। उनका मानना है कि निःशक्तों की दयनीय स्थिति पर चिन्ता
प्रकट करना उसके उत्साह और मनोबल को तोड़ने के समान है। यह सच भी है यदि किसी के
मन में हीनभावना घर कर जाए तो वह पूरी जिन्दगी उससे उबर नहीं पाता और पराश्रित जीवन
ही जीता है।
अब नजरें टोक्यो
पैरालम्पिक पर
मन में उमंग और जीवन में कुछ करने की चाहत हो तो अपंगता भी
प्रगति में आड़े नहीं आती। इस क्रम में अवरोध तब पैदा होता है, जब निजी अक्षमता को
लेकर मनुष्य अपनी सामर्थ्य को कम करके आंकना शुरू कर देता है। सच्चाई यह है कि
उसकी असमर्थता शारीरिक कम, मानसिक ज्यादा होती है। भौतिक अंग-अवयवों की कमी किसी
की प्रतिभा के प्रकट-प्रत्यक्ष होने में उतनी बाधा पैदा नहीं करती, जितनी कि मन की
हताशा। अपने 35 साल के जीवन में राइडिंग में दो नेशनल लिम्का बुक आफ रिकार्ड अपने
नाम कर चुके रियल चैम्पियन आदिल अंसारी दुनिया के दिव्यांगों को संदेश देते हुए
कहते हैं कि शरीर के किसी हिस्से के निःशक्त हो जाने से जिन्दगी खत्म नहीं हो जाती
लिहाजा दिव्यांगता को कमजोरी नहीं अपनी ताकत बनाएं। तैराकी और राइडिंग में अपार
सफलता के बाद आदिल का अगला लक्ष्य टोक्यो पैरालम्पिक है, जिसमें वह अपने धनुष-बाण
से अचूक निशाने साधते हुए मादरेवतन का नाम रोशन करना चाहते हैं।

13 मार्च, 1981 को थाणे जिले के भिवंडी में जन्मे इस शख्स
ने भी बचपन में बहुत सारे सपने देखे थे। 16 मई, 2002 को दोस्तों के साथ खड़वली नदी
में पिकनिक मनाने गये आदिल अंसारी का सिर नदी में गोता लगाते एक पत्थर से टकरा गया
और उनकी गर्दन और रीढ़ की हड्डी टूट गई। आदिल को गम्भीर हालत में मुम्बई के
हरिकिशन दास हास्पिटल में भर्ती कराया गया। वह 28 दिन तक वेंटिलेटर पर जीवन और मौत
से जूझते रहे। आदिल की जान तो बच गई लेकिन वह 90 फीसदी शारीरिक अक्षम हो गए। कोई
तीन साल तक बिस्तर में पड़े रहे आदिल अंसारी ने अपने लिए कुछ लक्ष्य तय किए।
लक्ष्य आसान नहीं थे लेकिन उनकी दृढ़-इच्छाशक्ति पक्की थी। आदिल को बचपन से ही
खेलों में दिलचस्पी थी लिहाजा उन्होंने ह्वीलचेयर को अपना मददगार तो माना लेकिन
ताउम्र की मंजिल कदाचित नहीं। आदिल ने अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए सबसे
पहले स्वावलम्बी बनने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने अपने भाई के साथ डेयरी
फार्म खोला और सफलता की राह चल निकले। आदिल को दिव्यांगों के प्रति सहानुभूति
दिखाने वालों से चिढ़ है। उनका मानना है कि निःशक्तों की दयनीय स्थिति पर चिन्ता
प्रकट करना उसके उत्साह और मनोबल को तोड़ने के समान है। यह सच भी है यदि किसी के
मन में हीनभावना घर कर जाए तो वह पूरी जिन्दगी उससे उबर नहीं पाता और पराश्रित जीवन
ही जीता है।
आदिल अंसारी ने अपनी कठिन मेहनत से अपंगता को किसी भी
क्षेत्र में आड़े नहीं आने दिया। चूंकि खेलों में इनकी अभिरुचि बचपन से ही थी सो
उन्होंने न केवल तैरना सीखा बल्कि नवम्बर 2014 में इंदौर में हुई 14वीं राष्ट्रीय
पैरालम्पिक तैराकी चैम्पियनशिप की 50 मीटर फ्रीस्टाइल और बैकस्ट्रोक स्पर्धा में
दो स्वर्ण पदक जीतकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। आदिल अंसारी महाराष्ट्र स्टेट
पैरालम्पिक स्वीमिंग एसोसिएशन के सदस्य भी हैं। आदिल कहते हैं कि अपंगता का अभिशाप
कष्टदायक है। यह सच है, पर हमारी निजी सोच उसे और कष्टदायक बना देती है, यह भी गलत
नहीं है। अपाहिज व्यक्ति यह मान बैठता है कि वह किसी काम का नहीं, उसका जीवन
निरर्थक है। इसमें उसकी शारीरिक अक्षमता की तुलना में मानसिक हताशा ही अधिक झलकती
है। मन यदि कमजोर हुआ, तो शरीरबल से समर्थ व्यक्ति भी किसी कार्य को कर पाने में
असफल साबित होता है। इसके विपरीत देह दुबली हो, त्रुटिपूर्ण अथवा अपूर्ण हो, लेकिन
मनोबल और उत्साह चरम पर हो, तो कायिक कमी भी कार्य की सफलता में बाधा उत्पन्न नहीं
कर पाती और कठिन से कठिन काम सरल प्रतीत होने लगते हैं। इसलिए शारीरिक पूर्णता की
तुलना में हमें मानसिक समर्थता पर अधिक भरोसा करना चाहिए।
आदिल अंसारी जो कहते हैं उसे कर दिखाने का प्रयास भी करते
हैं। देखा जाए तो देश की लगभग सात फीसदी आबादी किसी न किसी तरह की दिव्यांगता का
शिकार है। इनमें से हजारों हजार ऐसे हैं जिन्होंने दिव्यांगता को ही अपनी ताकत
बनाया है। आदिल अंसारी उन्हीं में से एक हैं। वैसे तो भारत में सैकड़ों दिव्यांग
खिलाड़ी किसी न किसी खेल में देश का नाम रोशन कर रहे हैं लेकिन एक साथ तीन-तीन
खेलों में महारत हासिल करना आसान बात नहीं कही जा सकती। आदिल अंसारी लाजवाब
स्वीमर, कामयाब राइडर और अचूक धनुर्धर हैं। भिवंडी का यह जांबाज 90 फीसदी दिव्यांग
होने के बावजूद सात दिन में 6016 किलोमीटर कार ड्राइविंग का नेशनल लिम्का बुक आफ रिकार्ड
अपने नाम करने वाला पहला शख्स है। आदिल अंसारी ने अपनी इस मुहिम की शुरुआत 29
जनवरी, 2015 को मुम्बई के सांताक्रुज डोमेस्टिक एयरपोर्ट से की थी। सात दिन 12
घण्टे, 30 मिनट में 6016 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद पांच फरवरी, 2015 को शाम
साढ़े आठ बजे आदिल जैसे ही सांताक्रुज पहुंचे लोगों ने उन्हें गले से लगा लिया।
आदिल कहते हैं कि मुम्बई ही नहीं उनकी दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई में भी लोगों ने
खूब हौसला-अफजाई की। आदिल ने तीन दिसम्बर 2013 को पहली बार मोडीफाई ऐक्टिवा स्कूटर
चलाकर लोगों को हैरत में डाला था। भिवंडी के इस हीरो के नाम 14 घण्टे में 300
किलोमीटर स्कूटर चलाने का नेशनल लिम्का बुक आफ रिकार्ड भी दर्ज है।
तैराकी और राइडिंग में कमाल का प्रदर्शन कर चुके आदिल
अंसारी अचूक धनुर्धर हैं। इस तीरंदाज ने हरियाणा के रोहतक में 12 से 15 मई, 2016
तक हुई पहली सीनियर तीरंदाजी प्रतियोगिता में अपने अचूक निशानों से न केवल
खेलप्रेमियों का दिल जीता बल्कि स्वर्ण पदक से अपना गला भी सजाया। आदिल अंसारी का
धनुष-बाण पुराना है, उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वह नई तकनीक से लैश नया
धनुष-बाण खरीद सकें फिर भी वह बैंकाक में होने वाली एशियन तीरंदाजी प्रतियोगिता
में सफलता हासिल कर 2020 में टोक्यो में होने वाले पैरालम्पिक में शिरकत करने का लक्ष्य
बना चुके हैं। आदिल को हुकूमतों से मलाल है। वह कहते हैं कि सफल दिव्यांग की बलैयां
लेकर लोग अपना उल्लू तो सीधा कर लेते हैं पर एक आम दिव्यांग मदद की ही बाट जोहता
रह जाता है। हमारी हुकूमतों को इस दिशा में गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर आजादी
के सात दशक बाद भी दिव्यांग लाचार और निराश क्यों है।

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