बुलंद हौसलों से बनीं रोल मॉडल
उनका मंत्र- व्यस्त रहो मस्त रहो
यदि जज्बा और हौसले बुलंद हों, तो किसी भी कठिनाई में अपना मुकाम हासिल किया
जा सकता है। जिंदगी में अब तक 80 फ्रैक्चरों का सामना कर चुकी तथा ऑस्ट्रियोपॉरेसिस जैसी गम्भीर
बीमारी से परेशान
साधना ढांड ने अपनी कला को ही अपनी बीमारी से लडऩे का जरिया बनाया। उनके जज्बे और
हौसले का सम्मान करते हुए सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता मंत्रालय ने उन्हें रोल
मॉडल के अवार्ड से नवाजा है। 12 बरस की उम्र से श्रवण शक्ति खोने, पैरों से निःशक्त, नाटे कद के साथ जिंदगी की तमाम चुनौतियों से लड़ते हुए
उन्होंने पेंटिंग, शिल्पकला तथा
फोटोग्राफी के क्षेत्र में सुकून तलाशा और कई दुर्लभ आयाम स्थापित किए। मूलतः
रायपुर (छत्तीसगढ़) की रहने वाली इस कला साधक को सिर्फ अपने काम पर यकीन है।
कल्पना की ऊंचाइयों पर अपने दुख विस्मृत करती साधना जिंदगी
का उत्सव अपनी कला में तलाशती हैं। चित्रकला, शिल्पकला के साथ अप्रतिम फोटोग्राफी करने वाली
साधना की कृतियां न केवल दर्शकों को अचंभित करती हैं, बल्कि विपरीत स्थितियों में भी जीवन कैसे जिया
जा सकता है, इसकी प्रेरणा भी
देती हैं। पेड़-पौधों के बीच भी उनका कलाकार अनुपम कृतियां तलाशता रहता है। फल,
फूलों, सब्जियों से साकार किए 100 से अधिक गणेश के चित्र इसकी गवाही देते हैं।
यह उनके भीतर बैठे कलाकार का ही करिश्मा है कि वे अपनी तस्वीरों में भी अद्भुत शेड
एण्ड लाइट तथा कलर इफेक्ट का कौशल प्रदर्शित करती हैं। 1982 से अपने घर पर बच्चों को चित्रकला का
प्रशिक्षण देने वाली साधना ने अब तक 20000 से ज्यादा छात्रों को प्रशिक्षित किया है। गणेश भगवान के
विभिन्न स्वरूपों पर केंद्रित उनकी एकल फोटो प्रदर्शनी को देश के विभिन्न शहरों
में दर्शकों ने भरपूर सराहना दी। जवाहर कला केंद्र, जयपुर के अलावा भुवनेश्वर, पूना, नागपुर, भोपाल, ललित कला अकादमी,
नई दिल्ली जैसे स्थानों
पर उन्होंने अपने प्रदर्शनी से न केवल अपना बल्कि प्रदेश का नाम भी रोशन किया है।
स्त्री शक्ति, सृजन सम्मान, महिला शक्ति सम्मान, बेस्ट टेरेस गार्डन अवार्ड, बोंसाई- फ्लावर डेकोरेशन, लैंडस्कैप, फोटोग्राफी आदि क्षेत्रों में विभिन्न
पुरस्कारों से सम्मानित साधना अपनी व्यस्तता और एकाग्रता के जरिए आज इस मुकाम तक
पहुंची हैं। बुलंद हौसलों वाली सशक्त और नन्हें कद की साधना हालांकि विगत दो
वर्षों से चलने-फिरने में असमर्थ हैं, बावजूद इसके उनकी न तो कल्पना मुरझाई है, न ही एकाग्रता विचलित हुई है। बदलते परिवेश में
उनका मानना है कि लोगों के पास समय नहीं है, जाहिर है इससे एकाग्रता कहां मिलेगी। निश्चित
रूप से साधना ढांड न केवल निःशक्तजनों के लिए बल्कि सशक्तों के लिए भी एक रोल मॉडल हैं।
चित्रों की उनकी प्रदर्शनी को देखने के बाद लगता ही नहीं कि ये कृतियां अस्सी फीसदी शारीरिक निःशक्तता से
पीड़ित किसी महिला द्वारा रची गयी हैं। साधना जी के अन्दर के कलाकार की जिजीविषा
देखते ही बनती है। वह खाली समय में अपनी कृतियों को उकेरने में ही मगन रहती हैं। साधना
जी अपने घर पर ही एक शिल्प स्कूल चलाती हैं, जहां पर वे बच्चों और बड़ों को समान रूप से
प्रशिक्षण देती हैं। नई पीढ़ी के कलाकारों के बारे में पूछने पर वह कहती हैं कि वे
मेहनत से बचना चाहते हैं और शार्टकट में ही सफलता पा लेना चाहते हैं। मोबाईल फोन
भी उनकी एकाग्रता में बाधक हो जाता है।
वर्तमान में रायपुर शहर की दिशा और दशा के बारे में पूछने
पर उन्होंने बताया कि रायपुर में तो चारों ओर कंक्रीट ही कंक्रीट पसरा हुआ है।
लोगों में संवेदनशीलता भी कम होती जा रही है। बातों ही बातों में हमें पता चला कि
लगभग 12 वर्ष की उम्र से
ही उन्हें निःशक्तता का दंश झेलना पड़ रहा है। इसके अलावा इस दौरान उन्हें हुए
लगभग अस्सी फ्रेक्चर्स, जोकि अच्छे-अच्छों का दिल हिलाने का माद्दा रखते हैं, से भी वे अप्रभावित रहीं। हमने जब इन हालातों
में भी उनकी इस अतीव क्रियाशीलता का राज पूछा तो उन्होंने एक पंक्ति में उत्तर
दिया व्यस्त रहो मस्त रहो। उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछने पर उन्होंने इनकार
में सिर हिला दिया इस पर मध्यस्थ शिक्षिका ने बताया कि दीदी सिर्फ काम पर यकीन रखती
हैं। वे नेम एण्ड फेम से बचती हैं। बाद में मध्यस्थ शिक्षिका से ही ज्ञात हुआ कि उनकी
लगभग आठ-नौ जगह प्रदर्शनियां लग चुकी हैं और लगभग सत्रह से भी अधिक संगठनों एवं
संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जा चुका है। इसमें कोई संदेह
नहीं है कि अपनी निःशक्तता को अभिशाप मानकर हताशा-निराशा के दलदल में फंसे हुए
निःशक्तों के लिये साधनाजी आशा की किरण नहीं बल्कि आशा का सूर्य ही हैं, जिन पर पूरी उपन्यास लिखी जा सकती है।
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