Tuesday 13 December 2016

बहादुर सैनिक की जांबाजी को सलाम

भारत के पहले ब्लेड रनर मेजर देवेंद्र पाल सिंह
सिंह इज किंग
15 जुलाई, 1999 को कारगिल युद्ध के दौरान मेजर देवेंद्र पाल सिंह जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में नियंत्रण रेखा से 80 मीटर दूर भारतीय सेना की एक टुकड़ी को कमांड कर रहे थे। अचानक उन्होंने तोप के एक गोले की आवाज सुनी, इससे पहले कि वह कुछ खुली जगह में जा पाते, वह गोला उनसे मीटर भर की दूरी पर जा गिरा। उस गोले के छर्रों ने मेजर के सीने से लेकर पैरों तक को बुरी तरह जख्मी कर दिया। तीन दिनों के बाद जब उन्हें होश आया तो उन्होंने खुद को सैन्य अस्पताल में पाया जहां डॉक्टरों को उनका एक पैर काट देना पड़ा। यही नहीं उस गोले के लगभग 50 छर्रे तब भी मेजर के सीने, रीढ़ और कुहनियों में धंसे हुए थे और उनकी आंतें भी संक्रमित हो चुकी थीं।
मेजर बताते हैं कि डॉक्टरों ने मेरे घर वालों को बताया कि मेरी हालत बहुत नाजुक थी और उन्होंने मेरे बचने की सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं लेकिन हरियाणा के जगधारी के रहने वाले इस जवान ने जीने की उम्मीद नहीं छोड़ी। वह कहते हैं कि उस दौरान मैंने एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि मैं बच नहीं सकूंगा। मैंने उधमपुर के उस सैन्य अस्पताल में इलाज के दौरान घर वालों से टेप रिकॉर्डर और हिन्दी फिल्मों के कुछ कैसेट्स मंगवाये। मैं मिलने वालों से हंसता-बोलता और अपने मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं आने देता। कुछ दिनों बाद मुझे दिल्ली के सैन्य अस्पताल (रिसर्च एण्ड रेफरल) में शिफ्ट किया गया। उसके बाद मुझे आर्म्ड फोर्सेज मेडिकल कॉलेज, पुणे के कृत्रिम अंग केंद्र पर भेजा गया।
उन दिनों को याद करते हुए मेजर बताते हैं। तब मैं हाड़-मांस की 28 किलो की किसी गठरी से ज्यादा कुछ नहीं था। मैं वहां एक वर्ष रहा़ वहां मैंने पहली बार महसूस किया कि बैसाखी के सहारे चलना, दोबारा चलना सीखने के जैसा था। बहरहाल, एक वर्ष तक तमाम तरह के दर्द और पीड़ा से जूझते हुए मेजर ने अपने पैरों (एक प्राकृतिक और एक कृत्रिम) पर सीधा खड़ा होना सीख लिया था। उनकी विकलांगता दूसरों पर बोझ न बन जाये, इसके लिए मेजर ने सामान्य लोगों की तरह चलना-फिरना और उसके बाद गोल्फ खेलना शुरू किया। इसके बाद उन्होंने वॉलीबाल और स्क्वैश का रुख किया। अब वह दौड़ना चाहते थे। वह कहते हैं कि दिव्यांगता को अपने राह की बाधा न बनने देने के लिए यह जरूरी था। बहरहाल, अक्टूबर 2009 में मेजर ने दिल्ली हाफ मैराथन में दौड़ने का फैसला किया। वह कहते हैं तीन घंटे 49 मिनट में पूरी की गयी 21 किलोमीटर की इस दौड़ ने मेरी जिंदगी बदल दी।
दर्द मेरी राह रोक रहा था और दिमाग कह रहा था कि मुझे इसे हर हाल में पूरा करना है। यह किसी लम्बी साधना की तरह था। जब मैं दौड़ के अंतिम बिंदु तक पहुंचा, मुझे जोरों की भूख लग चुकी थी। आप विश्वास नहीं करेंगे कि मैंने रिफ्रेशमेंट के लिए मिले सेब को उसके बीज और डंठल सहित खा लिया। मेजर कहते हैं कि 10 वर्षों में मुझे वैसी भूख पहली बार लगी थी। यह एक शुरुआत थी। इसके बाद मेजर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने प्रशिक्षण शुरू किया और कई मैराथन दौड़ों में भाग लिया। हर दौड़ के साथ वह खुद की नजरों में अपनी कीमत और सम्मान पाते गये।
भारत के पहले ब्लेड रनर माने जाने वाले मेजर देवेंद्र पाल सिंह अपनी यह सफलता खुद तक सीमित नहीं रहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने वर्ष 2011 में द चैलेंजिंग वन्स के नाम से एक फेसबुक ग्रुप बनाया़ आज वह खेलों के जरिये निःशक्त लोगों को सामान्य जिंदगी बिताने के गुर सिखा रहे हैं। आज की तारीख में इस ग्रुप के एक हजार से अधिक सदस्य बन चुके हैं, जो मिल-जुल कर कठिनाइयों से पार पाने की कोशिश करते हैं। ये अपनी उपलब्धियां एक-दूसरे से शेयर करते हैं जिससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलती है। मेजर कहते हैं कि खेलों के जरिये निःशक्तजन खुद को तराश कर अपनी अहमियत जगा सकते हैं, जो उनके शरीर और जिंदगी में नयी ऊर्जा भर देगी। ब्लेड रनर के रूप में मशहूर मेजर देवेन्द्र पाल सिंह का कहना है कि उनकी दूसरी जिन्दगी पहली जिन्दगी से लाख गुना अच्छी है। मुझे खुशी है कि मैं देश के ऐसे लोगों को प्रोत्साहित कर रहा हूं जो किन्ही कारणों से अपना कोई हाथ या पैर गंवा चुके हैं।



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