Monday, 12 December 2016

पानी से सोना निकालती बेटी रजनी


2006 के बाद हुआ तरणताल से प्यार
भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। पिछले एक दशक में भारतीय बेटियों ने अपने लाजवाब प्रदर्शन से इस बात को सच साबित कर दिखाया है। भारतीय बेटियां मुल्क के खाते में पदक और ख्याति दोनों ही जमा कर रही हैं। इन बेटियों में दिव्यांग खिलाड़ियों का जलवा भी किसी से कम नहीं है। ग्वालियर की पैरा स्वीमर रजनी झा को ही लें उसने अब तक अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के बूते राष्ट्रीय स्तर पर 62 स्वर्ण, तीन रजत और तीन कांस्य तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पांच स्वर्ण तथा तीन कांस्य पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ा चुकी है। कभी पानी से डरने वाली इस बिटिया को अब पानी से ही प्यार सा हो गया है। इन दिनों रजनी छठे नेशनल पैरालम्पिक खेलों के लिए तैयारी कर रही है। 19 दिसम्बर, 1990 को ग्वालियर में जन्मी भारत की इस दिव्यांग बेटी ने अपने कुछ लक्ष्य तय किए हैं जिनमें वर्ष 2017 में मैक्सिको में होने वाली विश्व तैराकी प्रतियोगिता, 2018 के एशियन गेम्स और 2020 में टोक्यो में होने वाले पैरालम्पिक खेल शामिल हैं।  
उम्र के एक साल बाद पोलियो का शिकार हुई रजनी झा का एक पैर ठीक नहीं होने के बावजूद तैराकी के क्षेत्र में नित नए आयाम स्थापित कर रही है। पांच साल की उम्र में जब उसने तैराकी का मन बनाया तो रजनी की मां रेखा झा को अपनी बेटी का निर्णय अच्छा नहीं लगा, वजह उनके मन में अनचाहा डर जो था। आखिरकार रजनी की जिद के आगे मां-बाप को उसकी बात माननी पड़ी। ग्वालियर की इस हौसलेबाज बेटी का मनोबल बढ़ाने वालों में अमर ज्योति स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर प्रदीप जैन का अहम योगदान है। श्री जैन के प्रयासों से ही वह लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान के प्राध्यापक और मध्य प्रदेश में पैरा स्वीमिंग के जनक प्रो. वी.के. डबास के सान्निध्य में पहुंच सकी। प्रो. डबास रजनी के मन में यह बात डालने में सफल रहे कि वह नेशनल और इंटरनेशनल तैराकी में नाम जरूर कमाएगी। ग्वालियर पुलिस लाइन के छोटे से सरकारी आवास (एच-5 सेण्ट्रल जेल के सामने) में अपने माता-पिता (भैरव कुमार-रेखा झा) के साथ रहने वाली रजनी झा ने विकलांगता के दर्द को पीछे छोड़कर अपने प्रशिक्षक प्रो. डबास के विश्वास को तैराकी के क्षेत्र में नई मिसाल कायम कर सच साबित कर दिखाया। उसके दो बड़े भाई भी हैं, जिन्हें खेलों से कम ही लगाव है।
एक साल की उम्र में पोलियो की शिकार रजनी का एक पैर काम नहीं करता था। स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर ने रजनी के पिता भैरव कुमार झा (पुलिस विभाग में इलेक्ट्रीशियन) को बताया कि अगर वे रजनी को एक्वा-थैरेपी कराएंगे तो वह खड़ी होकर बैसाखी के सहारे चल सकती है। उसके पिता ने एक्वा-थैरेपी (पानी की एक्सरसाइज) शुरू कराई। शुरुआत में उसे बहुत परेशानी हुई। रजनी की मां उसे तैराकी नहीं करने देना चाहती थीं। उन्हें डर था कि उनकी बेटी के साथ कहीं कोई हादसा न हो जाए। लेकिन रजनी की जिद ने धीरे-धीरे उसे तैराकी में पारंगत कर दिया। वर्ष 2000 में चेन्नई में आयोजित फर्स्ट नेशनल पैरालम्पिक में रजनी झा ने रजत पदक जीता। इस जीत ने रजनी का हौसला बढ़ा दिया। रजनी को छह साल बाद यानि 2006 को मलेशिया में इंटरनेशनल पैरा तैराकी प्रतियोगिता में शिरकत करने का मौका मिला और उसने इस अवसर को जाया न करते हुए एक स्वर्ण और एक कांस्य पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ा दिया। दिव्यांग रजनी 20 मिनट में एक किलोमीटर तैरने का रिकार्ड भी बना चुकी है। रजनी की शानदार उपलब्धियों को देखते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने 29 अगस्त, 2007 को उसे एकलव्य तो 29 अगस्त, 2012 को विक्रम अवार्ड से नवाज कर उसे शासकीय सेवा का अवसर भी प्रदान किया। रजनी इन दिनों ग्वालियर के परिवहन विभाग में बतौर क्लर्क कार्यरत है। नौकरी के साथ-साथ रजनी पूरी मेहनत से खेल में बेहतरीन प्रदर्शन के लिए प्रयास कर रही है। बचपन में जो मां-बाप रजनी की तैराकी के खिलाफ रहे वह आज गर्व से कहते हैं कि मेरी बेटी सिर्फ परिवार ही नहीं देश का नाम रोशन कर रही है।
अब तक देश-विदेश के तरणतालों में अपनी प्रतिभा का जलवा दिखा चुकी रजनी झा पढ़ाई में भी अव्वल रही। वह सांस्कृतिक गतिविधियों में भी न केवल हिस्सा लेती है बल्कि अब तक उसे श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए कई बार सम्मानित किया जा चुका है। रजनी न केवल योजनाएं बनाती है बल्कि हर चुनौती को स्वीकार करते हुए सफलता भी हासिल करती है। रजनी को म्यूजिक, किताबें पढ़ने के साथ ही हर खेल को देखना पसंद है। वह कहती है कि दिव्यांगता को अभिशाप मानने की बजाय यदि चुनौती के रूप में लिया जाए तो अधिकांश समस्याएं अपने आप सुलझ जाती हैं। वह कहती है कि समस्याएं तो इंसान की मानसिकता की परीक्षाएं होती हैं जो इनका डटकर सामना करता है वही आगे बढ़ता है। मैं आज जिस मुकाम पर हूं उसमें मेरे माता-पिता, प्रशिक्षक प्रोफेसर वी.के. डबास और अमर ज्योति स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर प्रदीप जैन का अहम योगदान है। मैं अपने आपको कभी अक्षम नहीं मानती। दिव्यांगता ही मेरी ताकत है। सच कहें तो यदि मैं दिव्यांग नहीं होती तो शायद आज जिस मुकाम पर हूं वहां तक नहीं पहुंच पाती।


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