Monday, 19 December 2016

फौलादी मेजर देवेन्द्र पाल सिंह

जिन्दगी एक परीक्षा

जिसे मुर्दा समझा था, उसका आज मैराथन में है जलवा
महान मुक्केबाज़ मोहम्मद अली ने एक बार कहा था कि जिमखाने में कसरत करने से विजेता तैयार नहीं होते बल्कि विजेता तैयार होते हैं अपने भीतर पल रही इच्छाओं, सपनों और दूरदर्शिता से। अपनी प्रबल इच्छाशक्ति से कुछ ऐसा ही साबित किया भारतीय सेना में रहे मेजर देवेन्द्र पाल सिंह ने। वर्ष 1999 में कारगिल की लड़ाई के दौरान एक पल ऐसा भी आया था जब डोगरा रेजीमेंट के मेजर देवेन्द्र पाल सिंह को मृत घोषित कर उनके शरीर को शव गृह में भेजने का आदेश दे दिया गया था लेकिन एक अनुभवी डॉक्टर की नजरों ने उनकी डूबती सांसों को पहचान लिया और उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में महीनों बेहोश रहने के बाद जब मेजर देवेन्द्र पाल को होश आया तो उनसे कहा गया कि उनकी जान बचाने के लिए उनका एक पांव काटना पड़ेगा। ऐसे हालात में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह कहते हैं कि मौत को चकमा देने के बाद किसी भी चीज में इतनी ताकत नहीं थी कि उनके जीने के जज्बे को हरा पाती। शायद इसीलिए आज उन्हें भारत का पहला ब्लेड रनर कहा जाता है। यह नाम उन्हें दक्षिण अफ्रीका के बिना पैरों वाले धावक ऑस्कर पिस्टोरियस के नाम पर दिया गया है। देवेन्द्र पाल सिंह अब तक एक दो नहीं लगभग दो दर्जन मैराथन दौड़ों में हिस्सा लेकर अपने आपको फौलादी साबित कर चुके हैं।
कारगिल की लड़ाई के दौरान मेजर देवेन्द्र पाल सिंह के शरीर में कई गंभीर चोटें आई थीं। उनके शरीर में कई जगहों पर अब भी बारूद की चिंगारियों का असर मौजूद है। इस चोट का असर उनके पूरे शरीर पर हुआ। उनकी पसलियों, लीवर, घुटने, कोहनी, आंत और यहां तक कि सुनने की शक्ति भी प्रभावित हुई, जो उन्हें कभी भी पूरी तरह से दर्दमुक्त रहने नहीं देती। देवेन्द्र पाल सिंह को अपने शरीर को क्रियाशील रखने के लिए सामान्य से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। जीवन की मुख्यधारा में लौटने और एक सामान्य जीवन जीने के लिए देवेन्द्र पाल सिंह ने खेल के मैदान को अपनी कार्यशाला के रूप में चुना। उन्होंने शुरुआत गोल्फ, स्क्वैश और वॉलीबाल खेलने से की और इस दौरान लगातार व्यायाम भी करते रहे ताकि उनके शरीर को फिर से दबाव सहने की आदत हो जाए। लेकिन यह सब करते हुए भी दौड़ना सम्भव नहीं था क्योंकि उस वक्त जिस कृत्रिम पैर के सहारे वे चलते थे, वह दौड़ने योग्य नहीं थी। इस सब के बावजूद वर्ष 2009 में उन्होंने दिल्ली और मुम्बई में होने वाली हाफ मैराथन दौड़ में शिरकत करने का निश्चय किया। मेजर सिंह अगले दो साल तक आयोजित होने वाली मैराथन दौड़ों में चलने वाली टांग से ही भाग लेते रहे। उनके जज्बे को देखते हुए भारतीय सेना का ध्यान भी इस ओर गया और वर्ष 2011 में भारतीय सेना ने उन्हें दौड़ने के उद्देश्य से खासतौर से बनाई गई नकली टांग यानी ब्लेड प्रोस्थेसिस उन्हें भेंट की। इस ब्लेड से मेजर देवेन्द्र पाल सिंह दोनों पांवों से दौड़ने लगे हालांकि इससे उनको थकावट भी ज्यादा होती है बावजूद इसके वह इन्हीं ब्लेड के सहारे मैराथन दौड़ों में हिस्सा ले रहे हैं। उनकी दौड़ने की अवधि अब चार घंटे से घटकर दो घंटे की हो गई है। देवेन्द्र पाल सिंह के इस जज्बे ने कई लोगों को उनका मुरीद बना दिया है। फिल्म कलाकार राहुल बोस और मिलिंद सोमण भी उनसे काफी प्रभावित हुए। वह कहते हैं कि कारगिल की लड़ाई के बाद जब मैं महीनों अस्पताल में पड़ा रहा तो न जाने कितने हिन्दुस्तानियों ने अपना खून देकर मेरी जान बचाई थी, इसलिए मेरी रगों में सैकड़ों हिन्दुस्तानियों का खून दौड़ रहा है। मेजर सिंह कहते हैं कि उनकी इस कोशिश को न सिर्फ लोगों की सराहना मिली बल्कि लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित भी किया। मेजर देवेन्द्र पाल सिंह ने भी लोगों को निराश नहीं किया और अपनी दिनचर्या को निभाते हुए वह उन लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं जो अपना कोई अंग गंवा चुके हैं।
मेजर सिंह कहते हैं कि जिस किसी ने भी मेरी तरह किसी हादसे में अपना कोई अंग गंवा दिया है, मैं चाहता हूं कि वे भी हिम्मती बनें। इसलिए मैंने फेसबुक पर एक कम्युनिटी बनाई है ताकि ऐसे सभी लोगों को एक मंच पर इकट्ठा कर उन्हें प्रोत्साहित कर सकूं। लड़ाई के मैदान से लेकर निजी जीवन तक मेजर देवेन्द्र पाल सिंह कई मोर्चों पर न सिर्फ लड़े बल्कि उसमें जीत भी हासिल की। वह पिछले 17 साल से अकेले ही अपने बेटे का पालन पोषण कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मुझे कुछ अजीब नहीं लगता। मैं अपने बेटे की देखभाल उसी तरह से कर रहा हूं जैसे कोई भी सामान्य माता-पिता करते हैं। फिलहाल दिल्ली की एक प्राइवेट बैंकिंग कम्पनी में बतौर प्रशासनिक प्रमुख काम कर रहे मेजर देवेन्द्र पाल सिंह कई निराश जिन्दगियों में आशा की किरण जगा चुके हैं। वह हर किसी की मदद में हमेशा आगे रहते हैं।
मेजर सिंह कहते हैं कि मैं कई सर्जरी और ऑपरेशन से गुजरा लेकिन मैंने इस मुश्किल समय में हार नहीं मानी। समय के साथ जिन्दगी जैसे मुड़ती चली गई। मैं उसी में ढलकर आगे बढ़ता गया।  आज मैं जिस मुकाम पर हूं वहां तक पहुंचने के लिए मैं खासतौर पर उन लोगों का भी शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे किसी काबिल नहीं समझा। अगर वे लोग मुझे इस नजरिए से नहीं देखते तो आज मैं आप लोगों के बीच नहीं होता। मेरा मानना है कि इंसान की फिजिकल स्ट्रेंथ से ज्यादा उसका दिमाग ताकतवर होता है। एक दिमाग ही है जो उसे हर परिस्थिति से लड़ना सिखाता है। मेजर सिंह कहते हैं कि इस जीत में टेक्नोलॉजी कुछ हद तक सहायक है। ब्लेड लगाने से पहले ही मैंने दौड़ना शुरू कर दिया था। शुरुआत में बहुत मुश्किलें आईं। शरीर के अलावा दिल में भी दर्द रहने लगा लेकिन मैंने हार नहीं मानी और रोज दो से तीन किलोमीटर दौड़ने की प्रैक्टिस शुरू कर दी। कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि रनिंग से मेरे शरीर की हर तकलीफ और दर्द दूर हो रहा है। उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वह कहते हैं कि जिन्दगी एक परीक्षा है। हम स्कूल में पढ़ाई करके जैसे हर क्लास का इम्तिहान पास करके अगली क्लास में आते हैं वैसे ही जिन्दगी में भी पढ़ाई करनी होती है। इस दौरान जो मुश्किलें आती हैं आप उन्हें टेस्ट की तरह समझिए। जब तक युवा जीवन के इम्तिहान में इन चुनौतियों को पास नहीं करेंगे तब तक ऊपर नहीं उठ सकेंगे। जीवन का हर चैलेंज आपको ऊपर उठाने के लिए मिलता है लेकिन हम उसे मुसीबत समझ कर खो देते हैं। दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में नाम दर्ज करा चुके मेजर देवेन्द्र पाल सिंह अब तक दो दर्जन हाफ मैराथन दौड़ों में हिस्सा ले चुके हैं। वह  खुद के जीवन को आम लोगों की तरह जीते हैं। एक्सरसाइज और रनिंग की प्रैक्टिस उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। वे खुद को और खुद जैसे अन्य लोगों को चैलेंजर्स कहलाना पसंद करते हैं। जो लोग किसी वजह से अपने पांव खो चुके हैं, उनकी मदद के लिए मेजर एक संस्था भी चला रहे हैं। जहां इन लोगों को कृत्रिम अंगों के जरिए सामान्य जीवन जीने के लिए मोटिवेट किया जाता है।

वह कहते हैं जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं। अलग-अलग तरह की परिस्थितियां सामने आती हैं, जिनका सामना करने की अधूरी तैयारी के चलते हम उसे समस्या के रूप में देखने लगते हैं। पर जब हम पूरी तैयारी से हालात का सामना करने को खड़े होते हैं तब वही परिस्थितियां हमें चुनौती नजर आती हैं, जिसे हमें जीतना होता है। आज देवेन्द्र पाल सिंह युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बन हैं। वह वर्ष 1997 में आईएमए से सेना में भर्ती हुए थे। मेजर सिंह कहते हैं कि फौज में मिली ट्रेनिंग ने पांव पर खड़े होने के लिए प्रेरित किया। यह जाना कि विकलांगता कोशिश नहीं करने वालों में होती है जबकि वह चैलेंजर बनना चाहते थे और बने। डेढ़ दशक दर्द में गुजारने के बाद पहली हाफ मैराथन वह वर्ष 2009 में दौड़े जोकि देश का पहला पराक्रम बना और लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। उनका 2013 और 2014 की मैराथन का प्रदर्शन भी लिम्का बुक में दर्ज हुआ। मेजर देवेन्द्र पाल सिंह कहते हैं मुझे दुबारा जीवन देने वाले सैन्य चिकित्सक का नाम भी नहीं पता। मेरे मन में उनसे मिलने की तमन्ना बढ़ती जा रही है। वह उस चिकित्सक को अपनी उपलब्धियां समर्पित करना चाहते हैं। यह मेजर देवेन्द्र पाल सिंह की कोशिशों का ही नतीजा है कि उनके द चैलेंजिंग वंस नामक ग्रुप से लगभग एक हजार से अधिक लोग जुड़े हैं जिनमें एक सैकड़ा से अधिक लोग दौड़, स्वीमिंग, राइडिंग व पैरा ओलम्पिक आदि में हिस्सा ले चुके हैं।

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