Wednesday, 30 November 2016

60 साल में किया हजारों दिव्यांगों का उद्धार

अपंग कल्याणकारी शिक्षण संस्था और संशोधन केन्द्र
पढ़ाना और आगे बढ़ाना ही है संस्था का मुख्य उद्देश्य
भारत में दो करोड़ 70 लाख दिव्यांगों की मदद को वैसे तो बहुत सारी संस्थाएं काम कर रही हैं लेकिन कुछ संस्थाएं ऐसी भी हैं जिनका कामकाज दिव्यांगों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ है। 60 साल पहले पुणे में खुले अपंग कल्याणकारी शिक्षण संस्था और संशोधन केन्द्र से अब तक हजारों दिव्यांग लाभान्वित हो चुके हैं। पुणे की यह संस्था विकलांगों के लिए न केवल श्रेष्ठ कार्य कर रही है बल्कि दूसरों के लिए एक नजीर भी है। इस संस्था के अब तक के सफर पर संस्था के कार्याध्यक्ष तथा पुणे के एडवोकेट मुरलीधर कचरे ने जो कुछ बताया वह वाकई सराहनीय है।
प्रश्न- अपंग कल्याणकारी शिक्षण संस्था व संशोधन केन्द्र की स्थापना किस प्रकार हुई।
उत्तर- छह नवम्बर, 1956 को संस्था की स्थापना का निर्णय लिया गया। उद्धरेदात-तिमनात्मानम हमारी संस्था का नारा है। दरअसल जिस समय इस संस्था की स्थापना हुई उस समय देश में पोलियो अपना रौद्र रूप दिखा रही थी। साक्षरता के अभाव में लोग अपने नौनिहालों को पोलियो ड्राप पिलाने से डरते थे। इन स्थितियों को देखते हुए समाजसेवक रघुनाथ काकड़े जी ने विकलांग छात्रों के लिए इस संस्था का श्रीगणेश किया। कोथरुड के भालेराव बंगले में यह संस्था खोली गई। इसके बाद 1959 में वानवड़ी परिसर में संस्था का काम शुरू हुआ। संस्था ने विकलांग विद्यार्थियों के लिए काम करना तय किया और 1985 में छात्रों के लिए छात्रावास तथा 1991 में छात्राओं के लिए छात्रावास शुरू हुआ। इससे पहले जिला परिषद के स्कूल में छात्र पढ़ने जाते थे। अब यहीं पहली से सातवीं कक्षा तक बच्चों को पढ़ाया जाता है। आठवीं से लेकर दसवीं तक के छात्र अन्य हाईस्कूल में जाते हैं। पाठशाला के लिए इमारत, लड़के-लड़कियों का छात्रावास, चिकित्सालय, सांस्कृतिक सभागृह, ग्रंथालय, बच्चों को खेलने के लिए मैदान जैसी अनेक सुविधाएं साढ़े तीन एकड़ जमीन पर की गई हैं। विद्यार्थी स्वावलम्बी बनें इसलिए यहां उन्हें विविध कलाएं सिखाई जाती हैं। इनमें हस्तकला, सिलाई, ई-लर्निंग, बढ़ई का काम, कम्प्यूटर प्रशिक्षण जैसे विविध विषय शामिल हैं। यहां अध्ययनरत छात्रों को भोजन, निवास, इलाज, शिक्षा जैसी सुविधाएं निःशुल्क दी जाती हैं। यहां 85 लड़कियां और 165 लड़के अध्ययन करते हैं जिनमें दूसरे राज्य के विद्यार्थियों का भी समावेश है। विकलांग छात्रों के लिए निवास, भोजन, चिकित्सा, शल्यक्रिया, शिक्षा जैसी सारी सुविधाएं यहां निःशुल्क उपलब्ध हैं। छह विद्यार्थियों से शुरू हुई इस संस्था में आज 250 विद्यार्थी हैं।
प्रश्न- आप इस संस्था से कैसे जुड़े।

उत्तर- हम लोग पुणे से ही हैं। पुणे के पास वानवड़ी में मेरा जन्म हुआ। मेरा बचपन यहीं पर गुजरा। मेरे पिताजी किसान थे और मां गृहिणी थीं। हमारी किराने की दुकान थी। पहली से लेकर सातवीं तक की मेरी शिक्षा वानवड़ी के महापालिका स्कूल में हुई। उसके बाद आठवीं से लेकर ग्यारहवीं तक मैं कैम्प एज्यूकेशन में पढ़ा। उसके बाद गरवारे कॉलेज में प्रवेश लिया और 1977 में कॉमर्स शाखा से स्नातक हुआ। मुझे वकील बनना था इसलिए मैंने बी.काम के बाद आईएलएस विधि महाविद्यालय में प्रवेश लिया। 1981 में वकालत की शिक्षा पूरी की। उसके बाद वकालत करना शुरू किया। अनेक मुकदमे लड़े। ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया के परिवार का मैं पारिवारिक वकील नियुक्त किया गया। इसके कारण सारी पार्टियों के राजनीतिज्ञों के साथ नजदीकी सम्बन्ध बने। इसी समय यानी 1986 में मैं इस संस्था से जुड़ा। संस्था की जानकारी मुझे पहले से ही थी। जिला परिषद के स्कूल में पढ़ते समय इस संस्था के छात्र मेरे साथ पढ़ते थे। तब संस्था की अपनी स्वयं की पाठशाला नहीं थी। उस वक्त मैं अपने विकलांग मित्रों को त्योहारों पर घर बुलाता था। बचपन से वही संस्कार मिले, उसी प्रकार मैं संघ-संस्कारों में पला-बढ़ा। कुछ साल प्रचारक के रूप में काम किया। संघ के संस्कार हैं कि हमें समाज के लिए कुछ करना चाहिए। इसी संस्कार के कारण मैं इस संस्था में काम करने हेतु प्रेरित हुआ। मैं पिछले तीस साल से यहां कार्यरत हूं।
प्रश्न- यह संस्था चलाने के पीछे आपका उद्देश्य क्या है।
उत्तर- दिव्यांग विद्यार्थियों के मन में उत्साह निर्माण करना, उनको स्वावलम्बी बनाना, जो छात्र बचपन से घुटनों के बल हमारे पास आया है, उसे चलना सिखाना, हम भी सामान्य हैं, अलग नहीं यह भावना उनके मन में उत्पन्न करना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। इस उद्देश्यपूर्ति के लिए हम विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं। गणेशोत्सव, दीवाली जैसे त्योहार मनाते हैं। लम्बी सैर करते हैं। कई छात्रों को लेकर जब हमने कश्मीर के सफर का आयोजन किया था तब कइयों को आश्‍चर्य हुआ कि विकलांग व्यक्ति इतने ठंडे वातावरण में कैसे रह पाएंगे, उन्हें तकलीफ हुई तो- जैसे सवाल खड़े हुए, पर किसी भी तकलीफ के बगैर उन विद्यार्थियों ने उस सैर के मजे लूटे। यात्रा काफी आनंददायी रही।
प्रश्न- इन विद्यार्थियों का खर्च, कर्मचारियों का वेतन जैसा आर्थिक नियोजन आप किस प्रकार करते हैं।
उत्तर- हमारी संस्था का पूरा भार हमारे दानदाताओं पर है। अनेक दाताओं ने हमें धनराशि दी, उसी से सारा कामकाज चल रहा है। हमारा काम, पारदर्शिता, निर्मल व्यवहार, पैसे का यथोचित खर्च देखकर लोग स्वप्रेरणा से धन देते हैं। रोटरी क्लब जैसी संस्थाएं भी मदद देती हैं। हमें दान तो चाहिए पर दया या सहानुभूति की भावना से नहीं। शासन की ओर से हमें अनुदान प्राप्त होता है। एक छात्र के लिए प्रति महीना 900 रुपये अनुदान मिलता है। एक छात्र का महीने का खर्च 3500 से 4000 रुपये तक है। यह खर्च संस्था करती है। संस्था में अध्यापक, चपरासी, चौकीदार, मददगार जैसे कुल 65 कर्मचारी हैं, उनमें से 35 लोगों का वेतन शासन देता है। शेष कर्मचारियों को संस्था पारिश्रामिक देती है। हमारे विश्‍वस्तमंडल का एक भी व्यक्ति वेतन या परिश्रामिक नहीं लेता। हम समाजसेवा के तौर पर यह काम करते हैं।
प्रश्न- आपने कहा की इन छात्रों पर शल्यक्रियाएं की जाती हैं, वे किस प्रकार की होती हैं।
उत्तर- कई छात्र शल्यक्रिया के बाद चलने लगते हैं। बैसाखी, ह्वीलचेयर, कृत्रिम हाथ-पैर जैसे साधन हम छात्रों को बिना मूल्य देते हैं। डॉ. विलास जोग, डॉ. सतीश जैन जैसे हमारे डॉक्टर एक रुपया भी न लेते हुए छात्रों की शल्यक्रिया करते हैं। केवल दवा और बाहर के डॉक्टरों का खर्च हम करते हैं। उन्होंने आज तक हमारे 3000 छात्रों की मुफ्त शल्यक्रिया की होगी। उसी प्रकार हमने छात्रों के लिए फिजियोथेरेपी कक्ष भी शुरू किया है।
प्रश्न- महाराष्ट्र में ऐसी कितनी संस्थाएं कार्यरत हैं, उनके आज के हालात कैसे हैं।
उत्तर- राज्य में तकरीबन छह सौ संस्थाएं कार्यरत हैं। पुणे में इसके अलावा और भी एक-दो हैं। अनेक संस्थाओं के हालात आज की स्थिति में अच्छे नहीं हैं। संस्थाओं में विद्यार्थी नहीं टिक पाते। जरूरी निधि उपलब्ध नहीं होने से कर्मचारियों की पारश्रमिक नहीं मिल पाता। अनेक संथाओं में भ्रष्टाचार का बोलबाला है तो कुछ स्थानों पर संस्था के प्रमुख अपने रिश्तेदारों को संस्था में नौकरी पर रख लेते हैं परिणामस्वरुप हमारी संस्था में हर साल प्रवेश पाने के लिए लम्बी कतारें लगती हैं। अभिभावक अनुरोध करते हैं, पर हमारी मर्यादाएं सीमित हैं।
प्रश्न- संस्था की प्रवेश प्रक्रिया किस प्रकार होती है।
उत्तर- प्रतिवर्ष सामान्यतः फरवरी में प्रवेश सम्बन्धी विज्ञापन स्थानीय समाचार पत्रों में दिया जाता है। अप्रैल के अंत तक प्रवेश अर्जी का वितरण होता है। प्रवेश अर्जी की छानबीन कर छात्र और अभिभावकों से मिलना जुलना होता है। मुलाकात और चिकित्सक समिति के मार्गदर्शन के अनुसार प्रवेश दिया जाता है।
प्रश्न- अपना बच्चा यहां छोड़ कर जाने वाले अभिभावकों की मानसिक स्थिति कैसी होती है।
उत्तर- माता-पिता अपने बच्चों के प्रवेश के लिए बहुत विनती करते हैं। विकलांग विद्यार्थियों की शल्यक्रिया, उनकी दवाइयों या शिक्षा का खर्च आम आदमी नहीं उठा सकता। बच्चों का भला हो इसलिए माता-पिता उन्हें यहां छोड़ते हैं। कुछ अभिभावकों ने मुझसे कहा भी था कि सर आपने 250 बच्चों का नहीं अपितु 250 अभिभावकों का टेंशन अपने सिर पर लिया है। उनका विश्‍वास हमें प्रेरणा देता है।
प्रश्न- सारे अपंग विद्यार्थियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे।
उत्तर- स्वावलम्बी बनें। आप दूसरों के जैसे ही हो अलग नहीं यह भावना मन में पालें, आत्मसम्मान के साथ जिएं, किसी के सामने हाथ न फैलाएं, आप स्वयं अपना आधार बनें।
प्रश्न- आपकी संस्था को आज तक कौन-कौन से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।
उत्तर- विकलांग व्यक्तियों को सक्षम बनाने वाली संस्थाओं को राष्ट्रपति के हाथों दिया जाने वाला राष्ट्रीय पुरस्कार और डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर समाजभूषण पुरस्कार जैसे दो बड़े पुरस्कार संस्था को प्राप्त हैं। सन 2006 से 2007 में संस्था का सुवर्ण महोत्सव सम्पन्न हुआ, उस समय पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आए थे। उन्होंने संस्था को एक लाख रुपये की राशि प्रदान की। इसी प्रकार पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, लालकृष्ण आडवाणी, स्वर्गीय विलासराव देशमुख, स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे जैसे कई लोग संस्था में आकर विद्यार्थियों से बातचीत कर चुके हैं।
प्रश्न- आपके परिजनों ने कभी इस कार्य का विरोध किया।
उत्तर- बिल्कुल भी नहीं। मेरी पत्नी और बच्चों ने मुझे हमेशा सम्हाला है और मेरा समर्थन किया है। मेरी पत्नी साधना, मेरे बड़े बेटे निखिल और छोटे बेटे अखिल ने इस सफर में हमेशा मेरा साथ दिया है।
प्रश्न- आपकी आगामी योजनाएं क्या हैं।

उत्तर- हमें अब 11वीं और 12वीं की कक्षाएं शुरू करनी हैं, इसलिए नए छात्रावास का निर्माण करना है। कृत्रिम साधनों का आधुनिक वर्कशॉप, ग्रंथालय के महत्वपूर्ण दुर्लभ संदर्भ ग्रंथ का संग्रह करने जैसे कुछ उपक्रमों की शुरुआत करनी है।

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