अब दिव्यांगों की सेवा ही मेरा धर्म
शरीर के किसी हिस्से के क्षतिग्रस्त हो जाने से जीवन समाप्त
नहीं हो जाता। हम मानसिक रूप से यदि मजबूत हैं तो हर बाधा को सहजता से पार कर सकते
हैं। दिव्यांगों को दया नहीं हौसले की जरूरत होती है। मैं भाग्यशाली हूं कि मेरे
माता-पिता ने मुझे कभी दया का पात्र नहीं बनने दिया बल्कि उन्होंने हमेशा मुझे
प्रोत्साहित किया कि मैं सक्षम लोगों से बेहतर कर सकती हूं। सच कहूं तो मैं आज न
केवल आत्मनिर्भर हूं बल्कि मैंने दिव्यांगों की सेवा को ही अपना धर्म मान लिया है।
यह कहना है 2016 का दिव्यांगजन सशक्तीकरण राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली
देश की खिलाड़ी बेटी दिल्ली निवासी प्रज्ञा घिल्डियाल का।
दो मई, 2005 की वह मनहूस सुबह मैं कभी नहीं भूल
सकती, जिसने मेरी जिंदगी को पूरी तरह हिलाकर रख दिया। हमेशा की तरह उस रोज भी सुबह
साढ़े पांच बजे योग की क्लासेज लेने जा रही थी। तभी पीछे से आती हुई एक कार ने
मेरी स्कूटी को टक्कर मार दी, जिससे मेरा बैलेंस बिगड़ गया और मैं स्कूटी सहित गिर
पड़ी। मुझे कोई खास चोट नहीं आई थी। मैं उठने की कोशिश कर ही रही थी कि कार के
अगले पहिये मेरी कमर के ऊपर से निकल गए। मेरा हेलमेट खुल कर गिर गया। कार के अगले
पहिये उसी में फंस गए। दरअसल कोई लड़का कार चलाना सीख रहा था। जब मैं स्कूटी से
नीचे गिरी तो उसने ब्रेक लगाने की कोशिश की लेकिन जल्दबाजी में उसने ब्रेक के बजाय
शायद एक्सीलेटर पर पैर रख दिया। उसकी जरा सी लापरवाही ने मेरी जिंदगी तहस-नहस कर
दी। बाद में मालूम हुआ कि उसकी उम्र 18 साल से कम थी और उसके पास ड्राइविंग
लाइसेंस भी नहीं था।
खैर, जो होना था वह तो हो चुका था। उसके बाद
पीछे से आ रहे एक व्यक्ति ने अपनी बाइक रोककर मुझे उठाया। जिसकी कार से मेरा
एक्सीडेंट हुआ था, उसी लड़के ने मुझे अस्पताल पहुंचाया। एक्सीडेंट के बाद भी मैं
पूरे होश में थी। मैंने लोगों को अपने घर का फोन नम्बर बताया। फिर थोड़ी ही देर
में मेरे मम्मी-पापा हॉस्पिटल पहुंच गए। मेरी कुल 11 हड्डियों में फ्रैक्चर था,
जिसमें से नौ रिब्स (पसलियां) और दो रीढ़ की हड्डियां थीं। मुझे तीन
महीने तक वसंत कुंज स्थित स्पाइनल इंजुरी सेण्टर में रहना पड़ा। दो बार सर्जरी भी
हुईं लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद मेरे शरीर का निचला हिस्सा निष्क्रिय हो गया और
मैं हमेशा के लिए ह्वीलचेयर पर आ गई। ह्वीलचेयर ही मेरी जिन्दगी हो गई।
प्रज्ञा मायूस मन से बताती हैं कि 22 साल की
उम्र में ही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई मेरे सामने थी, जिसे मुझे हर हाल में
स्वीकारना था। पहले कभी-कभी मेरा मन बहुत उदास हो जाता था। तब मुझे ऐसा लगता कि वह
गाड़ी पूरी तरह मेरे ऊपर से निकल गई होती तो ज्यादा अच्छा होता लेकिन ऐसे
नकारात्मक विचारों को मैं अपने पास ज्यादा देर तक टिकने नहीं देती। प्रज्ञा कहती
हैं कि कहीं मैंने पढ़ा था कि अगर तुम हंसोगे तो सारी दुनिया तुम्हारे साथ हंसेगी,
लेकिन रोते वक्त कोई भी तुम्हारा साथ नहीं देगा। इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न इस
सच को हंसते हुए स्वीकारा जाए। मेरे माता-पिता को इस दुर्घटना से गहरा सदमा लगा।
उन्हें यह मालूम है कि अब मैं दोबारा खड़ी नहीं हो पाऊंगी। फिर भी वह मुझसे कहते
कि प्रज्ञा तुम जल्द ही ठीक हो जाओगी, कहकर वे हर पल मेरा मनोबल बढ़ाते। शायद वे
ऐसा समझते हैं कि मुझे यह सच्चाई नहीं मालूम। उन्हें दुःख न पहुंचे इसलिए मैं भी
उनके सामने अपनी अक्षमता के बारे में कोई बात नहीं करती और उन्हें भरोसा दिलाती
हूं कि मैं खुद अपनी देखभाल करने में सक्षम हूं।
प्रज्ञा कहती हैं कि इस दुघर्टना के बाद मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल
गई। मैंने सोचा कि अब मुझे छोटे बच्चे की तरह हर काम नए सिरे से सीखना होगा। ह्वीलचेयर
के साथ चलना, खुद नहाना, कपड़े पहनना और रोजमर्रा के कई छोटे-मोटे काम नए सिरे से
सीखना मेरे लिए आसान नहीं था बावजूद इसके मैंने हिम्मत नहीं हारी। मेरे शरीर के
निचले हिस्से में कोई संवेदना नहीं है। मुझे यूरिनेशन और मोशन का एहसास नहीं होता।
इसलिए मेरे शरीर के भीतर दो पाइप लगाए गए हैं, जिनके जरिये यूरिन और स्टूल बाहर
निकलकर दो बैग्स में जमा होते हैं। जिन्हें हर चार घंटे के अंतराल पर मुझे साफ
करना होता है। मुझे सफाई का बहुत ज्यादा ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि जरा सी चूक
से अंदरूनी इंफेक्शन हो सकता है। प्रज्ञा कहती हैं कि चूंकि मेरी शारीरिक
गतिविधियां बेहद सीमित हैं, इसलिए ज्यादा कैलोरी मेरे लिए बहुत नुकसानदेह है।
इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए मैं जंक फूड से हमेशा दूर रहती हूं। अपनी पसंद की
दूसरी चीजें भी सीमित मात्रा में खाती हूं। शरीर के ऊपरी हिस्से से सम्बन्धित
जरूरी एक्सरसाइज और मेडिटेशन नियमित रूप से करती हूं। मैं अक्सर सोचती हूं कि अगर मेरा करियर योग के बजाय कुछ और होता तो शायद मेरे
लिए इस सदमे से उबरना इतना आसान नहीं होता। ट्रेनिंग के दौरान मैंने विल पावर और
पॉजिटिव थिंकिंग के बारे में पढ़ा था। तब हमें सिखाया गया था कि योग हमें शारीरिक
रूप से फिट रखने के साथ आंतरिक खुशी भी देता है। अगर हम अच्छी बातें सोचेंगे तो
मुश्किलों में भी खुश रहेंगे। तब भी मैं इन बातों को समझकर इन पर अमल करने की पूरी
कोशिश करती थी लेकिन इनका असली मतलब मुझे एक्सीडेंट के बाद समझ में आया। जब मुझे
इस सीख को व्यावहारिक रूप से जीवन में उतारने का मौका मिला। आजकल मैं वसंत कुंज
स्थित इंडियन स्पाइनल इंजुरी सेण्टर में मरीजों को योग और मेडिटेशन सिखाती हूं।
मैं उनकी काउंसलिंग भी करती हूं। चूंकि मैं खुद भी फिजिकली चैलेंज्ड हूं। इसलिए
मरीजों की व्यावहारिक दिक्कतों को अच्छी तरह समझ पाती हूं और वे भी मुझसे बेझिझक
होकर बातें करते हैं। अगर कोई सामान्य स्वस्थ व्यक्ति उन्हें कोई सलाह दे तो शायद
उन्हें ऐसा लगेगा कि कहना आसान है पर करना बहुत मुश्किल। वहीं जब मैं किसी व्यक्ति
को कोई सलाह देती हूं तो वह मुझसे प्रेरित होकर मेरी बातों पर अमल करने की पूरी
कोशिश करता है।
प्रज्ञा कहती हैं कि मैं अकसर वीकएंड में
दोस्तों के साथ डिस्कोथेक चली जाती हूं। मुझे स्वीमिंग भी बहुत पसंद है। मुझे
तैरते देखकर अक्सर लोग हैरत में पड़ जाते हैं पर मजे की बात यह है कि अब मेरे लिए
तैरना और आसान हो गया है। मेरे पैर बेजान हो चुके हैं। इसलिए वे पानी में अपने आप
तैरते रहते हैं। मैं केवल अपने हाथों की मदद से तैरती हूं। ड्राइविंग तो मेरा पैशन
रहा है। मेरी कार में हैंड कंट्रोल लगा हुआ। छुट्टियों में मैं लांग ड्राइव पर
निकल जाती हूं। हाल ही में अपने दोस्तों को साथ लेकर अलवल (राजस्थान) तक गई थी। मुझे घूमना बहुत पसंद है। ह्यूमन राइट्स का कोर्स करने के
लिए मुझे अमेरिका जाने का अवसर मिला। वहां सभी सार्वजनिक स्थलों पर फिजिकली
चैलेंज्ड लोगों की जरूरतों का पूरा ध्यान रखा जाता है। वहां मैं अपनी ह्वीलचेयर
लेकर आसानी से कहीं भी जा सकती थी। डिज्नीलैंड में मैंने कई ऐसे राइड्स को एंजॉय
किया जिस पर जाते हुए नॉर्मल लोगों को भी डर लग रहा था। वहां जैसे-जैसे झूला ऊपर
जाता था मैं खुशी के मारे जोर से चीखती और मुझे ऐसा लगता कि उसकी ऊंचाई के साथ
मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ता जा रहा है। वहां मैंने फिजिकली चैलेंज्ड लोगों को काफी
खुश देखा। उन्हें देखकर मुझे ऐसा लगा कि इतनी तकलीफों के बावजूद जब ये इतने खुश
हैं तो मैं क्यों नहीं रह सकती।
प्रज्ञा बताती हैं कि मैं लकी हूं कि मेरे
मम्मी-पापा ने कभी भी मुझ पर कोई बंदिश नहीं लगाई। वे हमेशा मुझे आगे बढ़ने के लिए
प्रोत्साहित करते हैं। हां, शहर के असुरक्षित माहौल को देखकर वे मुझे देर रात तक
बाहर रहने के लिए मना करते हैं तो मैं भी उनकी बात मान लेती हूं। जब मैं हॉस्पिटल
में भर्ती थी, तब अंतरराष्ट्रीय स्तर के पावर लिफ्टर अरुण सोंधी भी वहीं थे,
उन्हें पैराप्लीजिया (निम्न पक्षाघात) की समस्या है। उन्होंने मुझे ह्वीलचेयर
के साथ मूव करना और कार ड्राइव करना सिखाया था। आजकल वह स्वीडन में रहते हैं।
मैंने उनके जैसा खुशमिजाज इंसान आज तक नहीं देखा। मैंने उनसे ही सीखा कि मुश्किलों
का सामना हंसते-हंसते कैसे किया जाता है। प्रज्ञा कहती हैं कि अब मैं जिंदगी की
कीमत पहचान गई हूं और उसे व्यर्थ गंवाना नहीं चाहती। शायद आपको यकीन न हो, पर आज
मैं पहले से ज्यादा खुश हूं। उस दुर्घटना ने मुझे जिंदगी से प्यार करना सिखा दिया
और मैं इसके हर पल को जी भरकर एंजॉय करती हूं।
प्रज्ञा कहती हैं कि इंडियन स्पाइनल इंजुरी सेण्टर दिल्ली में इलाज के दौरान मुझे लगा कि मैं अकेली नहीं जिस
पर बज्राघात हुआ हो। चोट के बावजूद मेरे मन में अनेकानेक विचार पैदा हुए और मैंने संकल्प
लिया कि ह्वीलचेयर में होते हुए भी मैं अपने सभी सपने साकार करूंगी। मेरे संकल्पों
का सफर आसान तो नहीं था लेकिन प्रबल इच्छाशक्ति और कुछ कर गुजरने की लालसा ने मुझे
हौसला दिया। मेरी सक्रियता को देखते हुए इंडियन साइनल इंजुरी सेण्टर दिल्ली में ही
मुझे सेवा का अवसर मिला। मैंने दिव्यांगजनों की सेवा के साथ ही 2008 में टेबल
टेनिस में हाथ आजमाने शुरू कर दिए। कोई एक साल में ही मैंने अपने आपको प्रतिस्पर्धा
में कौशल दिखाने लायक तैयार कर लिया। 2009 में मैंने पहले स्टेट और फिर नेशनल में
स्वर्ण पदक जीता। मेरा चयन 2010 के राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए किया गया। नेशनल
कैम्प में जब मेरी तैयारियां बेहतर चल रही थीं उसी समय एक दिन मैं ह्वीलचेयर से
गिर गई और चोटिल हो गई। इस चोट की वजह से मेरा राष्ट्रमण्डल खेलों में शिरकत करने
का सपना चकनाचूर हो गया।
इस चोट के बाद मैं दो साल तक (2011 और 2012) खेलों से
बिल्कुल दूर रही। प्रज्ञा बताती हैं कि मुझे खेलों से लगाव था सो 2013 में मैंने
एथलेटिक्स में हाथ आजमाने शुरू कर दिए। मैंने मैंने डिस्कस थ्रो, जेवलिन थ्रो और
शाटपुट में कड़ा अभ्यास किया नतीजन मैंने तीन साल में ही तीन इंटरनेशनल पदक जीत
लिए। मैंने 2014 में दो और 2016 में एक मैडल जीता है। मेरी इस उपलब्धि को देखते
हुए मेरा रियो पैरालम्पिक खेलों के अभ्यास शिविर के लिए चयन कर लिया गया लेकिन
यहां भी मेरी किस्मत दगा दे गई। अभ्यास के दौरान ह्वीलचेयर से गिर जाने से मैं
चोटिल हो गई और रियो पैरालम्पिक में शिरकत करने से वंचित रह गई। प्रज्ञा कहती हैं
कि मैंने हिम्मत नहीं हारी है, मेरा लक्ष्य टोक्यो पैरालम्पिक है। मैं टोक्यो में
अपने देश के लिए पदक जीतना चाहती हूं। प्रज्ञा कहती हैं कि मैं जिस कैटेगरी में खेलती
हूं उस कैटेगरी में पोलियोग्रस्त खिलाड़ी खेलते हैं, जोकि जन्म से ही काफी मजबूत
होते हैं। जो भी हो मैं टोक्यो पैरालम्पिक खेलों में पदक के लिए जीजान लगा दूंगी। मेरा
सपना अपने देश के लिए टोक्यो में पदक जीतना है। प्रज्ञा कहती हैं कि मैंने खेलों
के साथ-साथ दिव्यांगों की सेवा को ही अपना धर्म और कर्तव्य मान लिया है। इंडियन स्पाइनल इंजुरी सेण्टर दिल्ली में काम करते हुए मैंने पाया कि दिव्यांगों का मर्म
कोई दिव्यांग ही समझ सकता है।
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