सुहास एलवाई यानि
सर्वश्रेष्ठ कर्मठ
बीजिंग में फहराया भारत का परचम
जीवन की हर चुनौती एक परीक्षा है। जो दिल से चुनौती को
स्वीकारता है, सफलता उसी के कदम चूमती है। एक प्रशासनिक अधिकारी पर ढेर सारी जवाबदेही
होती हैं, ऐसे में वह यदि प्रतिस्पर्धी खेल-कौशल के लिए समय निकाल कर मादरेवतन का
मान बढ़ाता है तो निःसंदेह यह बड़ी बात है। आजमगढ़ के मौजूदा कलेक्टर सुहास एलवाई
ने बचपन की अपनी दिव्यांगता को कभी अपने मानस पर हावी होने नहीं दिया। उन्होंने न
केवल लक्ष्य तय किए बल्कि अपनी लगन और मेहनत से उन्हें हासिल भी किया। पढ़ाई-लिखाई
का क्षेत्र रहा हो या फिर खेल का मैदान, उन्होंने हर जगह कामयाबी की दास्तां लिखी।
नवम्बर, 2016 में शटलर सुहास एलवाई ने बीजिंग में जो करिश्मा किया, उसकी जितनी
तारीफ की जाए वह कम है। एशियन पैरा बैडमिंटन के फाइनल में जीत का परचम फहराने वाले
सुहास एलवाई देश के इकलौते प्रशासनिक अधिकारी हैं। सरकारी फाइलों और योजनाओं को
लेकर बैठक दर बैठक, दौरे पर दौरे करने वाले उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के कलेक्टर
सुहास एलवाई ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति की बदौलत ही यह इतिहास रचा है। सेमीफाइनल में
कोरिया के क्योन ह्वांन सान को हराकर फाइनल में पहुंचे शटलर सुहास ने इंडोनेशिया के
हरे सुशांतो को हराकर न केवल स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया बल्कि देशवासियों का सिर
गर्व से ऊंचा कर दिया। 2007 बैच के सुहास एलवाई प्रदेश के गिने-चुने अच्छे अफसरों में शुमार होने के चलते
ही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में कलेक्टर
के पद पर तैनात हैं। खेल ही नहीं अपनी प्रशासनिक कार्यशैली के चलते उन्हें जिस
जिले का भी कार्यभार मिलता है, वह वहां की सूरत और सीरत बदल देते हैं। करिश्माई
व्यक्तित्व के धनी सुहास एलवाई को प्रदेश सरकार यश भारती सम्मान तो केन्द्र सरकार
सर्वश्रेष्ठ कर्मठ का पुरस्कार प्रदान कर चुकी है।
बीजिंग में इतिहास रचकर देश का मान बढ़ाने वाले आजमगढ़ के
जिलाधिकारी और 2007 बैच के आईएएस अधिकारी सुहास एलवाई ने अपने जज्बे और जुनून से
साबित कर दिखाया कि यदि लक्ष्य के प्रति समर्पण हो तो जिन्दगी में किसी भी चुनौती
से पार पाया जा सकता है। चीन की राजधानी बीजिंग में एशियन पैरा-बैडमिंटन चैम्पियनशिप
जीतकर जैसे ही वह आजमगढ़ पहुंचे उनका जोरदार स्वागत किया गया। कलेक्टर सुहास एलवाई
की यह सफलता उन लोगों के लिए नसीहत है, जो काम के दबाव का बहाना बनाकर अपनी लाचारी
बयां करते हैं। सुहास एलवाई को खेल विरासत में मिले हैं। उन्होंने दूरभाष पर हुई
चर्चा में बताया कि उनके पिताजी बॉल बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी थे। वह जब खेलते तो
मुझे अक्सर स्कोरिंग में लगा दिया जाता। उनके घर के पास क्लेकोर्ट था, सो मैंने
पहले बॉल बैडमिंटन पकड़ा। आउटडोर खूब खेला, इनडोर के अवसर बहुत कम मिले। वह बताते
हैं कि स्कूल स्तर पर उन्हें क्रिकेट और वॉलीबाल में कई अवार्ड भी मिले। नौकरी में
आने के बाद ही उन्होंने बैडमिंटन में हाथ आजमाए। वह ट्रेनिंग एकेडमी में बैडमिंटन
व स्क्वैश में कई बार चैम्पियन तो कई बार रनर अप रहे। अपनी सफलता पर वह कहते हैं
कि मैंने खेलों को न केवल अपने जीवन का हिस्सा बनाया बल्कि प्रतिदिन एक-दो घण्टे
अभ्यास भी करता हूं।
वह बताते हैं कि पढ़ाई हो या प्रशासनिक जिम्मेदारी, मैं
अपने लक्ष्य के प्रति हमेशा ईमानदारी बरतने की कोशिश करता हूं। सफलता के लिए इंसान
के अंदर जुनून होना चाहिए, सच कहें तो सर्वोत्तम प्रयास से ही सफलता मिलती है। वह
बताते हैं कि जब मैं आजमगढ़ की सगड़ी तहसील में एसडीएम रहा तब वहां बैडमिंटन कोर्ट
नहीं था। मैं रोज खेलने के लिए 18 किलोमीटर दूर आजमगढ़ जाता था। आगरा में भी रहा,
वहां अच्छे खिलाड़ी थे सो भरपूर सहयोग मिला। वह कहते हैं कि पैरा स्पोर्ट्स में
खिलाड़ियों को प्रोत्साहन की काफी गुंजाइश है। सरकार प्रयास भी कर रही है और
खिलाड़ियों को आर्थिक सहायता भी मिल रही है। अबूह उबैदा को ही लें वह मेरे साथ ही
बीजिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा लेने गए थे। सरकार से उन्होंने सहयोग मांगा और
मुख्यमंत्री ने उन्हें 1.13 लाख रुपये की मदद की। मैं अपने खर्च पर जा सकता था
इसलिए मैंने सहयोग की गुहार नहीं लगाई। सुहास एलवाई कहते हैं कि खेलभावना जीवन के
हर क्षेत्र में मदद करती है। जिस तरह खेलों में चुनौती होती है वैसे ही प्रशासनिक
दायित्व भी चुनौतीपूर्ण होते हैं।
जीत-हार खेल का हिस्सा है। खिलाड़ी एक मुकाबला हारता है तो
दूसरी प्रतिस्पर्धा के लिए दुगुनी ताकत से जुट जाता है। उसी तरह प्रशासनिक दायित्व
में भी सफलता-विफलता लगी रहती है। मेरा मानना है कि विफलता पर हताश होने की बजाय
उसे नसीहत के रूप में लेते हुए पुनः प्रयास करने चाहिए। बीजिंग में मिली सफलता पर
वह कहते हैं कि मुझे तीन महीने पहले चैम्पियनशिप के बारे में जानकारी मिली। मैं चूंकि
प्रोफेशनल नहीं शौकिया खिलाड़ी हूं सो सफलता को लेकर मन में थोड़ी हिचक सी थी। स्वर्ण
पदक जीतूंगा यह सोचने की बजाय मैंने अच्छा खेलने का निश्चय किया था। वह कहते हैं
कि चूंकि बैडमिंटन में चीन, इंडोनेशिया, मलयेशिया और कोरिया के नामचीन खिलाड़ियों
का दबदबा रहता है सो उन्हें हराना हमेशा मुश्किल होता है। वह बताते हैं कि
प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से पहले मैंने यू ट्यूब पर इन खिलाड़ियों का खेल देखा
और उन पर फतह पाने की रणनीति तय की। मेरी वर्ल्ड रैंकिंग नहीं थी इसलिए मुझे राउंड
राबिन में तीन, प्रीक्वार्टर फाइनल, क्वार्टर फाइनल, सेमीफाइनल और फाइनल सहित कुल
सात मैच खेलने पड़े और मैं विजेता बना।
बीजिंग के अनुभव के बारे में वह बताते हैं कि जब मैं बीजिंग
पहुंचा तो वहां अधिकतम तापमान माइनस एक व न्यूनतम माइनस आठ था। हम लोगों की 15.20
डिग्री में रहने की आदत होती है। ऐसे में अपने को फिट रखना सबसे बड़ी चुनौती थी।
इसके लिए अतिरिक्त वार्म-अप करना पड़ा। दूसरा वहां प्रोत्साहित करने वाले समर्थक नहीं
थे, इसलिए खुद को मानसिक रूप से तैयार किया। फाइनल में मैं पहला सेट हार गया था और
दूसरे सेट में 11-9 से पीछे था लेकिन आत्मविश्वास नहीं खोया और जीत हासिल की।
सुहास एलवाई बताते हैं कि उन्हें गाने सुनने का शौक है। उन्होंने फाइनल खेलने से पहले
चक दे इंडिया गाने को दो बार सुना था। बैडमिंटन में इस सफलता पर वह कहते हैं कि प्रोफेशनल
खिलाड़ी गौरव खन्ना ने मेरी काफी मदद की। उन्होंने तमाम महत्वपूर्ण तकनीकी बातें
बताईं। वह कहते हैं कि मैं जहां भी रहा, खेलों को प्रोत्साहित करने की पूरी कोशिश
की। हाथरस, जौनपुर, आजमगढ़ में मैंने बैडमिंटन कोर्ट दुरुस्त कराये। खेल से जुड़ी
गतिविधियों को प्रोत्साहित किया। इससे बच्चों का खेल में रुझान बढ़ता है। कलेक्टर
सुहास एलवाई अपने पिता स्वर्गीय यथिराज आयंगर को प्रेरणास्रोत तो बैडमिंटन में मलेशियाई
खिलाड़ी ली चांग को अपना आदर्श मानते हैं। वह बताते हैं कि मैंने यू ट्यूब पर ली
चांग के सारे मैच देखे हैं। उनकी तकनीक, फुटवर्क, हैंड मूवमेंट तथा तेजी को समझा
है। वह बताते हैं कि पत्नी व परिवार का प्रोत्साहन भी उनके लिए बहुत अहम है। उनका
अभिभावकों को यही संदेश है कि वे अपने बच्चों को खेल के प्रति अभिप्रेरित करें ताकि
वे स्वस्थ रहें और स्वस्थ भारत का सपना साकार किया जा सके।
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