Friday 16 December 2016

दिव्यांगता को चुनौती देती स्मिनू जिन्दल

 अपनी कमजोरी को बनाया ताकत
निःशक्तजन, यह शब्द सुनते ही हमारे जेहन में भले ही असहाय, लाचार और बेचारगी का भाव पैदा होता हो पर खुद निःशक्तजनों ने इस शब्द के मायने पूरी तरह बदल दिए हैं। वे कहने को बेशक निःशक्तजन हों पर उन्होंने अपने काम से ऐसा मुकाम हासिल किया है, जिससे वे मुल्क में बेहद खास बन गए हैं। वाकई हमारे आसपास आज ऐसे निःशक्तजनों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपनी कमजोरी को ताकत बनाया है, उस ताकत से इरादे मजबूत किए और फिर भरी हौसलों की ऊंची उड़ान। एक ऐसी उड़ान, जिसके सफर में लाख बाधाएं आईं, पर मजबूत इरादे उन्हें डिगा नहीं पाए और वे पहुंचे अपनी मंजिल तक। इस दुनिया में रोज लाखों लोग पैदा होते हैं। रोज लाखों लोग मरते हैं। मगर दुनिया में चंद ही लोग अपना नाम, अपनी पहचान बना पाते हैं। वे लोग कोई नया काम नहीं करते, मगर हर काम को अलग ढंग से करना जानते हैं। स्मिनू जिन्दल ने भी कुछ ऐसा ही किया है।
विकलांगता हमारे देश का बहुत बड़ा अभिशाप है। आंकड़ों के अनुसार विश्व का हर छठा विकलांग व्यक्ति भारतीय है। इसका दुखद पहलू यह है कि इनमें से 75 प्रतिशत 18  से 25 वर्ष आयु वर्ग के हैं। इनमें से बहुत कम लोगों को शिक्षा, रोजगार आदि की सुविधाएँ नसीब हो पाती हैं। इनकी बदहाली का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि रोजगार में विकलांगों का हिस्सा केवल 0.4  प्रतिशत है। विकलांगों को शिक्षा और रोजगार उपलब्ध कराना एक राष्ट्रीय चुनौती है। इस काम में भी स्वयंसेवी संगठन और कुछ निजी कम्पनियाँ सक्रिय हैं। ह्वीलचेयर के सहारे चलने-फिरने वाली दिल्ली की स्मिनू जिन्दल ने अपने खुद के अनुभव से प्राप्त करुणा को सहायता में बदलने के लिए स्वयं नाम की संस्था बनाई है। स्वयं दिव्यांग व्यक्तियों के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। इसका कारण यह है कि हमारी इमारतें, सड़कें, गलियाँ आदि शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए सुविधाजनक नहीं हैं। स्मिनू जिन्दल इसके लिए सरकार का साथ दे रही हैं और उसका साथ ले भी रही हैं।
जिन्दल परिवार की स्मिनू उन दिव्यांगों के लिए आदर्श हैं जो जिन्दगी अपनी तरह से जीना चाहते हैं। स्मिनू जिन्दल मौजूदा समय में जिन्दल समूह की कम्पनी सॉ लिमिटेड की मैनेजिंग डायरेक्टर होने के साथ दिव्यांगता को रोज जीती हैं। उन्होंने अपनी दिव्यांगता को अपनी ताकत बनाते हुए ऐसी पहचान बनाई कि आज उनकी ह्वीलचेयर खुद को लाचार समझती है। उनकी स्वयं नाम की स्वैच्छिक संस्था दिव्यांगों के सेवाभाव को पूरी तरह से समर्पित है। स्मिनू जब 11 साल की थीं, तब जयपुर के महारानी गायत्री देवी स्कूल में पढ़ती थीं। छुट्टियों में दिल्ली वापस आ रही थीं, तभी कार का एक्सीडेंट हुआ और वह गम्भीर स्पाइनल इंजुरी का शिकार हो गईं। हादसे के बाद उनके पैरों ने काम करना बंद कर दिया और उन्हें ह्वीलचेयर का सहारा लेना पड़ा। स्मिनू जिन्दल बताती हैं कि अपने रिहैबिलिटेशन के बाद जब मैं इण्डिया वापस आई तो काफी कुछ बदल चुका था। मैंने मायूस होकर पिताजी से कहा था कि मैं स्कूल नहीं जाऊंगी, पर पिताजी ने जोर देकर मुझसे कहा कि तुम्हें अपनी बहनों की तरह ही स्कूल जाना पड़ेगा। आज मेरे पति और बच्चों के लिए भी मेरी विकलांगता कोई मायने नहीं रखती। स्मिनू कहती हैं कि आपको आपका काम स्पेशल बनाता है न कि आपकी स्पेशल कंडीशन। वह दिव्यांगों को अपने संदेश में कहती हैं खुद की अलग पहचान बनाने के लिए अपनी कमी को आड़े न आने दें, यही कमी आगे चलकर आपकी बड़ी खासियत बन जाएगी। स्मिनू जिन्दल का कहना है कि यदि हम मन से दिव्यांगता को निकाल कर लक्ष्य तय करें तो सफलता अवश्य मिलेगी। सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद की बजाय सबसे पहले हमें अपने आपको मजबूत बनाना होगा। जब तक हम मन से मजबूत नहीं होंगे तब तक हम छोटा से छोटा काम करने में भी अपने आपको असमर्थ पाएंगे।
स्मिनू जिन्दल बताती हैं कि राजस्थान की मिट्टी से मेरा पुराना नाता रहा है। मुझे राजस्थान की अलग-अलग जगहों पर घूमना, जायकेदार खाना, कपड़े और वहां का हस्तशिल्प अभी भी बहुत याद आते हैं। आज भी लगता है जैसे कल ही जैसलमेर के रेगिस्तान में ऊंट की सवारी करके लौटी हूं। स्मिनू कहती हैं कि मैं आज भी जयपुर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हूं क्योंकि मुझे लगता है कि अगर मैं वहां गयी और वह सब नहीं कर पाई जिनकी मीठी यादें मेरे दिल में हैं तो मुझे बहुत मायूसी होगी। सोचती हूं कि क्या मेरे जैसे और लोग राजस्थान में नहीं होंगे, क्या उन्हें भी रोजमर्रा की जिन्दगी जीने में ऐसी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता होगा। वह कहती हैं कि जब मैं अपने पुनर्वास के उपरांत भारत वापस आई तो मैंने पाया कि सामाजिक ढांचागत सुविधाओं में सुगमता न होना एक बड़ी समस्या है। इसके अलावा भी बहुत सारी समस्याएं हैं।
मुझे लोग बेचारगी की नजर से देखते थे तब अच्छा नहीं लगता था। यद्यपि मैं एक समृद्ध परिवार से थी और मेरे पिताजी ने मेरे लिए स्कूल में रैम्प बनवा दिया जिसके चलते मैंने स्कूल की पढ़ाई थोड़ी सहजता से पूरी की। वह कहती हैं कि जब पहले दिन मैं स्कूल पहुंची तो दूसरे बच्चों का मेरी तरफ देखने का नजरिया अलग था। पर शायद बच्चे बहुत सरल होते हैं इसलिए उन्होंने खेलते-खेलते कब मुझे अपना दोस्त बना लिया, मुझे पता ही नहीं लगा। आज जब पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि बच्चे इतने सरल होते हैं कि वे असामान्य लोगों में भी समानता खोज लेते हैं। जिन निःशक्त या सामान्य बच्चों को एक समेकित वातावरण में सामाजिक विविधता के साथ पढऩे-लिखने और खेलने का मौका नहीं मिलता वे अक्सर सम्पूर्ण विकास से महरूम रह जाते हैं। अक्सर यही बच्चे बड़े होकर सामाजिक विविधता को नहीं स्वीकार पाते और निःशक्तजनों के प्रति एक उदासीन रवैया रखने को मजबूर होते हैं। इसलिए मैं मानती हूं सभी स्कूलों का बाधामुक्त होना जरूरी है जिससे सभी स्कूलों में समावेशी शिक्षा मिल सके और निःशक्त बच्चों को निःशक्तता आधारित स्पेशल स्कूलों में जाने को बाध्य न किया जाए। स्कूलों व उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों को बाधामुक्त बनाने के साथ-साथ हमें देखना होगा कि बच्चे कैसे अपने-अपने घरों से निकल कर सुरक्षित स्कूल तक पहुंचें, इसके लिए यातायात सुगम्यता एक महत्वपूर्ण घटक है। क्या सड़क किनारे बाधामुक्त पैदल यात्री पथ हैं, क्या हमारी परिवहन व्यवस्था उनके लिए सुगम्य हैं, क्या ट्रैफिक लाइटें एक श्रवण विकलांग व एक दृष्टिबाधित व्यक्ति की आवश्कताओं को पूरा करती हैं, क्या पैदल यात्री पथ पर स्पर्श संकेतक लगे हैं जिससे हमारे दृष्टिबाधित साथी भी सबके सामान इन आवश्यक सुविधाओं का उपयोग कर सकें। परिवहन के सभी साधन जैसे रेलवे, एयरपोर्ट व एयरप्लेन, बसें, टैक्सी, रिक्शा आदि में भी सुगम्यता की कानूनी अनिवार्यताएं हैं, जिन्हें आज हमें उपलब्ध करने को कृतसंकल्पित होना चाहिए। स्मिनू जिन्दल कहती हैं कि मैं अपनी संस्था के माध्यम से दिव्यांगों की परेशानियों को दूर करने के बेशक प्रयत्न कर रही हूं लेकिन मैं इन्हें नाकाफी मानती हूं। दरअसल दिव्यांगों का यदि वाकई भला करना है तो हमें समन्वित प्रयास करने होंगे। अकेली स्मिनू जिन्दल या कोई और हर समस्या का समाधान नहीं है। आओ हम सब मिलकर दिव्यांगों की बेहतरी के काम करें।


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