Tuesday 13 December 2016

सुयश के सुयश को सलाम

तैराकी में पिता के सपने साकार करता बेटा
जब हम किसी सफल व्यक्ति को देखते हैं तो केवल उसकी सफलता को देखते हैं। इस सफलता को पाने की कोशिश में वह कितनी बार असफल हुआ है, यह कोई जानना नहीं चाहता। जबकि असफलता का सामना करे बिना शायद ही कोई सफल होता है, दरअसल असफलता सफलता के साथ-साथ चलती है। आप इसे किस तरह से लेते हैं, यह आप पर निर्भर करता है क्योंकि हर असफलता आपको कुछ सिखाती है। असफलता से मिलने वाली सीख को समझकर जो आगे बढ़ता जाता है वह सफलता को पा लेता है। सफलता के लिए जितना जरूरी लक्ष्य और योजना है, उतना ही जरूरी असफलता का सामना करने की ताकत भी। जिस दिन आप तय करते हैं कि आपको सफलता पाना है, उसी दिन से अपने आपको असफलता का सामना करने के लिए तैयार कर लेना चाहिए, क्योंकि असफलता वह कसौटी है जिस पर आपको परखा जाता है कि आप सफलता के योग्य हैं या नहीं। यदि आप में दृढ़ इच्छाशक्ति है और आप हर असफलता की चुनौती का सामना कर आगे बढ़ने में सक्षम हैं तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। मैंने भी दोनों हाथ गंवाने के बाद मुश्किलों का सामना किया और आज मैं अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए दिन-रात कड़ी मशक्कत कर रहा हूं। यह कहना है पैरा स्वीमर सुयश जाधव का। सुयश कहते हैं कि रियो पैरालम्पिक में मैडल न जीत पाने का मलाल तो है लेकिन टोक्यो में मैं पदक जीतने के लिए पूरी कोशिश करूंगा।
सुयश कहते हैं कि मेरे खिलाड़ी पिता का सिर्फ एक ही सपना था कि मैं देश के लिए खेलूं और पदक जीतूं। जब मैं 11 साल का था एक हादसे ने मेरे दोनों हाथ छीन लिए। मैं निराश था कि कैसे अपने पिता के सपने साकार करूंगा। सुयश कहते हैं कि जीवन में कठिनाइयां तो आती ही हैं और कभी-कभी तो इतनी अप्रत्याशित कि सम्हलने का समय ही नहीं मिलता। यही तो जीवन की ठोकरें हैं जिन्हें खाकर ही हम सम्हलना सीख सकते हैं। मैंने तरणताल को अपनी कर्मस्थली माना और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक भी जीते लेकिन यही मेरा शिखर नहीं है। रियो पैरालम्पिक खेलों में शिरकत करना और पदक न जीतना मेरे लिए काफी तकलीफदेह है।
दरअसल अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए गांव वेलापुर जिला सोलापुर के सुयश जाधव बचपन से ही एक इंटरनेशनल स्वीमर बनना चाहते थे। उनके पिता नारायण जाधव भी एक नेशनल लेवल के तैराक रह चुके हैं। बचपन में एक कंस्ट्रक्शन साइट पर खेलते हुए सुयश बिजली के खुले तारों से उलझ गये और गंभीर रूप से घायल हो गये। हादसे के वक्त सुयश छठवीं क्लास में पढ़ते थे और उनकी उम्र सिर्फ 11 साल थी। डॉक्टरों के प्रयास से उनकी जान तो बच गई लेकिन उनके दोनों हाथ काटने पड़े। इस दुर्घटना के बाद सुयश को छह महीने तक हॉस्पिटल में एडमिट रहना पड़ा। दोनों हाथों को गंवाने के बाद भी सुयश ने हार नहीं मानी और अपने पिता की सहायता से ट्रेनिंग शुरू की। कुछ साल तक सोलापुर में ट्रेनिंग के बाद वे पुणे के डेक्कन जिमखाना आ गए और यहां कई साल तक ट्रेनिंग की। इसके बाद वे दिव्यांगों के लिए आयोजित डोमेस्टिक गेम्स में शामिल हुए और कई पदक अपने नाम किए। एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होंने अपने बचपन के सपने को पूरा करते हुए इंटरनेशनल लेवल पर भारत के लिए पदक जीतना शुरू किया। सुयश ने जर्मनी में आयोजित तैराकी के तीन इवेंट्स में चांदी के पदक जीते तो 2015 में पोलैंड में हुए विंटर ओपन चैम्पियनशिप में एक स्वर्ण, एक रजत तथा दो कांस्य पदक जीतकर अपने अच्छे तैराक होने का सुबूत पेश किया। इतना ही नहीं सुयश ने 2015 के वर्ल्ड गेम्स में दो स्वर्ण पदक जीतकर दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। सुयश जाधव देश के पहले इंडियन स्वीमर हैं जिन्हे पैरालम्पिक खेलों में शिरकत करने का मौका मिला। सुयश के प्रारम्भिक कोच और उनके पिता को उम्मीद है कि रियो में निराशा हाथ लगने के बाद भी सुयश एक न एक दिन भारत के लिए ओलम्पिक में पदक जरूर जीतेगा।
सुयश तैराकी के साथ ही पढ़ने में भी हमेशा अव्वल रहा है। सुयश ने अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक स्वर्ण, पांच रजत और चार कांस्य पदक जीते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर उसने 30 स्वर्ण, चार रजत और एक कांस्य पदक से अपना गला सजाया है। राज्यस्तरीय प्रतियोगिता की जहां तक बात है उसका 45 स्वर्ण पदकों पर कब्जा जमाना यही साबित करता है कि वह महाराष्ट्र का असली माइकल फेल्प्स है। बातचीत में सुयश जाधव बताते हैं कि अमेरिकी माइकल फेल्प्स ही उनका आदर्श हैं। मैं हमेशा इस खिलाड़ी की ही तरह तरणताल में नए प्रतिमान स्थापित करने का सपना देखता हूं। अपनी भविष्य की योजनाओं पर वह कहते हैं कि मेरा लक्ष्य 2017 में मैक्सिको में होने वाली विश्व तैराकी प्रतियोगिता के साथ ही 2018 के एशियन गेम्स हैं। मैं 2020 में टोक्यो पैरालम्पिक में देश के लिए पदक जीतने का सपना भी देख रहा हूं। सब कुछ ठीक रहा तो निश्चित ही मेरे सिर कामयाबी का सेहर बंधेगा।  


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