Friday 2 January 2015

अधकचरे संकल्पों का दर्द

हम हर नये साल कुछ संकल्प लेते हैं। कुछ पूरे होते हैं तो बहुत से इच्छाभाव में कमी के चलते एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाते। जनता जनार्दन को बेहतर जीवन देने की जवाबदेही हर सरकार की होती है। नरेंद्र मोदी सरकार तो सबका साथ, सबका विकास की कसम लेकर सत्तारूढ़ हुई है वह भी अपने लाव-लश्कर के साथ। जनता सरकार चुनती है, इस गरज से कि उसकी अपेक्षाओं का ख्याल रखा जाएगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जनता जनार्दन को बड़ी उम्मीदें हैं। अब उन्हें सोचना है कि आम आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान कैसे मिले। सीमित संसाधनों के बीच मोदी सरकार के सामने जहां मुल्क का पेट भरना कठिन चुनौती है वहीं शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की लचर व्यवस्था कोढ़ में खाज का काम कर रही है।
तीन दशक बाद मुल्क की जनता ने गैर कांग्रेस सरकार पर भरोसा जताया है। लोकतंत्र की विसंगतियों से आजिज जनता अब मोदी से सुशासन, पारदर्शिता व जवाबदेही चाहती है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नरेन्द्र मोदी के उदय की वजह उनमें भरा अपार उत्साह है। मोदी ने अपने अब तक के कार्यकाल में जनता की उम्मीदों को जिन्दा रखा है। चालू साल में उन्हें जनता की उम्मीदों को पर लगाने होंगे। मुल्क का विकास ऐसा हो जिसमें गरीब राहत महसूस करे। चालू साल यह तय करेगा कि मोदी सरकार का एजेण्डा वाकई सबका साथ, सबका विकास है या फिर घर वापसी का सिर्फ एक चोचला। मोदी सरकार ने अब तक विकास की जो प्राथमिकताएं तय की हैं उनमें उनकी स्वच्छता की मुहिम को सबने सराहा है। अब जनता जनार्दन की इच्छा है कि मोदी व्यवस्था की सफाई और पारदर्शी सुशासन पर चाबुक चलाएं। मोदी सरकार ने जंग खा रहे कुछ नियम-कायदों की पोटली बंधवाने के साथ योजना आयोग का नाम तो बदलवा दिया पर परिवर्तन की उनकी मंशा तभी लोगों को भाएगी जब उसका लाभ गरीब तबके को मिलेगा। सरकार के सामने समस्याएं आगे भी आएंगी इस पर नजर रखते हुए मोदी को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे ताकि सत्ताधीशों के भेजे में यह बात पहुंचे कि मुल्क की आवाम अब जागरूक है और उसका मोहभंग होते देर नहीं लगेगी। देश में विकास की रफ्तार बढ़ना जरूरी है लेकिन विकास की अंधी दौड़ में समाज के सरोकारों पर आंच नहीं आनी चाहिए। विकास का मतलब कारपोरेट व औद्योगिक घरानों की समृद्धि नहीं हो सकती। सरकार के क्रिया-कलापों में पारदर्शिता के साथ-साथ समाज के समग्र विकास का मॉडल हो। 2014 में भारत ने मंगल अभियान व स्वदेशी तकनीक से निर्मित प्रक्षेपण का दुनिया में जो बिगुल बजाया है उसके लाभ में सबकी भागीदारी होनी चाहिए। मेक इन इण्डिया का नारा तभी फलीभूत हो सकता है जब समाज में लैंगिक भेद की समाप्ति के साथ आधी दुनिया को सम्मान के साथ जीने का अवसर तो हर हाथ को काम मिले। आज मुल्क का किसान परेशान है। प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त किसान को उसकी उपज का सही दाम नहीं मिल रहा तो शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है।
भारत ने वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी लक्ष्य के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। भारत ने तब संकल्प लिया था कि 2015 तक देश  में सभी साक्षर और निरोग होंगे। 14 साल पहले भारत ने देश के सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा और तीन प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने का भरोसा जताया था। सरकार की मंशा थी कि मुल्क में प्राथमिक शिक्षा और बुनियादी चिकित्सा सुविधा का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। सरकारी संकल्प के 14 साल बीत गये लेकिन न देश साक्षर हुआ और न ही हम निरोग हो पाए। सहस्राब्दी लक्ष्य की मंशा के मुताबिक जनता को स्वास्थ्य का अधिकार तो पहले से ही है, किन्तु जो नीतियां आज बन रही हैं उनमें मरीज से कहीं अधिक दवा कम्पनियों और निजी अस्पतालों को ही लाभ है। एक तरफ सरकार विदेशी बीमा कम्पनियों के माध्यम से स्वास्थ्य बीमा को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित कर रही है तो दूसरी तरफ हमारे सरकारी अस्पताल बदहाली का शिकार हो रहे हैं। डॉक्टरों की दिलचस्पी निजी अस्पताल खोलने में है। इलाज महंगा है तो दवाईयों की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऐसे में मोदी सरकार को सोचना चाहिए कि एक गरीब भारतीय को बेहतर स्वास्थ्य लाभ कैसे मिले?
शिक्षा के क्षेत्र में भी देश की स्थिति संतोषजनक नहीं है। मुल्क में प्राथमिक स्तर पर लाखों शिक्षकों की कमी है तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में फर्जीवाड़ा चरम पर है। शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए सभी राज्यों में ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं भले ही उनका पदनाम कुछ भी हो। अफसोस इन शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। आज सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगभग उठ चुका है। वहां वही बच्चे पढ़ते हैं जो सब तरह से मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति बेहद खराब है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी से अपेक्षा थी कि वे कल्पनाशीलता के साथ व्यवस्था में सुधार करेंगी पर उनका पूरा समय अनावश्यक विवादों में ही जाया हो रहा है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय में स्थापित जिन आदर्श शिक्षण संस्थाओं से निकलकर अनेकानेक भारतीयों ने दूर देशों में जाकर शोहरत हासिल की आज उन्हीं श्रेष्ठ संस्थाओं की स्वायत्तता खतरे में है। मोदी सरकार को तेली का काम तमोली से कराने की बजाय देशहित के मसलों को अपने योग्य सिपहसालारों के हाथ सौंपना चाहिए। कमल दल में योग्य लोगों की कमी नहीं है। मोदी सरकार अपने पारदर्शी कामकाज से अधकचरे संकल्पों का दर्द दूर कर सकती है।

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