Sunday 25 January 2015

तमाशबीनों के हाथ खेल

खेलों में गड़बड़ ही गड़बड़ है। यह बात हाल ही सर्वोच्च न्यायालय ने एन. श्रीनिवासन के खिलाफ फैसला सुनाकर सच साबित कर दिया है। हाल के कुछ घटनाक्रमों के बाद बेशक मुल्क में क्रिकेट को संदेह की नजर से देखा जा रहा हो पर अन्य खेलों में भी ईमानदारी और पारदर्शिता  के अभाव में खिलाड़ी खिलखिलाने की बजाय मायूस हैं। खेलों में प्रतिभा कोई मायने नहीं रखती है क्योंकि उसका पैमाना वे लोग तय करते हैं जिनका खेलों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। इन खेलनहारों की जिस पर कृपा हो जाए वह पिद्दी प्रदर्शन के बावजूद चैम्पियन बन सकता है। खेलों और खिलाड़ियों से खेलवाड़ गाहे-बगाहे नहीं बल्कि अमूमन हर प्रतियोगिता में होता है। प्रतिभाएं लाख मिन्नतों के बाद भी न्याय नहीं पातीं। खिलाड़ियों के मायूस चेहरों पर खेलनहार तरस नहीं खाते, उनका दिल नहीं पसीजता। आखिर उपेक्षा से तंग खिलाड़ी असमय खेलों से तौबा कर लेता है और उसके अरमान एक झटके में जमींदोज हो जाते हैं।
आम खेलप्रेमी और खिलाड़ी के बीच लम्बा फासला होने की वजह से  वह सच कभी सामने नहीं आ पाता जोकि प्रतिभाएं हर पल जीती हैं। प्रतिभाशाली खिलाड़ी किन-किन दिक्कतों से जूझता है उससे प्राय: हम बेखबर होते हैं। जो हम देखते हैं, जिनके लिए ताली पीटते हैं वह सिर्फ खेलनहारों का आडम्बर होता है। भारतीय खेलों की हर आचार संहिता खिलाड़ी विरोधी और खेल पदाधिकारियों की आरामतलबी का जरिया है। छोटी सी गलती पर खिलाड़ी तो बलि का बकरा बना दिया जाता है लेकिन उन बेशर्मों का कुछ नहीं होता जिन पर प्राय: प्रतिभा हनन को उंगली उठती है। मैदान में कभी खिलाड़ी बेईमानी से हराया जाता है तो कभी उस पर स्वयं हार जाने का दबाव डाला जाता है। प्रतिभा हनन का यह शर्मनाक खेल गांव-गली से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चल रहा है।
देश में खेलों से जुड़े ईमानदार लोगों की पहचान आज बहुत बड़ी चुनौती है। सुरेश कलमाड़ी और ललित भनोट जैसे बेईमान-भ्रष्टाचारी बेशक अदालती कार्रवाई के बाद खेल परिदृश्य से ओझल हैं लेकिन उनके दाएं-बाएं हाथ आज भी वही कर रहे हैं जोकि उन्हें बाहर से निर्देश मिलता है। भारत में खेलों का स्याह सच तो यह है कि खिलाड़ी मैदान तो मैदान उससे बाहर भी महफूज नहीं है। सरकार भी खेलनहारों के सामने लाचार है। खेल संगठन सरकारी सहायता से अपना नाम तो चमकाते हैं लेकिन उसकी आचार संहिता से उन्हें गुरेज है। हाल ही बीसीसीआई के निर्वासित अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने खेलों का सिर्फ एक परिदृश्य ही दिखाया है, शेष परिदृश्यों की हकीकत न केवल खिलाड़ी का मनोबल तोड़ती है बल्कि स्वस्थ भारत की परिकल्पना को भी तार-तार करती है। दुनिया का सबसे समृद्ध खेल संगठन भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड भारत सरकार से एक पाई भी नहीं लेता यही वजह है कि उसे मुल्क की हुकूमत और उसके नियम-कायदों से परहेज है। असहाय सरकार चाहकर भी क्रिकेट पर लगी कालिख साफ नहीं कर पाती।
सवाल यह उठता है कि जब क्रिकेट बोर्ड सरकार को कुछ मानता ही नहीं है तो भला हम क्रिकेटरों को भारतीय सम्मान देने के साथ देवदूत की संज्ञा क्यों देते हैं? दरअसल देश का कोई भी राजनीतिक दल क्यों न हो उससे जुड़े लोग क्रिकेट ही नहीं हर खेल संगठन में काबिज हैं। सच यह कि राजनीतिज्ञराजनीति ही नहीं मुल्क के खेल भी अपने तरीके से चला रहे हैं। हिन्दुस्तान बेशक खेलों की ताकत बनने और चीन, अमेरिका तथा रूसी खिलाड़ियों से दो-दो हाथ करने का दम्भ भरता हो पर जमीनी हकीकत  चीख-चीख कर बताती है कि हम आने वाले 100 साल में भी दुनिया की खेल ताकत नहीं बन सकते। भारत में खेल प्राथमिक स्तर से ही भ्रष्टाचार और फरेब का शिकार हैं। खेलनहारों की कृपा होने पर ही खिलाड़ी खेल और जीत सकता है।
जीत-हार खेल का हिस्सा है, यह जुमला भारतीय खेलप्रेमियों की व्यक्तिगत राय हो सकती है लेकिन खेल नजरिए से देखें तो मुल्क में खिलाड़ी का खेलना और उसकी जीत-हार सब कुछ उन हाथों में है, जिनके बाप-दादा भी कभी मैदान नहीं गये। देश में स्कूली खेलों का बुरा हाल है। खिलाड़ियों को दी रही सुविधाएं कागजों तक ही सीमित हैं। खिलाड़ियों को लाने-ले-जाने और खाने-खिलाने तक में बोली लगती है। फिलवक्त स्कूली खेलों में देश भर के सभी राज्यों सहित कोई 40 यूनिट शिरकत कर रही हैं, पर खिलाड़ियों को मिल रही सुविधाओं में बड़ा विभेद है। कुछ यूनिट खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं दे रही हैं तो अधिकांश राज्य यूनिटों में भ्रष्टाचार का खेल चरम पर है। पाठकों को जानकर दु:ख होगा कि जिन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर हम ताली पीटते हैं वे बेचारे तो भूखे पेट खेलने को मजबूर होते हैं। खिलाड़ी के साथ क्या हो रहा है, इसकी वह शिकायत करे भी तो आखिर किससे?
स्कूल गेम्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया (एसजीएफआई) स्कूली खिलाड़ियों की पालनहार संस्था है। इसका मुख्यालय आगरा में है, जिसमें एक-दो नहीं 11 सचिव तैनात हैं बावजूद इसके स्कूल खेलों में भ्रष्टाचार और प्रतिभा हनन का खेल बदस्तूर जारी है। गाहे-बगाहे खेलों में भ्रष्टाचार के मामले सुर्खियां बनते रहे हैं लेकिन जब भी जांच की आंच आई संलिप्त लोग खुद को बेदाग साबित करने से नहीं चूके। हाल ही क्रिकेट में भ्रष्टाचार के जो खलनायक सामने आए उसके बाद हर भारतीय को लगा कि खेलों की समूची गंगोत्री ही मैली है। देश में जब से आईपीएल का आगाज हुआ है समूचा खेल और खिलाड़ी नीलामी, बोली और पैसे की ताकत से तय हो रहे हैं। क्रिकेट में चलने वाली जोड़-तोड़, धन और रसूख का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। खेलों में परदे के पीछे सट््टेबाजी और मैच फिक्सिंग के चलन ने हार-जीत को संदिग्ध बना दिया है। अब खेलों के रग-रग में समाए संदिग्ध भूत को कैसे भगाया जाए यह किसी एक की नहीं सबकी जवाबदेही है।

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