Tuesday 20 January 2015

अप्रवासियों का स्याह सच

नरेन्द्र मोदी सरकार मुल्क को आर्थिक प्रगति की राह पर ले जाने को दिन-रात एक कर रही है। वह चाहती है कि अप्रवासी भारतीय यहां आकर न केवल निवेश करें बल्कि मुल्क की प्रगति को भी पर लगाएं। मोदी सरकार की सोच भारतीय प्रगति का सूचक है लेकिन अमेरिका के लूसियाना प्रांत के गवर्नर भारतीय मूल के बॉबी जिंदल ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों को जो निष्ठा का पाठ पढ़ाया है, उसके निहितार्थ हैं। मोदी सरकार को सरपट दौड़ लगाने की बजाय समय की नजाकत को समझते हुए प्रगति की राह चलना चाहिए। बॉबी जिंदल का खुद को भारतीय अमेरिकी कहे जाने का मलाल यह साबित करता है कि वह अतीत को भूल चुके हैं। जिंदल न केवल अमेरिका में बसे आव्रजकों को अमेरिकी बहु-सांस्कृतिक समाज में पूरी तरह से घुल-मिल जाने की सीख दे रहे हैं बल्कि रंगभेद पर तंज कसते हुए इसे संकुचित मानसिकता करार दिया है।
बॉबी जिंदल अमेरिका को महज एक ठौर-ठिकाना नहीं बल्कि एक अवधारणा मानते हैं। उनका यह कहना कि हम भारतीय बनना चाहते, तो हम भारत में ही रुकते। बॉबी जिन्दल को भारत से तो प्यार है लेकिन अधिकाधिक अवसरों और स्वतंत्रता के मामले में उनकी नजर में आज अमेरिका ही सर्वोपरि है। भारत को लेकर बॉबी जिंदल की सोच सभी अप्रवासी भारतीयों पर बेशक सटीक न बैठती हो पर मोदी सरकार के विकासोन्मुख प्रयासों के लिए करारा झटका जरूर है। मोदी सरकार का जिन्दल की बातों पर गहन चिन्तन समयानुकूल होगा। बॉबी जिन्दल ने स्वयं को भारतीय अमेरिकी कहे जाने पर जो सवाल उठाए हैं उससे भारत में निवेश को इच्छुक अप्रवासी भारतीय बिदक सकते हैं। बॉबी जिन्दल अगले साल अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं ऐसे में भारत उनके वक्तव्य का कूटनीतिक प्रयोग कर सकता है। मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में जिस तरह की जल्दबाजी और प्रबल इच्छाशक्ति दिखी, उससे तो ऐसा ही आभास होता है मानो भारत आर्थिक प्रगति के ककहरे से अब तक अनजान ही था। मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में पाकिस्तान को लेकर जिस तरह बलैयां ली गर्इं उससे मुल्क को क्या हासिल हुआ? विकास की टोटा रटंतू बातें भी हुर्इं लेकिन न तो यहां भारी उद्योग लगे, न कारोबार फले-फूले, न ही कोई आर्थिक विकास नजर आया। पिछले साल मोदी के हर चुनावी उद्बोधन में अर्थव्यवस्था की प्रगति का स्वर मुखर होता रहा। मुल्क को गुजरात की तरह विकास के सब्जबाग दिखाए गए, सबका साथ, सबका विकास जैसे गगनभेदी नारे भी गूंजे लेकिन आज वह अप्रवासी भारतीयों के बूते ही देश को प्रगति पथ पर ले जाना चाहते हैं, जोकि उचित नहीं है। मुल्क की बागडोर सम्हालने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने जन-धन योजना, मेक इन इण्डिया, नीति आयोग आदि योजनाओं को व्यावहारिक शक्ल में उतारा तो जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया जहां भी वे गए, उनके साथ व्यापारियों का हुजूम भी गया। वह 30 सितम्बर को अमेरिका में बराक ओबामा से भी मिले, उसके बाद से भारत और अमेरिका के बीच तीन दर्जन से अधिक बैठकें हो चुकी हैं। ओबामा की 26 जनवरी की भारत यात्रा को क्षमताओं के दोहन का अवसर करार दिया जा रहा है। यह सच है कि मोदी ने दुनिया में अपनी पहचान आर्थिक सुधारों के हिमायती, निवेशकों के हित की रक्षा करने वाले प्रधानमंत्री के रूप में बनाई तो भारत में ज्यादा से ज्यादा लोग निवेश करें, यहां के संसाधनों के इस्तेमाल से अपने उद्योगों को पर लगाएं ऐसे घोषित-अघोषित वादे उन्होंने दुनिया भर में किए हैं। गुजरात में प्रवासी भारतीय सम्मेलन और वाइब्रेंट गुजरात जैसे आयोजनों में भी इन्हीं बातों की गूंज रही। इसमें कोई शक नहीं कि भारत को निवेश और उद्योग के लिए बेहतर स्थान बनाने में नरेन्द्र मोदी जुटे हुए हैं पर उनके अधिकांश निर्णयों का उद्योगपतियों के लिए हितकारी होना आम भारतीय के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता।
मोदी सरकार जो कुछ कह और कर रही है, उसमें उसे किसी की हिमाकत पसंद नहीं है। कुछ दिनों पहले ग्रीनपीस संगठन की कार्यकर्ता प्रिया पिल्लै के साथ जो हुआ उससे इस बात के साफ संकेत मिलते हैं। दरअसल प्रिया पिल्लै के पास वैध वीजा और पासपोर्ट होने के बावजूद लंदन जाने से पहले उन्हें विमानतल पर रोक दिया गया और कहा गया कि उनके खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी है। दरअसल, यह नोटिस उनके खिलाफ जारी होता है, जो फरार अपराधी होते हैं। पिल्लै कभी फरार नहीं रहीं। कनबतियों पर यकीन करें तो इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट ही प्रिया के लिए मुसीबत बन गई, जिसमें कहा गया है कि ग्रीनपीस संस्था भारत की अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर देश को एक बड़े खतरे की ओर धकेलना चाहती है। प्रिया पिल्लै लंदन में कुछ ब्रिटिश सांसदों से कोयला खनन परियोजना और इससे आदिवासियों पर होने वाले प्रभाव के बारे में चर्चा करने जा रही थीं।
देखा जाए तो मध्यप्रदेश के माहन में एक कोयला खदान परियोजना प्रस्तावित है। जिसके खनन से यहां के जंगल और उस पर निर्भर आदिवासी आबादी के जीविकोपार्जन पर खतरे का अंदेशा है। ग्रीनपीस इसके खिलाफ आवाज उठा रही है, जो शायद मोदी सरकार को नागवार गुजरी। इसी तरह केरल के प्लाचीमाड़ा में कोकाकोला संयंत्र के खिलाफ केरल विधानसभा के प्रस्तावित निर्णय को राष्ट्रपति से मंजूरी दिलाने की जगह वापस भेज दिया गया। प्लाचीमाड़ा कोकाकोला विक्टिम रिलीफ एण्ड कम्पनसेशन ट्रिब्यूनल बिल 2011 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती, तो अपनी ही जमीन से बेदखल लोगों को न्याय की आस जगती, लेकिन यहां भी सरकार कोकाकोला के पक्ष में ही दिखाई दी। केरल हो या मध्यप्रदेश, उड़ीसा हो या गुजरात, देशी-विदेशी उद्योगपति तो मजे में हैं, पर वहां के रहवासी खून के आंसू रोने को मजबूर हैं। वे अपने ही जल, जंगल और जमीन के उपयोग से वंचित हो रहे हैं या बेदखल किए जा रहे हैं। आज गरीबों के साथ जो हो रहा है वह सबका साथ, सबका विकास नहीं हो सकता। 

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