Friday 9 January 2015

हे भगवान कैसा सम्मान

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावैं चौरा। यह सिर्फ लोकोक्ति नहीं बल्कि हम भारतीयों की हकीकत है। सम्मान सबको अच्छा लगता है। खिलाड़ियों को जहां पसीना सूखने से पहले सम्मानित किया जाना चाहिए वहीं महापुरुषों को जीते जी सम्मानित करने से दीगर लोगों को अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। अफसोस देश में सम्मान व्यापार बन चुका है। सम्मान के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं यहां तक कि अपने जमीर का सौदा भी। उम्मीद थी कि मोदी सरकार के आने के बाद स्थितियों में सुधार होगा, खिलाड़ी खिलखिलाएंगे पर अब भी अड़चनें कम नहीं हैं। हाल ही पद्म भूषण सम्मान को लेकर साइना नेहवाल मुंह फुला बैठीं। भला हो खेल मंत्री सर्बानन्द सोनोवाल का जिन्होंने बात बिगड़ने से पहले ही सम्हाल ली।
देश में खेल और खिलाड़ी बेशक एक-दूसरे के पूरक हों पर खिलाड़ी राजनीतिज्ञों के हाथ की ही कठपुतली है। आजादी से आज तक खेलों के समुन्नत विकास पर किसी सरकार ने पर्याप्त ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई। समय बदल रहा है। अब फिल्मी सितारे और नामचीन खिलाड़ी खेलों के उत्थान को आगे आ रहे हैं। एक समय था जब भारत में क्रिकेट को छोड़ अन्य खेल और खिलाड़ियों की कोई हैसियत नहीं थी। अब ऐसी बात नहीं है। खिलाड़ी जहां अपने हक के लिए मुंह खोल रहा है वहीं उद्योगपति, पूर्व खिलाड़ी और फिल्मी सितारे खिलाड़ियों को खेलमंच मुहैया करा रहे हैं। खेल मंचों के आबाद होने से खेल बाजार विस्तार पा रहा है। किस खेल को कितना आगे बढ़ाना है और उससे कैसे मुनाफा कमाना है यह बाजार बखूबी जानता है। राजनेता तो अर्से से खेलों में मलाई छान ही रहे थे अब इसमें फिल्मी हस्तियों के कूद जाने से उद्योगपतियों की अनिवार्यता भी बढ़ गई है। भारत में क्रिकेट के धंधे को आबाद हुए लम्बा समय हो चुका है। इस खेल में धन लगाने वालों को अब लगने लगा है कि अकेले घोड़े से अधिक लाभ नहीं कमाया जा सकता इसी वजह से अब वे हॉकी, कबड्डी, टेनिस, फुटबाल आदि खेलों में भी पैसा लगा रहे हैं।
खेलों का यह बदलाव कुछ सवालों को भी जन्म दे रहा है। हर धंधा लाभ की बुनियाद पर टिका होता है। खेलों का बाजार भी इससे अछूता नहीं रह सकता। खेल और लाभ के इस बाजारी चक्र में सरकार की भूमिका शून्य है। खेलों में सरकारी भूमिका की जहां तक बात है वह खेल मंत्रालय बनाने और चलाने तक ही सीमित है। भारत सरकार प्रतिवर्ष कुछ खिलाड़ियों को सम्मानित करने की औपचारिकता तो निभा रही है लेकिन उसकी पारदर्शिता पर बार-बार उठती उंगली खेलों में होते गड़बड़झाले का ही संकेत है। आजादी के बाद से भारत सरकार यदि खेल के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाती तो आज अंतरराष्ट्रीय खेल परिदृश्य में हमारी स्थिति कुछ और ही होती। खेल मंत्रालय द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर मिलने वाले पुरस्कारों और सम्मानों की बात करें, तो यह किसी से छिपा नहीं है कि इसमें किस तरह पक्षपात होता है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है, जब मुक्केबाज मनोज कुमार को कानूनी लड़ाई के बाद अर्जुन पुरस्कार हासिल हुआ। किसी खिलाड़ी का पुरस्कार या सम्मान के लिए कानून का सहारा लेना, अपनी सिफारिश करना या करवाना भारतीय खेलतंत्र के निकम्मेपन का ही सूचक है। लड़कर सम्मान हासिल करने से आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। आत्मसम्मान से ऊपर कोई भी सम्मान नहीं हो सकता, यह बात हमारी हुकूमतों को समझनी चाहिए।
शटलर साइना नेहवाल भारत की श्रेष्ठतम खेल प्रतिभाओं में शुमार हैं। उन्होंने प्रकाश पादुकोण और पुलेला गोपीचंद की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए बैडमिंटन में कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय खिताब जीते हैं। यही वजह है कि साइना की उपलब्धियों पर आज हर भारतीय को गर्व है। वे पद्म भूषण सम्मान के योग्य भी हैं, इसीलिए उन्हें पांच साल पहले ही पद्मश्री दे दिया गया था। बीते पांच बरस में उनके खेल में कई उतार-चढ़ाव, सफलताएं-असफलताएं दर्ज हुईं, किन्तु इससे उनका सम्मान कम नहीं हुआ। पुरस्कार और सम्मान की चाह मानवीय स्वभाव है। अफसोस हमारे यहां हर सम्मान पर राजनीति आड़े आ जाती है। आज शासकीय सम्मान राजनीतिक हित तो स्वैच्छिक सम्मान चापलूसी की इंतहा पार कर रहे हैं। राष्ट्र सम्मान, किसी पार्टी या सरकार की बपौती नहीं कि जिसे चाहा उसे दे दिया। ऐसे सम्मानों का आधार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य ही होना चाहिए।
गलती होना जुल्म नहीं है। उसे सुधारा भी जा सकता है। यदि पिछली हुकूमतों से राष्ट्र सम्मान के मामलों में चूक हुई है तो हमारी वर्तमान या आने वाली सरकारें उसमें सुधार कर सकती हैं। मोदी सरकार को भी पिछली सरकार की गलतियों को ठीक करने का अधिकार है। बेहतर तो यह है कि राष्ट्रीय सम्मान के लिए व्यक्तियों के चयन में सरकारों को बीच में नहीं पड़ना चाहिए। सर्वोच्च सम्मान पर बेवजह की राजनीतिक दखलंदाजी से इनकी पवित्रता और महत्ता दोनों पर आंच आती है। आत्मसम्मान की खातिर राष्ट्रीय सम्मान लेने से मना करने में मिल्खा सिंह से बेहतर कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता। अफसोस साइना नेहवाल इस बिरली जमात में शामिल होने से चूक गर्इं। अभी साइना के सामने बैडमिंटन का लम्बा करियर है, मुमकिन है वे आने वाले समय में कई खिताब जीतें, रिकॉर्ड बनाएं और बड़े से बड़े पुरस्कार प्राप्त करें। पद्म भूषण के लिए अपनी लालसा न जताकर अगर साइना नेहवाल होनहार खिलाड़ियों के साथ होने वाली नाइंसाफी के खिलाफ नाराजगी जतातीं या गुरबत में जीती प्रतिभाओं को आगे लाने की मुहिम छेड़तीं और मुल्क में खेलों की स्थिति सुधारने के लिए अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल करतीं तो उनकी समूचे मुल्क में जय-जयकार होती। 

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