Thursday 15 January 2015

कैसा वसुधैव कुटुम्बकम?

दहशतगर्द आतंकी किसी का सगा नहीं हो सकता यह तो दुनिया मानती है पर इनसे साझा तरीके से निपटने की जब भी बात होती है हम अपने-पराए का रोना रोने लगते हैं। आज दुनिया आतंकवाद की गिरफ्त में है। कोई देश इससे अछूता नहीं है। भारत में भी आतंकी खतरा किसी भी कीमत पर कम नहीं है, पर हमारी तैयारियां ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। मुम्बई में 26/11 हमले के बाद बैंकिंग, वित्तीय और परिवहन के क्षेत्र में आतंकी गतिविधियों पर निगरानी के लिए नेटग्रिड की स्थापना की गई थी लेकिन देश को उसका कोई फायदा नहीं मिला। आतंकवादी गतिविधियों की जांच और मुकदमा चलाने के लिए 31 दिसम्बर, 2008 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया गया था पर वह आधे-अधूरे स्टाफ के चलते कुशलता से अपने काम को अंजाम नहीं दे पा रही। मुम्बई हमले के बाद देश के चार बड़े महानगरों में एनएसजी का हब बनाया जाना था लेकिन वह भी गति नहीं पकड़ सका।
भारत आज आंतरिक आतंकवाद के साथ-साथ अपनी तटीय सीमाओं पर भी महफूज नहीं है। हमारे सामने 7016 किलोमीटर लम्बी तटीय सीमा की सुरक्षा अहम सवाल है। भारतीय तटीय सीमाओं के पास 1197 छोटे-छोटे द्वीप स्थित हैं, जिनकी हिफाजत भी किसी चुनौती से कम नहीं है। सात साल पहले मुम्बई में हुए हमले के आतंकवादी समुद्री रास्ते से ही भारत पहुंचे थे। देखा जाए तो आज के दौर में 1982 में अस्तित्व में आई संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि अब पुरानी पड़ चुकी है। नए खतरों के सामने अब वह कारगर नहीं है। भारत या पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकी वारदात होती है एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगना शुरू हो जाते हैं। पाकिस्तान पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह आतंकवाद के खात्मे में अपने-पराए का भेदभाव करता है। यह सच है कि पाकिस्तान ने हमेशा अच्छे और बुरे आतंकवाद का वर्गीकरण किया है। एक ओर तो वह आतंकवाद से लड़ने के दावे करता है तो दूसरी ओर आतंकवादियों को पनाह देने से भी गुरेज नहीं करता।
आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के अधिकांश मुल्क वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का मजाक उड़ा रहे हैं। बीते रविवार को जब फ्रांसीसी पत्रिका पर आतंकी हमले के विरोध में पेरिस में 10 लाख से अधिक लोग जुटे और कई देशों के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए तब भी  आतंकवाद से उपजे दर्द में अपने और पराए का ही भेद उजागर हुआ। शार्ली एब्दो में छपे कार्टूनों का विरोध करने के लिए जिस तरह उसके संपादक समेत 12 लोगों की हत्या की गई और सुपर मार्केट में बंधक बनाकर लोगों को मारा गया, उसकी चहुंओर निन्दा होना स्वाभाविक थी। पत्रकारों पर हमला सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। सच कहें तो यदि कलम के सिपाही किसी डर से अपनी बेबाक राय देना ही बंद कर देंगे तो आतंकवादियों का दुस्साहस कम होने की बजाय और अधिक खतरनाक स्थिति पैदा कर देगा।
फ्रांस में आतंकवादियों की कायराना करतूत के बाद मैं भी हूं शार्ली जैसे जुमलों का हल्ला सोशल मीडिया से लेकर कई जनमंचों पर खूब सुनाई दिया। अभिव्यक्ति की आजादी का पुरजोर समर्थन अच्छी बात है। सोशल मीडिया की बहादुरी और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का उसका जज्बा वाकई सराहनीय है। काश, पेशावर में मारे गए नौनिहालों के परिजनों के साथ भी ऐसी ही बहादुरी और जज्बात यदि परवान चढ़ते तो उससे आतंकवादियों का मनोबल जरूर टूटता। आखिर वे निरीह बच्चे बहादुरी नहीं तो सहानुभूति के हकदार तो थे ही। पेशावर के सैनिक स्कूल मामले में निन्दा की आवाजें उठीं और मृत बच्चों के लिए दु:ख भी जताया गया पर दु:ख की इस घड़ी में विश्व के किसी देश में मृत बच्चों की याद में जनसैलाब नहीं उमड़ा। किसी देश ने यह नहीं कहा कि मैं इन बच्चों का अभिभावक हूं, बड़ा भाई, बहन और दोस्त हूं। जो भी हो 12 जनवरी को जब पेशावर का सैनिक स्कूल पुन: खुला तब भी मीडिया में इस खबर को उतना स्थान नहीं मिला, जितना फ्रांस के प्रदर्शन को दिया गया।
सैनिक स्कूल की इमारत में जहां बच्चे पढ़ने जाते थे, वहां पड़े खून और मांस के कतरों को तो हटा दिया गया, टूटी दीवारों को भी दुरुस्त कर दिया गया लेकिन बच्चे निडरता से तालीम हासिल करें इसके लिए हमारे शांतिप्रिय समाज ने कुछ भी नहीं किया। आतंकवाद से लहूलुहान होने के बाद सहानुभूति में भेदभाव का शिकार अकेले पाकिस्तान ही नहीं नाइजीरिया भी है। नाइजीरिया में लम्बे समय से आतंकी संगठन बोको हराम क्रूर और हिंसक लड़ाई छेड़े हुए है। हाल ही में उत्तर-पूर्वी नाइजीरिया के बागा शहर में बोको हराम के हमले में दो हजार से अधिक लोग मारे गए। इनमें अधिकतर महिलाएं, बच्चे व वृद्ध शामिल थे, जो भागकर अपनी जान नहीं बचा सके। नाइजीरिया में आज भी लगभग 30 हजार लोग खानाबदोश दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। लोग इस वारदात से अभी उबरे भी नहीं थे कि उत्तर-पूर्वी नाइजीरिया के ही मैदुगुरी शहर के व्यस्ततम बाजार में एक आत्मघाती हमले में 19 लोगों की मौत हो गई। आत्मघाती हमला एक 10 साल की बच्ची के जरिए करवाया गया, जिसे शायद यह भी नहीं मालूम रहा होगा कि उसके शरीर पर बम बंधा हुआ है। बोको हराम ने कई लड़कियों और महिलाओं को अगवा कर रखा है। आशंका और डर है कि कहीं वह इनका इस्तेमाल दहशतगर्दी के लिए न कर दे। नाइजीरिया में निर्दोषों के कत्लेआम पर पश्चिमी देशों की असहिष्णुता इंसानियत के साथ विभेद ही कही जाएगी। आज भारत भी पश्चिमी देशों से गलबहियां कर रहा है। हाल ही गुजरात में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन में कई देशों के नेता जुटे, फ्रांस पर हमले की आलोचना हुई तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वसुधैव कुटुम्बकम का राग भी अलापा। देखा जाए तो वसुधा हमेशा ही एक कुटुम्ब की तरह रही है। उसने अपने संसाधन सबको बिना भेदभाव के उपभोग के लिए दिए हैं। इंसान ने ही उसमें अपने-पराए की सीमा खींची है। आज  जब हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हैं तो हमें यह भी सोचना चाहिए कि यह कैसा कुटुम्ब है, जिसके सदस्यों के दु:ख-दर्द साझा करने में अपना-पराया नजर आता है। सच कहें तो दुनिया का स्वार्थ संचालित कुटुम्ब का हिमायती होना समूची मानवता के लिए गम्भीर खतरे का संकेत है। 

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