Wednesday 7 January 2015

हे भगवान कैसा सम्मान

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावैं चौरा। यह सिर्फ लोकोक्ति नहीं बल्कि हम भारतीयों की हकीकत है। सम्मान सबको अच्छा लगता है। खिलाड़ियों को जहां पसीना सूखने से पहले सम्मानित किया जाना चाहिए वहीं महापुरुषों को जीते जी सम्मानित करने से दीगर लोगों को अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। अफसोस हमारे देश में सम्मान व्यापार बन चुका है। सम्मान के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं यहां तक कि अपने जमीर का सौदा भी।
मोदी सरकार जब से आई है सम्मान विवादों की जद में हैं। खेल दिवस पर मिलने वाले सम्मान विवादों की भेंट चढ़े तो भारत रत्न को लेकर भी मुल्क एक राय नहीं दिखा। हाल ही पद्म भूषण सम्मान को लेकर साइना नेहवाल मुंह फुला बैठीं। भला हो खेल मंत्री सर्बानन्द सोनोवाल का जिन्होंने बात बिगड़ने से पहले ही पद्म भूषण के लिए साइना पर सहमति दे दी। बात इन्हीं सम्मानों तक सीमित नहीं है। मुल्क में दिए जाने वाले हर सम्मान के पीछे का सच बहुत दु:खदाई है। साहित्य जगत का हाल तो और भी बुरा है। लोग सम्मानित होने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। चयन समिति ही नहीं यहां जिस्म भी बिकता है।
मुल्क के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न के क्या मायने हैं? यह बात मैं आज तक नहीं समझ सका। देश में मरणोपरान्त बहुत से लोग सम्मानित हो चुके हैं तो कई नाम प्राय: लिए जाते हैं। सवाल यह कि आखिर हम इतिहास पुरुषों को उनके जीते जी क्यों सम्मानित नहीं कर सके, हमारी क्या मजबूरियां थीं?  जहां तक परम्परा और प्रचलन की बात है, यह सनातम समय से जीवंत है। भारतीय परम्परा और भारत का इतिहास राम और कृष्ण तक जाता है। इनकी पूजा तो हम अवतार के रूप में करते हैं। सम्मान से किसी को गुरेज नहीं पर मरणोपरांत सम्मान सिर्फ उन सैनिकों को होना चाहिए जो मुल्क के लिए शहीद होते हैं। सर्वोच्च बलिदान देकर ही वह सर्वोच्च सम्मान के हकदार बनते हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महान कार्यों को अंजाम देने वाली विभूतियों का सम्मान आने वाली पीढ़ी की प्रेरणा होना चाहिए।
अफसोस मुल्क में सम्मानों का विद्रूप चेहरा सच को चिढ़ा रहा है। हर सम्मान पर राजनीति आड़े आ जाती है। हर सम्मान स्वहित की भेंट चढ़ जाता है। शासकीय सम्मान राजनीतिक हित तो स्वैच्छिक सम्मान चापलूसी की इंतहा पार कर रहे हैं। 24 दिसम्बर को अटल बिहारी वाजपेयी और महामना मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न देने की संस्तुति से जो खुशी होनी चाहिए वह नहीं हुई।  यह तो सब मानते हैं कि मालवीयजी इस सम्मान के असल हकदार हैं लेकिन सवाल यह कि सम्मान अब क्यों? कहने वाले कह रहे हैं कि कांग्रेस-नीत सरकारों में देश के कुछ नायकों की जान-बूझकर उपेक्षा की गयी। राष्ट्र सम्मान, किसी पार्टी या सरकार की बपौती तो नहीं होते कि जिसे चाहा उसे दे दिया। ऐसे सम्मानों का आधार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य ही होना चाहिए। दलगत राजनीति की आवश्यकता और विवशताओं  के चलते ही मुल्क के हर सम्मान की गरिमा पर आंच आई है।
गलती होना जुल्म नहीं है। उसे सुधारा भी जा सकता है। यदि पिछली हकूमतों से राष्ट्र सम्मान के मामलों में चूक हुई है तो हमारी वर्तमान या आने वाली सरकारें उसमें सुधार कर सकती हैं। वैसे पिछली सरकार की गलतियों को ठीक करने का काम नई सरकार को ही करना होता है। राष्ट्रीय सम्मान के लिए व्यक्तियों के चयन की जहां तक बात है इस पचड़े में सरकारों को नहीं पड़ना चाहिए। पद्म सम्मान और भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मानों पर  बेवजह की राजनातिक दखलंदाजी से इनकी पवित्रता और महत्ता दोनों पर आंच आ रही है। कितना दु:खद है कि समाज का एक वर्ग महामना के नाम में भी राजनीतिक स्वार्थ की गंध सूंघ रहा है। कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी सोची-समझी नीति के तहत राष्ट्रनायकों को अपनी ओर खींच रही है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति की बात हो या फिर छत्रपति शिवाजी की विरासत की, भाजपा जिस तरह से ऐसे नायकों से स्वयं को जोड़ रही है, उसे राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित तो कहा ही जा सकता है। आखिर सरदार वल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधीजी या मालवीयजी जैसे व्यक्तित्व अचानक भाजपा को अपने से क्यों लगने लगे?
सम्मानों की मुल्क में लम्बी फेहरिस्त है। यहां हर कोई सम्मानित होना चाहता है। सम्मान की इस विषबेल ने समाज के हर उस पहलू को छू लिया है जहां उसकी जरूरत भी नहीं थी। राष्ट्र सम्मान से इतर गली-कूचों में होने वाले सम्मानों का स्याह सच बहुत हृदयविदारक है। हम समझ भी नहीं सकते कि हमारे सभ्य समाज का कितना पतन हो चुका है। सम्मानों की अंधी दौड़ बेशक मुफीद न हो पर दौड़ना हर कोई चाहता है। सम्मान के सारे मानक मजाक बन चुके हैं। हमारा सोशल समाज तय ही नहीं कर पा रहा कि उसे किस दिशा में जाना है। राष्ट्रनायक किसी दल विशेष की जागीर न होते हुए सबके अपने हैं। कोई भी राजनीतिक दल यदि उन पर अपना अधिकार जताता है तो यह उसकी संकुचित मानसिकता ही है। महानायक न केवल सारे राष्ट्र की बल्कि समूची मानवता की साझी धरोहर हैं लिहाजा धर्म, जाति अथवा राजनीतिक विचारधारा के आधार पर इनका बंटवारा नहीं किया जा सकता। हमारे महापुरुष ज्योति-पुंज हैं। उनके आलोक से ही सारा संसार प्रकाशमान है। उस प्रकाश में हम अपने आपको देखें और अपने आगे के रास्ते को भी।

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