क्रिकेट ही नहीं सभी खेल
संघों में हो पारदर्शिता
श्रीप्रकाश
शुक्ला
कहते हैं कि कानून से आंख-मिचौनी लम्बे समय तक नहीं की जा
सकती, जो ऐसा करने की हिमाकत करेगा उसे उसका प्रतिफल एक न एक दिन जरूर मिलेगा।
भारत सरकार तक को अपनी लोकप्रियता और गुरूर से गाहे-बगाहे परेशान करने वाले भारतीय
क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ही लें वह आज उच्चतम न्यायालय के सामने पनाह मांगता दिख
रहा है। क्रिकेट को अपनी बपौती मानने वाले सफेदफोश एक-एक कर इससे रुख्सत हो रहे
हैं। सिर्फ क्रिकेट ही क्यों इस तरह की कार्रवाई हर उस खेल संघ पर होनी चाहिए
जिसमें लम्बे समय से राजनीतिज्ञ पैठ बनाए हुए हैं। खेल, खेलभावना की अलख जगाते हैं
लेकिन आजादी के बाद से ही हिन्दुस्तान में खेल राजनीतिज्ञों की लुगाई हैं। क्रिकेट
में सुधार की जो कोशिशें परवान चढ़ रही हैं, उसके लिए हमें छपरा के आदित्य वर्मा का
अहसानमंद होना चाहिए जिनके प्रयासों से क्रिकेट की गंगोत्री पाक-साफ होती दिख रही
है।
क्रिकेट में गड़बड़झाले को लेकर वर्ष 2013 में आदित्य वर्मा
ने एक पीआईएल दायर की थी। रणजी में बिहार का प्रतिनिधित्व करने और बिहार क्रिकेट
संघ के सचिव ने जब बॉम्बे हाईकोर्ट के सामने पीआईएल में बीसीसीआई के एक पैनल को
असंवैधानिक घोषित करने की मांग की थी, तब किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि
क्रिकेट में कभी बदलाव की बयार बहेगी। इसकी वजह उनका दुनिया के सबसे धनवान खेल संघ
से टक्कर लेना था। तब कयास यह लगाए जा रहे थे कि इस शख्स के पास भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड से लड़ने के लिए पैसा कहां से आएगा। तरह-तरह के सवालों का सामना
करने वाले आदित्य वर्मा के चेहरे की विजयी मुस्कान यही साबित करती है कि यदि सुधार
के सार्थक प्रयास किए जाएं तो खेलों को गंदगी से मुक्त किया जा सकता है। बीसीसीआई अध्यक्ष
अनुराग ठाकुर और सचिव अजय शिर्के की क्रिकेट से बेदखली आदित्य वर्मा के
सद्प्रयासों का ही नतीजा है। आदित्य वर्मा की पीआईएल का ही कमाल है कि पहले
बीसीसीआई सुप्रीमो एन. श्रीनिवासन की बोर्ड से विदाई हुई और आईपीएल की दो टीमों के
खिलाफ एक्शन हुआ।
राजनीतिज्ञ और बिहार क्रिकेट संघ के अध्यक्ष सुबोध कांत
सहाय के नजदीकी आदित्य वर्मा ने श्रीनिवासन पर फैसला आने के बाद एक साक्षात्कार में
कहा था कि हर सुनवाई से पहले मैं शशांक मनोहर को सारे कागजात भेजता था। वह मुझे
सलाह देते थे। अनुराग ठाकुर मेरे साथ थे। उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया था। निरंजन
शाह विदेश से फोन करके पूछते थे कि कोर्ट में क्या हुआ लेकिन फैसला आने के बाद सब
बदल गया। वर्मा की कही सच मानें तो श्रीनिवासन का आसन हिलने के बाद लोगों ने मुझे
धोखा दिया क्योंकि मैं मुश्किल सवाल पूछता था। मैं चाहता था कि लोढ़ा पैनल की सारी
सिफारिशें मानी जाएं जो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के लोग नहीं चाहते थे।
श्रीनिवासन की विदाई के वक्त किसी ने नहीं सोचा होगा कि वर्मा यहीं नहीं रुकेंगे।
दरअसल, बीसीसीआई के जिन लोगों ने वर्मा के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई वे फैसला आने
के बाद वर्मा को संतुष्ट करने में नाकाम रहे। बिहार क्रिकेट एसोसिएशन को लेकर उनकी
मांगें नहीं मानी गईं बल्कि वर्मा के शब्दों में उन्हें मतलब निकल जाने के बाद
पहचानना बंद कर दिया गया।
क्रिकेट में फसाद की शुरुआत 2007 में हुई थी जब बीसीसीआई ने
बिहार क्रिकेट संघ को मान्यता देने से इंकार कर दिया था। श्रीनिवासन चाहते तो
मामला सुलट सकता था लेकिन उन्होंने हमेशा विपक्षी खेमे का साथ दिया। श्रीनिवासन के
कार्यकाल में झारखंड को तो मान्यता मिल गई लेकिन बिहार को नहीं दी गई। आदित्य वर्मा
बार-बार एक ही बात कहते थे कि भगवान कृष्ण ने पांडवों के लिए पांच गांव मांगे थे
लेकिन दुर्योधन ने मना कर दिया, नतीजन कौरवों का विनाश हुआ। वर्मा के मुताबिक उनकी
मांग बिहार क्रिकेट संघ को मान्यता देने तक सीमित थी लेकिन जिस तरह का व्यवहार उनके
साथ हुआ, उसी का नतीजा है कि आज बीसीसीआई का साम्राज्य बिखर चुका है। सुप्रीम
कोर्ट की पहल पर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और सचिव
अजय शिर्के की विदाई के बाद राज्य क्रिकेट संघों के पदाधिकारियों की कुर्सियां भी एक-एक
कर खाली हो रही हैं। चार दशक से अधिक समय तक सौराष्ट्र क्रिकेट संघ का हिस्सा रहे
अनुभवी प्रशासक निरंजन शाह बिना इस्तीफा दिये ही पद से हट गये तो मध्यप्रदेश
क्रिकेट संघ के प्रबंधकीय ढांचे में भी बड़ा फेर-बदल देखने को मिल गया है। सुप्रीम
कोर्ट का कानूनी डंडा चलने के बाद मध्यप्रदेश क्रिकेट संघ के चेयरमैन
ज्योतिरादित्य सिंधिया और अध्यक्ष संजय जगदाले समेत राज्य क्रिकेट संघ के चार आला पदाधिकारियों
की कुर्सी भी चली गई। सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के बाद सिंधिया, जगदाले और
एमपीसीए के दो उपाध्यक्ष एम.के. भार्गव और अशोक जगदाले अपने आप पदमुक्त हो गये
हैं। लोढ़ा समिति की सिफारिशों के मुताबिक बीसीसीआई और राज्य क्रिकेट संघों में
कोई भी व्यक्ति नौ साल से अधिक समय तक पद पर नहीं रह सकता। सिंधिया और जगदाले को
एमपीसीए की प्रबंध समिति के अलग-अलग पदों पर रहते नौ साल से ज्यादा समय हो गया था
लिहाजा वे पद से हट गये हैं। एमपीसीए के तीन उपाध्यक्षों में शामिल एम.के. भार्गव
और अशोक जगदाले की उम्र 70 साल से ज्यादा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ध्यान में
रखते हुए कर्नाटक राज्य क्रिकेट संघ के अध्यक्ष पी.आर. अशोक आनंद, सचिव बृजेश पटेल
और कोषाध्यक्ष पी. दयानंद पाई ने भी अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया है।
सुप्रीम कोर्ट की जहां तक बात है उसने भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड और उसकी गतिविधियों में सुधार के लिए काफी समय की मोहलत दी थी लेकिन
अहं का शिकार बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर और सचिव अजय शिर्के ने उसके आदेशों को
मानना जरूरी नहीं समझा और एक तरह से अवमानना करने पर उतारू रहे। इसलिए सुप्रीम
कोर्ट ने बीसीसीआई के इन दोनों उच्च पदस्थ लोगों को उनके पद से बर्खास्त करने का
फैसला सुनाकर साबित किया कि कानून से बड़ा कोई नहीं है। गौरतलब है कि अदालत ने
पिछले साल 18 जुलाई को दिए अपने फैसले में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में मंत्रियों,
प्रशासनिक अधिकारियों और 70 साल से ज्यादा उम्र वाले लोगों के पदाधिकारी बनने पर
रोक लगा दी थी। जानें क्यों बीसीसीआई के हटाए गए अध्यक्ष और सचिव यह नहीं समझ सके
कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल करना उनकी जिम्मेदारी और बाध्यता दोनों है।
दोनों ने राज्य क्रिकेट संघों का हवाला देकर सुधारों को लागू न करने का बहाना बनाए
रखा।
दरअसल, जैसे-जैसे क्रिकेट एक लोकप्रिय खेल से अकूत पैसे के
तमाशे में तब्दील होता गया इसके संचालन और उच्च पदों पर कब्जा जमाने की होड़ बढ़ती ही
गई। इसमें सबसे ज्यादा कामयाबी ऊंचे राजनीतिक रसूख वाले लोगों को मिली जो राज्य
खेल संघों से लेकर बीसीसीआई तक के शीर्ष पदों पर कब्जा जमाकर अपने मुताबिक उसे चलाने
लगे। इससे सबसे ज्यादा नुकसान क्रिकेट संघों के प्रशासनिक पहलू को हुआ। इनमें वैसे
लोगों को जगह नहीं मिल सकी जो पेशेवर खिलाड़ी रहे हैं और क्रिकेट से जुड़े सारे
पहलुओं को समझते हैं। इसका स्वाभाविक असर खिलाड़ियों के चयन, उनके प्रशिक्षण, खेलों
के आयोजन और उनके प्रसारण के अधिकार आदि देने की स्थितियों पर भी पड़ा। यह कोई छिपी
बात नहीं है कि जब से क्रिकेट में आईपीएल प्रतियोगिता की शुरुआत हुई तभी से उसमें
खिलाड़ियों की खुली नीलामी से आगे बढ़ते हुए मैच फिक्सिंग तक के मामले सामने आने
लगे। इन सब पर लगाम लगाने के बजाय बीसीसीआई सहित तमाम खेल संघों के पदाधिकारियों
की रुचि पद पर कब्जा बनाए रखने में ही रही। सवाल यह भी कि क्या क्रिकेट में हो रहे
पैसे के खेल में परदे के पीछे कुछ और लोगों का हिस्सा भी बन रहा था, अगर नहीं तो
आखिर किन वजहों से एक लोकप्रिय खेल को पैसा बनाने के खेल में तब्दील किया जाता रहा।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले का संदेश साफ है कि खेल संगठनों में वैसे ही लोग
मौजूद हों जो इसे खेल बनाए रखने के प्रति अपनी जिम्मेदारी का सही निर्वहन कर सकें।
खेल और खिलाड़ियों की बेहतरी के नाम पर क्रिकेट प्रबंधन पर
काबिज बीसीसीआई के स्वयंभू मठाधीशों और उनके जी-हुजूर राज्य क्रिकेट संघों को लगता
होगा कि स्वायत्तता और व्यावहारिकता का तर्क हर सवाल का जवाब हो सकता है लेकिन
अपने ही बुने जाल में इस कदर फंस गये कि ठाकुर का अध्यक्ष पद ही नहीं गया अदालत की
अवमानना और झूठे शपथ-पत्र के लिए आपराधिक मुकदमे की तलवार भी उन पर लटक गयी है। क्रिकेट
के कर्णधारों की काबिलियत का सच उजागर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर की यही टिप्पणी पर्याप्त होनी चाहिए कि
तब तो न्यायाधीशों की टीम के कप्तान के नाते वह भी क्रिकेटर हुए। क्या कोई बता
सकता है कि एन. श्रीनिवासन, शरद पवार, शशांक मनोहर और इनके संगी-साथी कब कहां किस
स्तर पर कितना क्रिकेट खेले थे अथवा फिर प्रबंधन में कौन-सी विशिष्ट डिग्री कहां
से लेकर आये। बीसीसीआई की रीति-नीति पर पहले भी सवाल और संदेह उठते रहे हैं लेकिन
जब कमोबेश सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता और असरदार नौकरशाह क्रिकेट की
गंगोत्री में गोते लगाते हों ऐसे में बिल्ली के गले में घंटी भला कौन बांध सकता
था। विश्व का सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड खिलाड़ियों को बेहतर पारिश्रमिक देने का दम
तो भर सकता है लेकिन देश को एक भी बड़ा खिलाड़ी देने का दावा नहीं कर सकता जबकि
उसकी कारगुजारियों के चलते मोहिंदर अमरनाथ और मदनलाल सरीखे अनेक खिलाड़ियों के करियर
से खिलवाड़ का दाग अवश्य उसके दामन पर है।
आईपीएल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी की जांच करने वाली
मुद्गल समिति के ही काम को आगे बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व मुख्य
न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा की अगुआई में समिति बनाई थी ताकि वह दोषियों को सजा के साथ
ही पूरे क्रिकेट प्रबंधन को जिम्मेदार-जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए सुझाव-सिफारिशें
दे सके। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल 18 जुलाई को ही लोढ़ा समिति की सिफारिशों
को स्वीकार भी कर लिया पर दौलत-शोहरत के शिखर पर बैठे बीसीसीआई के मठाधीशों को तब
भी गम्भीरता का एहसास नहीं हुआ और वे सिफारिशों पर अमल से बचने के लिए नित नये-नये
बहाने गढ़ पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे। इस बीच बार-बार नसीहत दिये जाने पर भी जब
क्रिकेट के मठाधीश न सुधरने पर ही आमादा नजर आये तो सर्वोच्च न्यायालय के पास
उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। उम्मीद की जानी
चाहिए कि क्रिकेट प्रबंधन से शुरू यह खेल सुधार अन्य खेल संगठनों तक भी पहुंचेगा
और चंद लोगों की जागीर बन चुके खेल संघ राजनीतिज्ञों से मुक्त होंगे।
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